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This Article is From Sep 23, 2022

रवीश कुमार का Prime Time: स्मार्ट सिटी से लेकर गांव तक ज़रा-सी बारिश में बेहाल

मूसलाधार बारिश के कारण इटावा में तीन दिनों के लिए स्कूलों में छुट्टी कर दी गई है. कुछ दिन पहले बेंगलुरु डूब गया था क्योंकि एक झटके में ज्यादा पानी बरस गया. इस समय अलीगढ़, फिरोजाबाद, इटावा, कासगंज, आगरा से भी इसी तरह की खबरें हैं. भारी बारिश के कारण तीनों-चारों जिलों में स्कूल बंद कर दिए गए हैं.

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नई दिल्ली:

रेटिंग एजेंसियां भारत के विकास दर के साथ अच्छा नहीं कर रही है. कागज पर कुछ लिखती है फिर कुछ समय के बाद मिटा देती हैं. जिस हिसाब से रेटिंग एजेंसियों ने विकास दरों में कटौती की है. अगर मुमकिन हुआ तो एक दिन इन एजेंसियों की भी छंटनी की जाने लगेगी. इन्हें ज्ञान दिया जाने लगेगा की रेटिंग का फॉर्म मालूम नहीं. डॉलर के मुकाबले रुपया अस्सी के पार चला जाता है. इसे लेकर उसी तरह शांति बनी रहती है जैसे परमाणु हमले कि पुतिन की धमकी के बाद भारत में शांति बनी हुई है. जैसे परमाणु हमला कहीं होगा तो उसका असर भारत में नहीं होगा. पाकिस्तान ने जलवायु संकट में कितना कम योगदान दिया, मगर इस संकट की तबाही वो कितना झेल रहा है? भारत में अब सूखे का ऐलान नहीं होता है मगर खबरें ही बता रही हैं कि उसका असर है. ऐसा नहीं है कि भारत में बारिश और सूखे का खेल नहीं चल रहा. यूपी में ही जहां कम बारिश के कारण धान की फसल सूख जाने की खबरें आ रही थीं, वहां पिछले चार-पांच दिनों से कई शहरों में भारी बारिश की खबरें आ रही हैं.

मूसलाधार बारिश के कारण इटावा में तीन दिनों के लिए स्कूलों में छुट्टी कर दी गई है. कुछ दिन पहले बेंगलुरु डूब गया था क्योंकि एक झटके में ज्यादा पानी बरस गया. इस समय अलीगढ़, फिरोजाबाद, इटावा, कासगंज, आगरा से भी इसी तरह की खबरें हैं. भारी बारिश के कारण तीनों-चारों जिलों में स्कूल बंद कर दिए गए हैं. मीडिया के बड़े हिस्से के पास सामान्य से कम बारिश होने पर या सामान्य से ज्यादा बारिश होने पर तबाही को दर्ज करने की ना तो भाषा है और ना समझ. तमाम अखबारों में अलीगढ़ की इस हालत पर जलजमाव और जलभराव की समस्या के रूप में पेश किया गया है. आम शहरों में इसी भाषा में जलजमाव होने पर स्मार्ट सिटी पर ताने मार कर लोग अपनी गली चल देते हैं. समझ और भाषा के स्तर पर मीडिया और नागरिक एक दूसरे के पूरक हो चुके हैं. 

अदनान ने बताया कि अलीगढ़ में शनिवार से लेकर सोमवार के बीच इतनी बारिश हुई कि लोग स्मार्ट सिटी को कोस, राहत महसूस करने लगे. अब लोगों को यह समझ नहीं है कि बेमौसम बरसात हो गई तो इसका मतलब ये नहीं कि स्मार्ट सिटी में कोई कमी है. हमने अपनी मूर्खता को नए-नए शब्दों से सजा दिया ताकि कम से कम बोलने और देखने में हम विद्वान नजर आए. इस बात की गारंटी किसने दी है कि स्मार्ट सिटी हो जाने से या आईटी सिटी हो जाने से जलवायु संकट का असर नहीं होगा और मूसलाधार बारिश के कारण शहर नहीं डूब जाएगा. 
अखबारों में अलीगढ़ के कई मोहल्लों के नाम छपे है जिनके बारिश में डूब जाने की खबरें लिखी गयी हैं. जिला प्रशासन ने उन लोगों से मकान खाली करने को कहा है जिन्होंने निचले इलाके में घर बना लिए. जाहिर है आशंका होगी कि कहीं मकान धस ना जाए. अलीगढ में 24 सितंबर तक स्कूल बंद कर दिए गए हैं. इटावा की हालत भी ऐसी है कि 24 सितंबर तक यहां भी स्कूल बंद कर दिए गए.

