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जौनपुर के गिरिधर मिश्रा कैसे बने रामभद्राचार्य, 2 माह की उम्र में गंवाई आंखों की रोशनी, 22 भाषाओं में पारंगत

Rambhadracharya News: जगद्गुरु रामभद्राचार्य न केवल एक विख्यात कथावाचक हैं, बल्कि वो धर्म शास्त्रों के गहन जानकार भी हैं. वेद, पुराणों से लेकर उपनिषदों के बारे में उन्हें विशेषज्ञता हासिल है.

जौनपुर के गिरिधर मिश्रा कैसे बने रामभद्राचार्य, 2 माह की उम्र में गंवाई आंखों की रोशनी, 22 भाषाओं में पारंगत
Rambhadracharya
  • रामभद्राचार्य का जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के सरयूपारी ब्राह्मण परिवार में हुआ था
  • दो माह की आयु में उन्हें आंखों की गंभीर बीमारी हुई जिसके कारण उनकी नेत्रों की रोशनी चली गई थी
  • उन्होंने कम उम्र में भगवद्गीता और रामचरितमानस सहित वेद-पुराणों को कंठस्थ कर लिया
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नई दिल्ली:

Rambhadracharya: जगद्गुरु रामभद्राचार्य धर्म और आध्यात्म की दुनिया की शीर्ष हस्तियों में से एक हैं. लेकिन इस ऊंचाई पर पहुंचने के पीछे उनकी घोर तपस्या भी है. प्रेमानंद महाराज, बाल संत अभिनव अरोड़ा हो या पश्चिमी उत्तर प्रदेश को मिनी पाकिस्तान बताने वाली उनकी हालिया टिप्पणी हो, वो अपने बेबाक बयानों के लिए जाने जाते हैं. लेकिन क्या आपको पता है कि रामभद्राचार्य ने 2 माह की आयु में कैसे अपने नेत्रों की ज्योति खो दी थी. लेकिन धर्म, आध्यात्म की ओर झुकाव और भक्ति के बलबूते वो दुनिया के श्रेष्ठ राम कथावाचकों में से एक बने. 22 बोली-भाषाओं में पारंगत बने. रामभद्राचार्य को उनके योगदान के लिए पद्मविभूषण से नवाजा गया.रामानंद संप्रदाय के चार जगद्गुरु रामानंदाचार्यों में एक रामभद्राचार्य भी हैं.  उन्होंने चित्रकूट जिले में रामभद्राचार्य में दिव्यांग विश्वविद्यालय की स्थापना की. उसके आजीवन कुलाधिपति भी हैं. आइये पढ़ें उनकी जिंदगी के बारे में...

जौनपुर में जन्मे रामभद्राचार्य
75 साल के रामभद्राचार्य उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के सांडीखुर्द गांव से ताल्लुक रखते हैं. उनका वास्तविक नाम गिरिधर मिश्रा था. उन्होंने बेहद कम उम्र में ही बड़े धर्म ग्रंथों, वेद-पुराणों को कंठस्थ कर लिया था और 22 भाषाओं के प्रकांड विद्वान भी वो बने. रामभद्राचार्य बागेश्वर धाम धीरेंद्र शास्त्री समेत कई बड़े कथावाचक और आध्यात्मिक विद्वानों के गुरु भी हैं. 

सरयूपारी ब्राह्मण परिवार में जन्म
रामभद्राचार्य का जन्म जौनपुर जिले में एक सरयूपारी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. मकर संक्राति के पावन पर्व पर  14 जनवरी 1950 को उनका जन्म हुआ. रामभद्राचार्य का पहले नाम गिरिधर मिश्रा था. रामभद्राचार्य के पिता का नाम राजदेव मिश्रा था. कहा जाता है कि उनके चचेरी दादी मीरा बाई की बड़ी भक्त थी और इसी कारण उनका नाम गिरिधर पड़ा.

दो माह की आयु में आंखों की रोशनी चली गई
गिरिधर की जब दो महीने की आयु थी तो उन्हें रोहे (ट्रैकोमा) नाम की आंखों की गंभीर बीमारी हो गई. परिजन उन्हें स्थानीय डॉक्टर के पास ले गए. चिकित्सक ने उनकी आंख में कोई लिक्विड डाला,लेकिन इससे उनकी नेत्रों की रोशनी का हालत और खराब हो गई. फिर सीतापुर, लखनऊ से लेकर मुंबई तक उनको लेकर परिवार वाले दौड़े, लेकिन आंखों की रोशनी वापस नहीं आई. रामभद्राचार्य की आंखों की रोशनी बचाने के लिए उनके पिता ने इलाज के दौरान मुंबई में नौकरी भी की.

भगवदगीता और रामचरितमानस कंठस्थ कर ली
दादा सूर्यबली मिश्रा के सानिध्य में उन्होंने धार्मिक शिक्षा ग्रहण करना शुरू किया. 5 साल की उम्र में उन्होंने 800 श्लोकों के साथ भगवद्गीता कंठस्थ कर ली. उनमें ये खूबी थी कि एक बार जो सुन लेते थे वो फिर कभी भूलते नहीं थे.रामभद्राचार्य ने 8 साल की उम्र तक 10800 दोहों वाली रामचरित मानस भी याद कर ली. वो धार्मिक कार्यक्रमों में भागवत कथा और रामकथा सुनाने लगे. धीरे-धीरे उन्होंने वेद-पुराण और उपनिषद भी जुबानी याद हो गए.

संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से पढ़ाई
रामभद्राचार्य ने अयोध्या के विद्वान ईश्वरदास महाराज से गुरु दीक्षा ली. फिर उनके साथ रामकथा धार्मिक सत्संगों में सुनाने लगे. कथावाचक रामभद्राचार्य की ख्याति बढ़ती चलती गई. जौनपुर जिले के आदर्श गौरीशंकर संस्कृत महाविद्यालय से 1966 में उन्होंने प्रारंभिक पढ़ाई पूरी की. फिर रामभद्राचार्य ने संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से उच्च शिक्षा ग्रहण की. रामभद्राचार्य को 1974 में स्नातक समतुल्य शास्त्री की उपाधि मिली. फिर संपूर्णानंद विश्वविद्यालय से आचार्य (परस्नातक) की उपाधि भी ग्रहण की. दोनों परीक्षाओं में वो गोल्ड मेडलिस्ट रहे.

संस्कृत अधिवेशन में गोल्ड मेडल
1974 में जब नई दिल्ली में संस्कृत अधिवेशन आयोजित किया गया तो न्याय, वेदांत, सांख्य में विद्वान रामभद्राचार्य को 5 स्वर्ण पदक मिले. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें सम्मानित किया. इंदिरा गांधी ने उनकी नेत्रों के रोशनी वापस लाने के लिए अमेरिका में इलाज का प्रस्ताव भी दिया मगर गिरिधर मिश्र ने उन्हें विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया. उन्होंने 1976 में आचार्य बनने के बाद  कुलाधिपति स्वर्ण पदक भी हासिल किया. रामभद्राचार्य ने 1981 में विधिवारिधि अर्थात पीएचडी की. यही नहीं. उन्होंने वाचस्पति (डीलिट) की उपाधि भी 1997 में मिली.

आजीवन ब्रह्मचर्य का संकल्प
उन्होंने विरक्त दीक्षा लेने के साथ आजीवन ब्रह्मचारी रहने और विवाह न करने का संकल्प लिया. रामभद्राचार्य को वैष्णव पंथ में दीक्षा लेने की सीख दी. रामभद्राचार्य की 19 नवंबर 1983 को कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर रामानंद संप्रदाय में श्री श्री 1008 रामचरणदास महाराज से दीक्षा ग्रहण की. यहीं से गिरिधर मिश्रा के स्थान पर उनका नाम रामभद्रदास यानी रामभद्राचार्य पड़ा. उन्होंने 1987 में चित्रकूट जिले में तुलसी पीठ की स्थापना की, जहां भगवान राम ने अपने वनवास के 14 में से 12 वर्ष बिताए थे.

तमाम भाषाओं में लिखे ग्रंथ, राम जन्मभूमि आंदोलन से जुड़ाव
रामभद्राचार्य की आध्यात्मिक यात्रा यहीं समाप्त नहीं हुई. उन्होंने हिंदी संस्कृत और अन्य भाषाओं में वेदों,उपनिषद और पुराणों के ज्ञान के सहारे खुद धार्मिक ग्रंथों की रचना की. उन्होंने 22 भाषाओं  में विशेषज्ञता हासिल की. रामभद्राचार्य ने लगभग 80 धर्म ग्रंथों की रचना की है. रामभद्राचार्य विश्व में श्रेष्ठ राम कथावाचकों में से एक हैं. रामजन्मभूमि आंदोलन से भी उनका जुड़ाव रहा. रामभद्राचार्य ने राम जन्‍मभूमि केस में सुप्रीम कोर्ट में ऐतिहासिक बयान दर्ज कराया था. रामभद्राचार्य ने वेद, शास्त्र और पुराणों के माध्यम से रामलला का सही जन्म स्थान कोर्ट को बताया था. उन्होंने तुलसीदास की हनुमान चालीसा में कई सुधारों को भी सामने रखा. 

दिव्यांग विश्‍वविद्यालय के संस्थापक
रामभद्राचार्य 1988 से रामानंद संप्रदाय के 4 जगद्गुरु में से एक हैं. जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने चित्रकूट जिले में दिव्यांग विश्‍वविद्यालय की स्थापना की. इस विश्वविद्यालय के वो आजीवन कुलाधिपति बनाए गए हैं. रामभद्राचार्य ने संस्कृत और हिंदी में कुल 4 महाकाव्य टीकाएं भी लिखे हैं.तुलसीदास पर शोधकार्य में वो सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं.केंद्र सरकार ने उन्हें 2015 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया था. बागेश्‍वर धाम के पीठाधीश्‍वर पंडित धीरेंद्र कृष्‍ण शास्‍त्री ने भी शिष्य के तौर रामभद्राचार्य का नाम रोशन किया.

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