संभल में एक मस्जिद को लेकर शुरू हुए विवाद ने हिंसक रूप ले लिया. वहां भड़की सांप्रदायिक हिंसा में पांच लोगों की मौत हो चुकी है. इस विवाद में सैकड़ों लोग घायल हुए हैं.यह विवाद संभल की शाही जामा मस्जिद को लेकर हो रहा है. हिंदू पक्ष का दावा है कि एक मंदिर को तोड़कर इस मस्जिद को बनाया गया था. हिंदू पक्ष मस्जिद को हरिहर मंदिर बता रहा है. इससे पहले कुछ इसी तरह का दावा वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा के शाही ईदगाह और मध्य प्रदेश के धार के कमाल मौला मस्जिद को लेकर भी किया जा चुका है. इस तरह के दावे इन धार्मिक स्थानों के धार्मिक स्वरूप को बदलने की कोशिश है. किसी धार्मिक स्थान के धार्मिक स्वरूप को बदलने से 1991 का प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट रोकता है. आइए जानते हैं कि इस पूरे विवाद का कानूनी पहलू क्या है.
अदालत से क्या मांग की गई है
संभल की जिला अदालत में एक याचिका दायर की गई. इसमें दलील दी गई है कि संभल की शाही जामा मस्जिद एक हिंदू मंदिर को तोड़कर बनाई गई है.संभल की जिला एवं सत्र अदालत के सिविल जज (सीनियर डिविजन) आदित्य सिंह ने 19 नवंबर को वकील हरिशंकर जैन और अन्य की ओर से दायर याचिका को स्वीकार कर लिया.अन्य याचिकाकर्ताओं में एक महंत भी शामिल हैं.इन याचिकाओं में मस्जिद में प्रवेश करने की इजाजत मांगी गई है. याचिकाकर्ताओं की दलील है कि मुगल शासक बाबर ने 1526 में एक हिंदू मंदिर को तोड़कर शाही जमा मस्जिद का निर्माण करवाया था.
याचिका दायर किए जाने के कुछ घंटे बाद ही अदालत ने सर्वे के लिए अधिवक्ता आयुक्त नियुक्त करने का आदेश दिया. उसी दिन मंदिर का पहला सर्वे भी कर लिया गया.अदालत ने आदेश दिया है कि इस सर्वे की रिपोर्ट 29 नवंबर से पहले ही दायर की जाए. दूसरे चरण का सर्वेक्षण 24 नवंबर को किया गया. इसके बाद संभल में प्रदर्शन शुरू हो गया. इस दौरान पुलिस ने गोलीबारी भी की.
मुस्लिम पक्ष को आपत्ति किस बात पर है
इस मामले में मस्जिद पक्ष की दलील है कि मस्जिद का सर्वे कराकर 29 नवंबर तक रिपोर्ट मांगने के लिए दिया गया आदेश एक पक्षीय है. उसका दावा है कि अदालत ने उसे बिना सुने ही यह आदेश दिया है.
संभल की यह जामा मस्जिद संरक्षित स्मारक है. इसे प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम 1904 के तहत 22 दिसंबर 1920 को अधिसूचित किया गया था.सरकार इसे राष्ट्रीय महत्व का स्मारक भी घोषित कर चुकी है. इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की केंद्र की ओर से संरक्षित स्मारकों की सूची में शामिल किया गया है.
इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने जो दीवानी वाद दायर किया है. इसमें कोर्ट को इस प्रापर्टी का मालिकाना तय करना है. इसमें याचियों की ओर से कही गई बातों को प्रथम दृष्टया स्वीकार किया जाना चाहिए. कोड ऑफ सिविल प्रॉसिजर दीवानी मामलों में किए गए दावों के सख्त परिक्षण पर जोर नहीं देता है. याचिका स्वीकार किए जाने के बाद ही याचिकाकर्ताओं से सबूत पेश करने के लिए कहा जाता है.
वाराणसी के ज्ञानवापी और मथुरा के शाही ईदगाह मामले में हिंदू पक्ष की ओर से दायर याचिकाओं को जिला अदालतों ने यह कहते हुए स्वीकार किया था कि प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 के बाद भी ये याचिकाएं स्वीकार किए जाने लायक हैं. इन मामलों में अदालतों का कहना है कि ये मामले प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 से बाहर के मामले हैं.
साल 1991 का प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट क्या है
प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 कहता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए धार्मिक स्थानों के धार्मिक स्वरूप की सुरक्षा की जाएगी. इस कानून की धारा-3 किसी भी धार्मिक स्थल के स्वरूप को पूर्ण या आंशिक रूप से बदलने पर रोक लगाती है.इस कानून का उल्लंघन का दोषी पाए जाने पर तीन साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है.
इस कानून का वादा कांग्रेस ने 1991 के अपने चुनाव घोषणा पत्र में किया था.इस कानून को पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार 1991 में लेकर आई थी. इसका उद्देश्य किसी भी पूजा स्थल को लेकर खड़ा होने वाले विवाद को खत्म करना था.इस बिल को संसद में पेश करते हुए तत्कालीन गृहमंत्री एसवी चाव्हाण ने कहा था कि इस विधेयक के लागू होने से सांप्रदायिक सद्भाव और सौहार्द बनाए रखने में काफी मदद मिलेगी.जिस समय यह कानून बनाया गया था, उस समय देश में अयोध्या की बाबरी मस्जिद को लेकर विवाद चरम पर था.
प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 की वैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है.ऐसी चार याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं.याचिकाकर्ताओं में सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय और बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी शामिल हैं. इसके बाद भी अदालतों ने मालिकाना हक वाली याचिकाओं या वाराणसी में ज्ञानवापी और मथुरा के शाही ईदगाह में पूजा-पाठ करने की इजाजत मांगने वाली याचिकाओं को स्वीकार किया है.
सुप्रीम कोर्ट में दी गई है चुनौती
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सितंबर 2022 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित की अध्यक्षता वाले पीठ ने सरकार से दो हफ्ते में जवाब मांगा था. लेकिन दो साल बाद भी सरकार ने अपना हलफनामा दायर नहीं किया है.
ज्ञानवापी मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी ने जिला अदालतों को ऐसी याचिकाओं को स्वीकार करने का अवसर प्रदान किया है.मई 2022 में जस्टिस डीवीआई चंद्रचूड़ ने कहा था किसी धार्मिक स्थान का स्वरूप बदलना 1991 के कानून के तहत प्रतिबंधित है. लेकिन किसी धार्मिक स्थान के स्वरूप का पता लगाने की प्रक्रिया को इस कानून की धारा तीन और चार नहीं रोकती है. इसका आशय यह लगाया गया कि किसी धार्मिक स्थान का 15 अगस्त 1947 को क्या स्वरूप था, इसका पता लगाने की इजाजत दी जा सकती है. भले ही उस धार्मिक स्थान की प्रकृति को बाद में बदला न जा सके.
ज्ञानवापी और मथुरा मामले में मस्जिद पक्ष ने प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट, 1991 की इस व्याख्या को चुनौती दी है.सुप्रीम कोर्ट ने अभी इस मामले में अंतिम दलीलें नहीं सुनी हैं कि 1991 का यह कानून इस तरह की याचिकाएं स्वीकार करने पर भी रोक लगाता है या केवल किसी धार्मिक स्थान के धार्मिक स्वरूप को बदलने पर ही.
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