अरशद जमाल ने बताया कि मूसलाधार बारिश के कारण चार जगहों पर दीवार धंस गई और दस लोग मर गए. इनमें सात बच्चे हैं और तीन बुजुर्ग शामिल हैं. आठ लोग गंभीर रूप से घायल हो गए. चंद्रपुरा गांव में छत के धंस जाने से एक ही परिवार के चार बच्चे मर गए. देश की तबाही ने इस बात की भी पोल खोल दी है कि भारत की जनता किस तरह के बने मकानों में रहती है. उन घरों में रहना भी खतरे से खाली नहीं.

एक जिला है कासगंज. वहां भी भयंकर बारिश हुई है.  कई घंटे तक बिजली की आपूर्ति बंद हो गई. बताया जा रहा है कि कासगंज में 47 साल का रिकॉर्ड टूट गया. चौबीस घंटे से ज्यादा लगातार बारिश. इसका असर रेल यातायात पर भी पड़ गया. 

अमर उजाला ने लिखा है कि रात भर इतनी बारिश हुई है कि जिन इलाकों में कभी पानी नहीं भरता था वहां भी जलभराव हो गया. लोग कह रहे हैं कि 25-30 साल में ऐसी बारिश नहीं देखी. रात ग्यारह बजे से लेकर छह घंटे तक लगातार मूसलाधार बारिश होती रही. यही हाल आगरा में भी रहा. वहां तीन दिनों से इतनी बारिश हो गई है कि एक दिन तो तापमान सात डिग्री सेल्सियस नीचे चला गया. शहरी इलाकों के साथ-साथ ग्रामीण इलाकों में भी पानी भर गया. शहर की हालत इतनी बुरी है कि लोगों के लिए काम पर पहुंचना मुश्किल हो गया. मथुरा में भी बारिश का कहर टूटा है. मुख्यमंत्री का कार्यक्रम रद्द हुआ है. कई जिलों के अखबार शहर के डूब जाने की तस्वीरों से भरे पडे हैं. फसलों को भी भारी नुकसान पहुंचा है. फिरोजाबाद में भी मूसलाधार बारिश के कारण जिले में अनेक जगहों पर पानी जमा हो गया. एक मकान की छत गिर गई और आठ लोग घायल हो गए. एक बच्चे की मौत भी हो गई. जिला अस्पताल के परिसर में घुटनों तक पानी भर गया.

शिकोहाबाद क्षेत्र में एक मकान की छत गिरने से आठ लोग घायल हो गए और एक बच्चे की मौत हो गई. दोपहर बाद बुलंदशहर से खबर आई कि 150 मीटर की परिधि में एक चक्रवाती तूफान देखा गया जिसके कारण आम के बाग, धान, गन्ने की फसलों में भी भारी तबाही आयी है. चक्रवाती तूफान की चपेट में आने से मकान, दीवार और विशाल पेड़ गिर गए. आधा दर्जन मकानों को नुकसान पहुँचा है. 

आज का दिन यूपी के लिए वाकई चुनौतियों भरा रहा. बेंगलुरु की किस्मत इस हद तक अच्छी थी कि चर्चा हो गयी. चर्चा तो चेन्नई की बाढ की भी हुई थी. क्या हुआ, वैसे चर्चा से कुछ होता नहीं. यूपी के इन शहरों में जो बारिश हुई है उसे केवल नालों की निकासी व्यवस्था की नाकामी के रूप में देखना ठीक नहीं रहेगा. 

विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने एक रिपोर्ट तैयार की है 'यूनाइटिड इन साइंस'. इस रिपोर्ट के अनुसार अनजान क्षेत्रों में भी जलवायु संकट का प्रकोप देखने को मिल रहा है. पिछले सात वर्ष दुनिया के इतिहास में सबसे गर्म वर्ष के रूप में रिकॉर्ड किए गए हैं. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने चिंता जताई है कि बाढ, सूखा, ताप लहरें, हीटवेव, चरम तूफान और जंगलों में आग लगने की घटनाएं बद से बदतर होती जा रही हैं और उनकी आवृति से रिकॉर्ड ध्वस्त हो रहे हैं. हर किसी को लगता है कि ये सारी खबरें दूसरे ग्रह में घट रही जब तक उनके शहर में बारिश का कहर नहीं टूटता या सूखे के कारण किसानों की पूंजी नहीं डूब जाती. अभी कल ही यूपी के किसानों का बयान एनडीटीवी पर चला कि वे सूखे से परेशान हैं, धान की लागत बढ गई है. फसल बर्बाद हो गई.

बारिश का ऐसा उत्पात मचा है कि बात-बात में स्कूल बंद करने की नौबत आ जाती है. जाहिर है हमारे पास मूसलाधार बारिश का सामना करने की क्षमता नहीं है. तीन-तीन दिन स्कूल बंद होने पर भी इसके कारणों पर कहीं बहस नहीं. वही बच्चे जलवायु संकट पर ड्रॉइंग बनाएँगे और मंत्री जी जैविक खेती के गुणों पर भाषा देंगे. द वायर की रिपोर्ट है कि कल्याण, कर्नाटक और बॉम्बे कर्नाटक क्षेत्र में भारी बारिश के कारण ग्यारह लाख हेक्टेयर जमीन में खडी फसलें बर्बाद हो गई. बाजरा, मिर्च, ज्वार, तिलहन सब. कोटा क्षेत्र में इस साल चार सौ मिलिमीटर वर्षा ज्यादा हो गई, जिसके कारण सोयाबीन, उड़द और मूंग की फसल बर्बाद हुई है. किसानों पर इस वक्त क्या बीत रही होगी, ये खबर शहर तक पहु्ंचने नहीं दी जाएगी. हमें अंदाजा नहीं कि कम बारिश और अति बारिश की तबाही का स्केल कितना ज्यादा है. हर दिन जांच एजेंसियों के छापों से खबरों का जाल फैला दिया जाता है. देश के सामने अचानक एक गंभीर संकट खडा कर दिया जाता है ताकि गोदी मीडिया का रात्रि का कारोबार चलता रहे. लेकिन देश के किसानों और आम शहरियों पर मौसम का जब छापा पड़ता है तो ज्यादातर चैनलों में उन की खबरें गायब हो जाती हैं. 

जनवरी 2020 में जेपी नड्डा बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते हैं. जेपी नड्डा पार्टी में चुनाव लड़कर अध्यक्ष नहीं बने थे क्योंकि उनके सामने किसी और नेता ने पर्चा ही नहीं भरा. इस तरह जेपी नड्डा अध्यक्ष पद का चुनाव बिना किसी विरोध और बहस के जीत गए. एक तरह से ये चुनाव नहीं था, मनोनयन समझा जा सकता है. जाहिर है उनका चुनाव शीर्ष नेतृत्व ने किया. ना कि कार्यकर्ताओं ने. मिस कॉल अभियान चलाकर बीजेपी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है. लेकिन सदस्य कितने सही है इसकी जांच को लेकर सवाल उठे भी होंगे तो किसी ने ध्यान नहीं दिया होगा. उन सदस्यों की पार्टी अध्यक्ष चुनने में क्या भूमिका थी? इसे लेकर बात होनी चाहिए थी क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी में ऐसा होता तो बाकी दलों पर भी दबाव पड़ता कि वे भी ऐसा ही करें. 

