महिला अधिकारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने बुधवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा है कि शादी के आधार पर महिलाओं को नौकरी से नहीं निकाला जा सकता है. महिला कर्मियों को शादी के अधिकार से वंचित करने का आधार बनाने वाले नियम असंवैधानिक हैं. अदालत के इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील अर्चना पाठक दवे (Archana Pathak Dave) ने एनडीटीवी ने खास बातचीत में कहा कि यह फैसला इंगित करता है कि सुप्रीम कोर्ट मानवाधिकारों का संरक्षक है. उन्होंने कहा कि इस फैसले से युवा महिलाओं का विश्वास मजबूत होगा.
वरिष्ठ वकील अर्चना दवे ने कहा कि मैं इस फैसले को बेहद सकारात्मक तरीके से देखती हूं. साथ ही उन्होंने कहा कि हमें उस महिला अधिकारी को सेल्यूट करना चाहिए जिसे 1988 में सेवा से इसलिए निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होंने शादी कर ली थी. दवे ने कहा कि 1977 का नियम कहता है कि यदि महिला अधिकारी की शादी हो जाएगी तो उन्हें नौकरी छोड़नी होगी. यह सर्कुलर 1995 में सरकार ने वापस ले लिया था.
उन्होंने कहा, "कानूनी बात करें तो कोई भी फैसला पीछे की बात नहीं करता है, बल्कि वह आगे के लिए होता है. लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए और शायद सु्प्रीम कोर्ट ने भी इसका ध्यान रखा है कि हम आखिर में एक इंसान के साथ बर्ताव कर रहे हैं."
उन्होंने कहा कि वह महिला उस वक्त युवा थी और उन्होंने उसके बाद कुछ नहीं किया. वह आज तक लड़ी है. उन्हें जो मुआवजा दिया गया है, वो यह इंगित करता है कि सुप्रीम कोर्ट मानवाधिकारों का संरक्षक है.
उन्होंने कहा कि इस मामले में एक पुरुष शादी के बाद नौकरी में रह सकता है, लेकिन महिला ने शादी की तो उसे नौकरी से निकाला गया, यह बेहद पितृसत्तात्मक है. एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जहां तक हम पुरुष बनाम महिला की बात करते हैं. यह कभी भी नहीं होना चाहिए, हम एक-दूसरे के साथ रह सकते हैं, लेकिन एक-दूसरे के बिना हम समाज में नहीं रह सकते हैं.
फैसले से मजबूत होगा महिलाओं का विश्वास : दवे
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि जिस स्तर पर पुरुष काम करते हैं, वहां पर महिलाएं काम नहीं कर पाएंगी, यह कहना बिलकुल गलत होगा. उन्होंने कहा कि इस फैसले से हमारी युवा महिलाओं का विश्वास मजबूत होता है कि कुछ गलत होगा तो हम ऐसा कदम उठा सकते हैं और अपने अधिकारों को लागू करा सकते हैं.
यह था पूरा मामला
बता दें कि याचिकाकर्ता सेलिना जॉन को सैन्य नर्सिंग सेवाओं के लिए चुना गया था और वह दिल्ली के आर्मी अस्पताल में प्रशिक्षु के रूप में शामिल हुई थी. उन्होंने एक सेना अधिकारी मेजर विनोद राघवन से शादी कर ली थी, जिसके बाद लेफ्टिनेंट के पद पर सेवा करते समय उन्हें सेना से रिलीज कर दिया गया. संबंधित आदेश ने बिना कोई कारण बताओ नोटिस या सुनवाई का या मामले का बचाव करने का अवसर दिए बिना उनकी सेवाएं समाप्त कर दीं गई थी. लंबी कानूनी लड़ाई का अंत सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार को सैन्य नर्सिंग अधिकारी को 60 लाख रुपये का मुआवजा देने के आदेश के साथ हुआ.
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