बिहार के बोधगया में महाबोधि मंदिर परिसर और उसके आसपास के क्षेत्र में ‘विशाल वास्तुशिल्प संपदा' की मौजूदगी के साक्ष्य मिले हैं. यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर स्थल महाबोधि मंदिर परिसर भगवान गौतम बुद्ध के जीवन से संबंधित चार पवित्र स्थलों में से एक है. माना जाता है कि बोधगया वह स्थान है जहां भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था. सैटेलाइट इमेज और जमीनी सर्वेक्षणों की मदद से यहां ‘विशाल वास्तुशिल्प संपदा' की मौजूदगी के साक्ष्य मिले हैं. यह अध्ययन कला, संस्कृति एवं युवा विभाग की एक शाखा बिहार हेरिटेज डेवलपमेंट सोसाइटी (बीएचडीएस) ने ब्रिटेन के कार्डिफ विश्वविद्यालय के सहयोग से किया है. कला, संस्कृति एवं युवा विभाग की अपर मुख्य सचिव हरजोत कौर बम्हरा ने बताया, ‘‘अध्ययन से महाबोधि मंदिर और उसके आसपास के क्षेत्रों की मिट्टी के नीचे पुरातात्विक खजाने की मौजूदगी के सबूत मिले हैं... यह एक विशाल वास्तुशिल्प संपदा है, जिसकी और खुदाई की जरूरत है.''
ब्रिटेन स्थित कार्डिफ विश्वविद्यालय और बीएचडीएस ‘‘चीनी यात्री जुआनज़ांग के पदचिन्हों पर पुरातत्व'' परियोजना में सहयोग कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के संकाय सदस्य एमबी रजनी ने महाबोधि मंदिर और उसके आसपास की उपग्रह छवियों का अध्ययन किया और निष्कर्षों को ‘‘ज़ुआनज़ैंग'' के विवरण के साथ जोडने का प्रयास किया.
बोधगया में वर्तमान महाबोधि मंदिर परिसर में 50 मीटर ऊंचा भव्य मंदिर, वज्रासन, पवित्र बोधि वृक्ष और बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के अन्य छह पवित्र स्थल शामिल हैं जो कई प्राचीन स्तूपों से घिरा हुआ है. बम्हरा ने कहा, ‘‘बीएचडीएस कार्डिफ़ विश्वविद्यालय के सहयोग से बिहार में सातवीं शताब्दी के चीनी भिक्षु जुआनज़ैंग की यात्रा के पुरातात्विक निशान पर बहुविषयक परियोजना पर काम कर रहा है. पिछले कई वर्षों की उपग्रह छवियां मंदिर के उत्तर में भूमिगत संरचनाओं का एक संरेखण दिखाती हैं.''
गौरतलब है कि तस्वीरें निरंजना नदी के पूर्व से पश्चिम की ओर बदलाव को दर्शाती हैं.
उन्होंने कहा, ‘‘हमें याद रखना चाहिए कि महाबोधि मंदिर नदी के पश्चिम में है और सुजाता स्तूप और कई अन्य पुरातात्विक अवशेष नदी के पूर्व में स्थित हैं. नदी के पूर्व में स्थित स्मारक और अन्य पुरातात्विक अवशेष अब महाबोधि मंदिर से मुक्त माने जाते हैं.''
बम्हरा ने कहा, ‘‘लेकिन नवीनतम खोज से पता चलता है कि मंदिर और सुजाता स्तूप दोनों अन्य पुरातात्विक अवशेषों के साथ अतीत में एक ही नदी तट पर थे.'' उन्होंने कहा कि यह वास्तव में ‘‘बहुत महत्वपूर्ण'' है. बम्हरा ने कहा, ‘‘इस बात की प्रबल संभावना है कि स्मारक और अन्य पुरातात्विक अवशेष, जो अब नदी के पूर्व में हैं, महाबोधि परिसर का हिस्सा थे.''
उन्होंने कहा कि बीएचडीएस ने ‘‘इन निष्कर्षों के आलोक में महाबोधि परिसर की सीमाओं को सीमित करने के लिए अनुसंधान'' शुरू करने की योजना बनाई है. अधिकारी ने कहा, ‘‘नये ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार (जीपीआर) सर्वेक्षण के बाद की जाने वाली खुदाई उपग्रह चित्रों द्वारा दिखाए गए भूमिगत पुरातात्विक अवशेषों को उजागर करने के लिए किया जाएगा.''
क्या है ताजा अध्ययन का निष्कर्ष
निष्कर्षों के बारे में विस्तार से बताते हुए, बीएचडीएस के कार्यकारी निदेशक बिजॉय कुमार चौधरी ने पीटीआई-भाषा को बताया, ‘‘हमारे ताजा अध्ययन से कई निष्कर्ष सामने आए हैं जिसमें मंदिर परिसर के उत्तर में चारों ओर खाई वाली एक दीवार से घिरा हुआ एक चौकोर मठ परिसर और एक विस्तारित बस्ती शामिल है.''
ह्वेनसांग, जिसे जुआनज़ैंग के नाम से भी जाना जाता है, एक चीनी बौद्ध भिक्षु, यात्री और अनुवादक थे. उन्होंने राजा हर्ष वर्धन के शासनकाल के दौरान बौद्ध धर्मग्रंथ प्राप्त करने के लिए चीन से भारत की यात्रा की. उन्हें 629 से 645 ईस्वी तक की भारत यात्रा और 657 से अधिक भारतीय ग्रंथों को चीन में लाने के उनके प्रयासों के लिए जाना जाता है.
उनके लेखन का चीन में बौद्ध धर्म के विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा. ह्वेनसांग के भारत की यात्रा वृतांत ने 1860 और 1870 के दशक में अलेक्जेंडर कनिंघम को नालंदा और वैशाली जैसे प्रसिद्ध स्थलों की पहचान करने में मदद की.
रजनी की रिपोर्ट के अनुसार मठ परिसर की चौकोर दीवार की खुदाई 19वीं शताब्दी में कनिंघम द्वारा की गई थी लेकिन आगे कोई खुदाई नहीं की गई है. हालांकि, इस क्षेत्र में व्यवस्थित उत्खनन की काफी संभावनायें हैं. उन्होंने बताया, ‘‘हालांकि मठ के निशान अब जमीन पर दिखाई नहीं देते हैं पर उपग्रह तस्वीरों से पता चला है कि चौकोर दीवार समन्वय आश्रम के साथ काफी मेल खाते हैं.'' उन्होंने कहा कि कनिंघम ने मठ के स्तंभित दरबार के केंद्र में जो कुआं देखा, वह आश्रम के भीतर द्वारकोजी सुंदरानी की मूर्ति के दक्षिण में स्थित दो कुओं में से एक हो सकता है. (भाषा इनपुट के साथ)
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