जनवरी 2020 में अध्यक्ष बनने से पहले जेपी नड्डा को 17 जून 2019 के दिन कार्यकारी तौर पर अध्यक्ष बना दिया गया. तब से लेकर छह महीने तक बीजेपी पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं ढूंढ़ सकी. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद 9 जुलाई को अमित शाह बीजेपी के अध्यक्ष बनाए गए थे और इस पद पर पांच वर्ष से ज्यादा समय तक रहे. अमित शाह से पहले राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने. अमित शाह चुनाव लड़कर बीजेपी के अध्यक्ष बने या मनोनीत किए गए या निर्विरोध चुने जाने का ढोंग रचा गया? इस प्रश्न का जवाब इस बात से मिलता है कि जब नड्डा के खिलाफ किसी ने अध्यक्ष पद के लिए पर्चा नहीं भरा तो अमित शाह के खिलाफ किसी ने सोचा भी नहीं होगा.

मीडिया रिपोर्ट में लिखा है कि बीजेपी में आम सहमति से अध्यक्ष चुने जाने की परंपरा है लेकिन ये आम सहमति किसके बीच बनती है? क्या इसमें कार्यकर्ता भी शामिल होते हैं? क्या हम और आप नहीं जानते कि आम सहमति कहां से तय होकर आती है? दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी में आम सहमति की परंपरा क्या लोकतांत्रिक मानी जा सकती है? जब इस पार्टी में कोई भी कहीं से भी किसी भी पद पर पहुंच सकता है तो क्या उनमें से कोई भी अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने का सपना देखता ही नहीं होगा? क्या जेपी नड्डा के चुनाव में कार्यकर्ताओं की सहमति थी या प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की सहमति? दो लोगों की सहमति आम सहमति बता दी गई तो फिर उन लाखों सदस्यों की क्या भूमिका रही होगी जिसके दम पर बीजेपी खुद को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी कहलाने का दावा करती है. 26 जून 2020 के दिन द प्रिंट में डीके सिंह का एक विश्लेषण छपा है. हिंदी में इस हेडलाइन का मतलब है कि कैसे अमित शाह ने जे पी नड्डा को रबड़ स्टंप अध्यक्ष बना दिया है. इस लेख में डीके सिंह कई उदाहरण देकर बता रहे हैं कि कैसे कई बड़े फैसलों में अमित शाह की चलती है. जेपी नड्डा की नहीं. जेपी नड्डा का कार्यकाल जनवरी 2023 में खत्म हो रहा है. लेकिन सूत्रों के हवाले से खबरे छपने लगी हैं कि उन्हें एक और विस्तार मिल सकता है. बीजेपी में कोई भी अध्यक्ष पद पर एक ही टर्म रह सकता था लेकिन 2012 में पार्टी का संविधान बदल दिया गया. नए नियम के मुताबिक तीन-तीन साल के लिए दो बार अध्यक्ष पद पर कोई रह सकता है. यानी छह साल के लिए. मूल बात यह है कि हमारे सामने किसी भी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने जाने की पारदर्शी व्यवस्था नहीं है. यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है. इस सवाल के जरिए आप राजनीतिक दलों के भीतर कैसे निर्णय लिए जाते हैं ये जानना चाहते हैं. व्यवस्था पारदर्शी होगी तो आपका भरोसा ज्यादा बढे़गा. लेकिन इससे भी बड़ा एक और सवाल है. अध्यक्ष कैसे चुना जाए आपको अंदाजा लग जाता है कि रबड़ स्टंप है या किस का आदमी है. लेकिन इन दलों में पैसा कौन लगा रहा है. हजार-हजार करोड़ रुपए का इलेक्टरॉल बौंड कौन खरीद रहा है आप ये कभी नहीं जान सकते क्योंकि मोदी सरकार ने इसका कानून ही इस तरह से बना दिया है. अध्यक्ष कैसे भी चुना जाए अगर पार्टी और राजनीति करोड़ रुपए का बॉन्ड खरीदने वाले अज्ञात लोगों के इशारे में चले तो ये ज्यादा खतरनाक है. जब पूंजी ही गुप्त है, पारदर्शी नहीं है तब सारे फैसले गुप्त माने जाने चाहिए. सारे फैसले किसी और के और किसी और के लिए माने जाने चाहिए.

