25 नवंबर को अयोध्या में धर्मसभा होने जा रही है.
नई दिल्ली:
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण (Ram Mandir in Ayodhya) के लिए तमाम हिंदू संगठनों का स्वर तेज हो गया है. मोदी सरकार की सहयोगी पार्टियां भी मंदिर निर्माण के लिए सरकार पर अध्यादेश लाने का दबाव बना रही हैं. पिछले दिनों संघ प्रमुख मोहन भागवत के एक बयान ने सरकार पर दवाब और बढ़ा दिया है. उन्होंने कहा कि राम मंदिर का बनना गौरव की दृष्टि से आवश्यक है. मंदिर बनने से देश में सद्भावना व एकात्मकता का वातावरण बनेगा, ऐसे में इसमें और देरी नहीं की जानी चाहिए. इन सबके बीच 25 नवंबर को अयोध्या में 'धर्मसभा' होने जा रही है. संतों की अपील पर बुलाई गई इस धर्मसभा में तमाम हिंदूवादी संगठन भी शामिल हो रहे हैं. जिसमें विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल प्रमुख हैं. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे भी 25 नवंबर को अयोध्या जा रहे हैं. दावा है कि इस धर्मसभा में 2 लाख से ज्यादा लोग इकट्ठा हो सकते हैं. 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के 26 वर्षों बाद यह पहला मौका है जब अयोध्या में इतनी बड़ी तादाद में लोग इकट्ठा होंगे. इस जमावड़े के पीछे संगठन भी करीबन वही हैं जो 1992 में थे.
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धर्मसभा आयोजन के क्या हैं मायने?
यूं तो इसे धर्मसभा कहा जा रहा है, लेकिन इस सभा के आयोजन की मंशा पर सवाल भी उठ रहे हैं. जानकारों का कहना है कि इस सभा के जरिये हिंदूवादी संगठन राम मंदिर निर्माण (Ram Mandir in Ayodhya) के लिए सरकार पर दबाव तो बनाना ही चाहते हैं. साथ ही 92 जैसी किसी घटना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है. खुद भाजपा नेता इसका संकेत देते रहे हैं. हाल ही में बीजेपी विधायक सुरेंद्र सिंह ने कहा कि अब राम मंदिर निर्माण में और देरी नहीं होनी चाहिए और भगवान संविधान से उपर हैं. कहा यह भी जा रहा है कि 25 नवंबर को होने वाली धर्मसभा के आयोजन में परोक्ष रूप से आरएसएस की भी सहमति है. संघ के सह कार्यवाह भैयाजी जोशी ने सोमवार को ही कहा कि वे आखिरी बार तिरपाल के अंदर भगवान राम का दर्शन करने जा रहे हैं. शायद अगली बार जब वे अयोध्या आएं तो उन्हें भगवान राम का भव्य मंदिर मिले.
शिवसेना हासिल करना चाहती है खोई जमीन
25 नवंबर को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे भी अयोध्या जा रहे हैं. इसके सियासी मायने भी हैं. शिवसेना अयोध्या में राम मंदिर निर्माण मुद्दे के जरिये अपनी खोई हुई जमीन वापस पाना चाहती है. 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद शिवसेना की छवि कट्टर हिंदूवादी दल की बनी और पार्टी को इसका फायदा भी मिला, लेकिन धीरे-धीरे इसका असर कम होने लगा. महाराष्ट्र में इसका असर दिखा और राज्य की सियासत में पार्टी की पकड़ कमजोर हुई. इसके बरक्स अन्य दलों ने जगह बनाई. खुद, एक ही विचारधारात्मक धरातल पर खड़े बीजेपी को इसका फायदा हुआ.
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अयोध्या के पक्षकारों में है मतभेद
धर्मसभा को लेकर विरोध के स्वर भी दिखाई दे रहे हैं. खुद अयोध्या मामले में पक्षकार निर्मोही अखाड़े ने इस पर आपत्ति जताई है. निर्मोही अखाड़ा चाहता है कि मंदिर जबरदस्ती नहीं बल्कि समझौते से बने. निर्मोही अखाड़े के महंत और राम मंदिर के पक्षकार दिनेंद्र दास ने कहा कि मालिकाना हक निर्मोही अखाड़े का है. विश्व हिंदू परिषद वालों को हमेशा निर्मोही अखाड़े का सहयोग करना चाहिए, लेकिन वे सहयोग नहीं करेंगे. यह तो हमेशा लूटने का प्रयास करेंगे और दंगा करने का प्रयास करेंगे. एक और पैरोकार धर्मदास भी कहते हैं कि धर्म के नाम पर जो धंधा करेगा, उसका नुकसान ही होता है. दूसरी तरफ, अयोध्या मामले में याचिकाकर्ता इकबाल अंसारी ने तमाम उठा-पटक के बीच जो बयान दिया है, उसपर भी एक वर्ग में विरोध शुरू हो गया है. उन्होंने मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश के मुद्दे पर कहा कि "हमें कोई आपत्ति नहीं है, यदि राम मंदिर के निर्माण के लिए अध्यादेश लाया जाता है... यदि अध्यादेश लाया जाना देश के लिए अच्छा है, तो लाएं... हम कानून का पालन करने वाले नागरिक हैं, हम कर कानून का पालन करेंगे..."
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धर्मसभा आयोजन के क्या हैं मायने?
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25 नवंबर को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे भी अयोध्या जा रहे हैं. इसके सियासी मायने भी हैं. शिवसेना अयोध्या में राम मंदिर निर्माण मुद्दे के जरिये अपनी खोई हुई जमीन वापस पाना चाहती है. 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद शिवसेना की छवि कट्टर हिंदूवादी दल की बनी और पार्टी को इसका फायदा भी मिला, लेकिन धीरे-धीरे इसका असर कम होने लगा. महाराष्ट्र में इसका असर दिखा और राज्य की सियासत में पार्टी की पकड़ कमजोर हुई. इसके बरक्स अन्य दलों ने जगह बनाई. खुद, एक ही विचारधारात्मक धरातल पर खड़े बीजेपी को इसका फायदा हुआ.
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