पूर्वी दिल्ली के गांधीनगर इलाके में रहने वाले मोहन कुमार कश्यप के सिर से बाप का साया ट्रैफिक जाम की वजह से उठ गया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण (एलएनजेपी) अस्पताल में काम करने वाले राजाराम की जब तबियत बिगड़ी, तब गांधीनगर से दिल्ली गेट स्थित एलएनजेपी अस्पताल पहुंचने में करीब दो घंटे का वक्त लग गया, जबकि दूरी महज पौने पांच किलोमीटर की है।
सबसे पहले कोशिश एम्बुलेंस बुलाने की हुई, लेकिन वक्त लगता देख परिवार के लोग आननफानन ऑटो लेकर अस्पताल के लिए निकले, लेकिन गांधीनगर की गलियां और फिर सड़क पर जाम करीब डेढ़ घंटा खा गए। मोहन उस दिन को नम आंखों से याद करते बताते हैं, "मैं चिल्लाता रहा, जाम खुलवाने की कोशिश भी की, लेकिन बेशकीमती दो घंटे सड़क पर बिखर गए, और ज़िन्दगी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गई..."
यह कड़वी हकीकत है कि देश में हर साल हार्ट अटैक से 24 लाख लोगों की मौत होती है, जिनमें से 17 लाख लोग अस्पताल पहुंचने से पहले दम तोड़ देते हैं और अगर वक्त पर इलाज मिल जाए तो इनमें से 12 लाख लोगों की जानें बचाई जा सकती हैं। सवाल यह है कि अगर किसी वारदात के बाद पांच मिनट में पुलिस की पीसीआर वैन पहुंच सकती है तो फर्स्ट एड क्यों नहीं...?
मेडिकल एमरजेंसी सेवाओं को लेकर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, यानि आईएमए एक नए मॉडल की बात कर रही है, जिसके मुताबिक हर पीसीआर में मेडिकल किट के साथ एक पैरा-मेडिकल स्टाफ तैनात कर दिया जाए, जो एमरजेंसी में फर्स्ट एड देने से लेकर एम्बुलेंस के आने तक मरीज के साथ मौजूद रहेगा। आईएमए में मानद महासचिव के तौर पर काम करने वाले डॉ केके अग्रवाल का कहना है कि हर पीसीआर वैन में एक पैरा-मेडिकल स्टाफ हो, जो मरीज को प्राथमिक उपचार दे। पीसीआर उस स्टाफ को छोड़कर चली जाए और जब एम्बुलेंस आए, तब उस मरीज को अस्पताल पहुंचा दे। यह एक व्यावहारिक उपाय है, जिसे लेकर हमने दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को चिट्ठी लिखी है। साथ ही भारत सरकार को भी लिख रहे हैं कि उस पैरा-मेडिकल स्टाफ का खर्च सरकार उठाए। पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर इसे शुरू करें तो यह आइडिया काम कर सकता है।
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