अच्छी बात है कि कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के बहाने आंतरिक लोकतंत्र की चर्चा हो रही है. राहुल गांधी ने भी प्रेस कांफ्रेंस में एक नहीं कई बार इससे जुड़े सवालों का सामना किया और तंज भी किया कि इस देश में एक ही नेता है जो प्रेस कांफ्रेंस तक नहीं करते हैं. राहुल ने उस एक नेता का नाम नहीं लिया. उन्हें नाम लेकर बताना चाहिए था कि प्रधानमंत्री मोदी ने आठ साल में एक बार भी खुली प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है. पत्रकारों के सवालों का खुली प्रेस कांफ्रेंस में सामना नहीं किया है. कांग्रेस में कई नेता आगे आ रहे हैं जो अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना चाहते हैं. अब ये सवाल अलग से जुड़ रहा है कि कौन बाहर की पार्टी के इशारे पर लड़ रहा है और कौन कांग्रेस के भीतर लोकतंत्र बहाल करने के लिए लड़ रहा है.

अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर पूछे गए सवाल पर राहुल गांधी का मुख्य निशाना बीजेपी रही. दरअसल, 'भारत जोड़ो यात्रा' और कांग्रेस में अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर बीजेपी लगातार हमलावर है. जवाब में कांग्रेस 2020 में जेपी नड्डा को बीजेपी अध्यक्ष बनाए जाने की प्रक्रिया पूछ रही है. बीजेपी के साथ इन आरोप प्रत्यारोपों के बीच 'भारत जोड़ो यात्रा" के पंद्रहवें 
दिन राहुल गांधी ने अपनी पार्टी के मुतलिक भी एक बड़ा संदेश दिया. कहा कि कांग्रेस का अध्यक्ष पूरे देश के लिए होता है उसके पास कोई और पद नहीं हो सकता. 

राहुल गांधी का बयान अशोक गहलोत की उस दलील के उलट है, जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद के साथ-साथ सीएम पद पर बने रहने में भी कोई दिक्कत नहीं बताई थी. राहुल गांधी के बयान से सचिन पायलट खेमे की उम्मीदों को और बल मिला है. गहलोत के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने की सूरत में राजस्थान का मुख्यमंत्री सचिन को ही बनाए जाने की संभावना है. लेकिन गहलोत ने जिस तरह से मुख्यमंत्री का फैसला विधायकों पर छोड़ने की दलील दी है उससे सचिन की राह आसान नहीं लगती. बशर्ते आलाकमान दो टूक फैसला ले. 

कांग्रेस के भीतर एक सवाल यह भी है कि गहलोत अध्यक्ष बनने के बाद मुख्यमंत्री का पद छोड़े या नामांकन भरने से पहले ही छोड़ दें. पार्टी के कुछ नेताओं को लगता है कि एक बार राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाने के बाद गहलोत पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए दबाव बनाना आसान नहीं रहेगा. जब ये अभी टालमटोल कर रहे हैं तो आगे क्या करेंगे? अंदेशे ऐसे भी व्यक्त किए जा रहे हैं. अब सवाल गांधी परिवार के इकबाल का है.

आज हर राजनीतिक दल खतरे में है. चुनाव हारने पर पार्टी में कई तरह के संकट उभर आते हैं. मगर अब संकटों के रूप बदल गए. पूरी पार्टी ही तोड़ दी जाती है. पार्टी को बचाना भी एक बड़ा काम हो गया है. अमेरिका में राजनीतिक दल के आम कार्यकर्ता चुनाव करते हैं कि किसी चुनाव में उस पार्टी का उस क्षेत्र से कौन उम्मीदवार होगा. यहां चाहे बीजेपी हो या कांग्रेस या कोई भी दल हो, कार्यकर्ता का एक ही काम है झोला ढोना. आजकल आईटी सेल में ट्रोल का भी काम उन्हें करना पड़ता है. 

अब इसके बाद सुशील बहुगुणा की लंबी रिपोर्ट देखिये. हम लद्दाख का नाम इन दिनों चीन से सीमा विवाद के संदर्भ में ही सुनते आ रहे हैं और समझते हैं. मगर लद्दाख केवल सीमावर्ती इलाका भर नहीं है. यहां की आबो हवा बाकी भारत से काफी अलग है. 3500 से लेकर 5000 मीटर तक की ऊंचाई पर यहां आबादी बसती है. हवा में ऑक्सिजन कम होती है. सर्दी सितम ढाती है. फिर भी यहां के लोग सदियों से इस विषम मौसम में रहते आ रहे हैं. लोगों ने सदियों से प्रकृति के हर हमले का सामना किया है. मगर अब शहरीकरण और नई जीवन शैली तरह-तरह की बीमारियां लेकर आ रही है. लद्दाख में स्वास्थ्य व्यवस्था का ढांचा इन बढ़ती बीमारियों के आगे छोटा पड़ने लगा है. दिल्ली एम्स के डॉक्टर 'अशोका मिशन' के तहत इलाज करने जाते हैं मगर वो काफी नहीं. लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश बन गया है तो इस की स्वास्थ्य व्यवस्था भी स्थायी और बेहतर बननी चाहिए ताकि इलाज के लिए यहाँ के लोगों को चंडीगढ़ और दिल्ली की दौड़ लगाने से छुटकारा मिल जाए.

हिमालय पार लद्दाख, एक सर्द रेगिस्तान, वो इलाका जिसे प्रकृति ने बेइंतहा खूबसूरती बख्शी, वो इलाका जहां कुदरत इंसान की जिजीविषा का इम्तेहान लेती है. यहाँ का मौसम सर्द भी है और बेदर्द भी. इसके बावजूद सदियों से इस पर्वतीय इलाके के लोगों ने इन कठिन परिस्थितियों में जीना सीखा. लेकिन बदलता दौर उनके लिए जो नई चुनौतियां लेकर आया है, उनमें से एक चुनौती स्वास्थ्य के मोर्चे पर है. शहरों की बीमारियाँ और अन्य भी अब हिमालय के इस पार अपने पैर फैला चुकी है.

सेहत से जुड़ी ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए लद्दाख में स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा फिलहाल नाकाफी है. लेह का एसएनएम अस्पताल पूरे लद्दाख की लाइफ लाइन कहा जा सकता है. समय के साथ इस अस्पताल में सुविधाएं बढ़ी हैं, लेकिन जरूरतों के सामने ये अब छोटा पड़ गया है. राहत की बात यह है कि लद्दाख में स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए 'अशोका मिशन' और एम्स दिल्ली हमेशा आगे बढ़कर सामने आये हैं. 

पिछले करीब पच्चीस साल से 'अशोका मिशन' स्वास्थ्य की अपनी मुहिम के तहत विशेषज्ञ डॉक्टरों के साथ साल में कम से कम दो बार लद्दाख के दूर दराज इलाकों कैम्प लगाता है. 

लद्दाख जैसे सर्द रेगिस्तान में यहाँ के लोगों की जो स्वास्थ्य समस्याएं है एक तो यहां के बहुत ही कठिन मौसम से जुड़ी हुई होती हैं. इसके अलावा यहां की मेहनतकश जिंदगी. और इसके अलावा अब जो लाइफ स्टाइल बीमारियों हैं, बाकी बड़े शहरों की तरह, बड़ी तादाद में उसके मरीज अब देखने को मिल रहे हैं. इसीलिए जब यहां कैम्प लगता है तो मेला सा लग जाता है. दूर दराज इलाकों से मरीज यहां पहुंचते हैं सुपर स्पेशलिस्ट डॉक्टर को दिखाने के लिए. 

कुछ ही दिन के कैंप में ऐसे हजारों मरीज यहाँ विशेषज्ञ डॉक्टरों से इलाज करवाने पहुँचते हैं. लद्दाख में स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर सरकार की ओर से कोई विस्तृत और गहन रिसर्च अभी तक सामने नहीं आई है. लेकिन एम्स के डॉक्टरों का अनुभव यहां स्वास्थ्य की बदलती चुनौतियों कुछ इस तरह बयान करती हैं. 

ये चिंता की बात है कि लद्दाख में कैंसर के मामलों में तेजी आई है. शोधपत्रिका 'इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कैंसर एंड ट्रिटमेंट' में अप्रैल 2009 से अप्रैल 2019 के बीच दस साल की रिसर्च पर आधारित एक रिपोर्ट छपी है. डॉक्टर सज्जाद हुसैन के नेतृत्व में 444 कैंसर मरीजों पर शोध किया गया. इनमें गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल कैंसर के 51.35 फीसदी, फेफड़ों के कैंसर के 9.68 फीसदी और लिवर कैंसर के 9.24 फीसद मरीज थे. 

आंकड़े बता रहे हैं कि इस पर्वतीय इलाके में आधे से ज्यादा केस पेट और आंत के कैंसर के हैं और अधिकतर मरीजों को कैंसर का पता तब लगता है जब वो एडवांस स्टेज में पहुंच चुका होता है. 

सैलानियों को लद्दाख भले ही सैर सपाटे की जगह दिखती हो, लेकिन यहाँ के स्थानीय लोगों के लिए यह कठिन भूगोल कई समस्याएं भी लेकर आता है. लद्दाख की अधिकतर आबादी पैंतीस सौ मीटर से लेकर पाँच हजार मीटर की ऊंचाई तक के इलाकों में रहती है जहां सर्दियों में तापमान माइनिस 36 डिग्री तक पहुँच जाता है. हड्डियों और जोड़ों के दर्द से जुडी समस्याएं यहाँ अब आम हो चली है. जिनके इलाज और ऑपरेशन के लिए अक्सर बहुत ही एडवांस डॉक्टर और सुपरस्पेशलिस्ट डॉक्टरों की जरूरत होती है. अशोका मिशन और एम्स दिल्ली का ये कैंप ऐसे लोगों के लिए बड़ी राहत बनकर आता है.

एक खास बात यह भी है कि आमतौर पर हसमुख लद्दाख के लोग भी अब डिप्रेशन की चपेट में आ रहे हैं. शायद बदलती जीवनशैली इसका एक कारण हो. 

लद्दाख में सर्दी जितना सताती है. चिलचिलाती धूप भी आँखों और त्वचा का उतना ही बड़ा इम्तेहान लेती है. लेह में एम्स के डॉक्टरों के आई कैंप में एक हफ्ते में ही सैंकड़ो ऑपरेशन बताते हैं कि यह समस्या यहां किस कदर छाई हुई है.

तमाम पर्वतीय इलाकों की तरह है, लद्दाख में भी महिलाओं पर घर की जिम्मेदारियों का बोझ सबसे ज्यादा रहता है. घर से लेकर खेत तक के कामों में कई बार उनकी तकलीफ जैसे खोजी जाती है. खासतौर पर गर्भवती महिलाओं के लिए. यहाँ का मौसम एक बड़ी चुनौती रहता है. 

गंभीर बीमारियों से ग्रस्त आम लोगों को इस कैंप से एक सुविधा यह है कि लेह में एम्स के डॉक्टरों को दिखाने के बाद अशोका फाउंडेशन की मदद से वो दिल्ली जाकर आगे का इलाज करवा सकते हैं. 

लेकिन एम्स जैसे अस्पतालों की मदद की भी एक सीमा है. लद्दाख अब एक केंद्रशासित प्रदेश बन चुका है. करीब साठ हजार वर्ग किलोमीटर के इस इलाके के लोगों के स्वास्थ्य के लिहाज से लेह का एसएनएम अस्पताल अब छोटा पड़ रहा है. हालांकि, इसे अब मेडिकल कॉलेज बनाने का ऐलान हो चुका है. लेह के अलावा कारगिल में भी एक जिला अस्पताल है, जिसका विस्तार हो रहा है. कारगिल में भी 25 सितंबर से 1 अक्टूबर तक अशोका मिशन एम्स के सहयोग से एक मेडिकल कैम्प लगा रहा है. इसके अलावा नुब्रा, द्रास, चांगलांग में भी सब डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल है. लेकिन वहां स्वास्थ्य की सुविधाएं बहुत ज्यादा नहीं है. 

पूरे लद्दाख इलाके के लिए जो अब एक केंद्रशासित प्रदेश है और जिसमें ऐसे दूर दराज के इलाके हैं, उस पूरे इलाके के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए यही सबसे बड़ा अस्पताल है जो एक जिला स्तर का अस्पताल है. लेकिन यहां की जो बढ़ती जरूरतें हैं और जिस हिसाब से बेतहाशा पर्यटन यहां बढ़ा है, यह अस्पताल अब जरूरतों के हिसाब से छोटा पड़ गया है. 

लद्दाख की बढ़ती स्वास्थ्य जरूरतों की चुनौती से निपटने के लिए जानकार मुख्य तौर पर दो स्तरों पर काम करने पर जोर देते हैं. पहला लेह जैसे अस्पताल में सुपर स्पेशलिटी सुविधाएं और सुपर स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की नियुक्ति की जाए. जानकारों के मुताबिक, सरकार की नीति के तहत कोशिश ये भी होनी चाहिए कि वो बीमारियों को बढ़ने देने से पहले ही रोकथाम पर जोर दे. 

एक ओर लेह में इलाज के लिए सुपर स्पेशलिस्ट विभाग और डॉक्टरों का बंदोबस्त करे. लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी बात यह कि दूर दराज इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य उपचार और जांच की सुविधाएं विकसित करे. ताकि लोगों को अधिकतर बीमारियों के इलाज के लिए दूर लेह आने की जरूरत ना पड़े. और यहां वही लोग आए जिन्हें वास्तव में सुपर स्पेशलिस्ट सुविधाओं की जरूरत है.'

बस्तर में नक्सलवाद के नाम पर तरह तरह की असमानताएं भी खड़ी की गई हैं. आत्मसमर्पण करने वाले कई नक्सलियों का आरोप है कि उनकी नसबंदी करा दी गई. पुलिस अब इनकी नसबंदी खुलवा रही है. अनुराग द्वारी की ये रिपोर्ट देखिए...

सुकमा में यह सरेंडर कर चुके नक्सलियों की बस्ती है. आज वो खुश हैं. उनके आंगन में बच्चे खेल रहे हैं लेकिन जब जंगल में हथियार थामकर घूम रहे थे तो बच्चों के बोली की उम्मीद नहीं थी क्योंकि नक्सलियों को गोली चलाने वाले हाथ चाहिए थे इसलिए उन्होंने कई नक्सलियों की जबरन नसबंदी करवा दी. कमलु बेटी सलवा जुडूम के शिकार बने. गांव जलाया गया. 2007 में बारह साल की उम्र में सीधे दरभा डिविजिन में भर्ती किया गया. कुछ सालों बाद कांकेर घाटी के डिप्टी कमांडर बने. 2017 में शादी हुई. कहते हैं पिछले कुछ सालों से गांव वालों का समर्थन घट गया है. खाने पीने के संसाधन भी, इसलिए सरेंडर कर दिया. शादी के लिए नक्सलियों ने नसबंदी की शर्त रखी थी. अब सरकार ने नसबंदी खुलवा दी है. पत्नी गर्भवती है. दोनों बेहद खुश हैं. 

ये दूसरे समर्पित नक्सली हैं. एरिया कमिटी सचिव थे. बच्ची हुई तो निलंबित कर दिए गए. पत्नी अभी भी नक्सली है. बिटिया उनके पास ही है. डरते हैं कि थोड़े दिनों बाद उसे भी बाल संगठन फिर संघम सदस्य के बाद कमिटी मेंबर ना बना दिया जाए. ये चाहते हैं परिवार वापस मिल जाए. पुलिस कह रही है कि स्पेशल ऑपरेशन चलाकर परिवार को मिलवाने की कोशिश की जाएगी. 

बस्तर में बड़े पैमाने पर कोशिश हो रही है कि आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों का परिवार फिर से बस जाए.

वैसे 21 से 27 सितंबर तक नक्सली स्थापना दिवस मनाते हैं. अपने कई बड़े लीडरों को श्रद्धांजलि देते हैं और भारत बंद का आह्वान करते हैं जिसमें कई बार हिंसक वारदात होती है. वैसे अब नक्सलियों के बीच तेलगू कैडर के वर्चस्व और बस्तर के आदिवासियों के बीच असमानता की खबरें बढ़ गई हैं. दुर्दांत नक्सली रमन्ना की मौत के बाद उसकी बीवी सावित्री के सरेंडर को इस असमानता के विरोध की वजह भी माना जा रहा है. कभी सुरक्षाबल तो कभी नक्सली वाकई बस्तर में निर्दोष एक ऐसे बाड़े में फंस चुके हैं जहाँ इस और भी खतरा है और दूसरी ओर भी.

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