अहमदाबाद : वर्ष 2002 में गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकवादी हमले के मामले में 11 साल तक जेल में बंद रहने के बाद पिछले साल सुप्रीम कोर्ट द्वारा बरी किए गए मुफ्ती अब्दुल कयूम अपनी कहानी सभी को सुनाने जा रहे हैं। यह कहानी उनकी लिखी किताब '11 साल सलाखों के पीछे' के रूप में 16 अप्रैल को लोकार्पित होने जा रही है।
रिहाई के एक साल बाद आज भले ही मुफ्ती अब्दुल कयूम दोबारा मदरसे में पढ़ाने लगे हैं, लेकिन वह दुनिया को बताना चाहते हैं कि कैसा महसूस कराता है, एक ऐसे अपराध के लिए 11 साल जेल में बिताना, जो उन्होंने किया ही न हो; कैसा महसूस कराता है बिना किसी सबूत के आतंकवादी का लेबल लगा दिया जाना। सो, उन्होंने पिछले एक साल में 200-पृष्ठ की यह किताब लिख डाली है।
हमले के एक साल बाद वर्ष 2003 में जिस समय मुफ्ती अब्दुल कयूम को गिरफ्तार किया गया था, वह 29 साल के थे और उनका बड़ा बेटा पांच साल का, और छोटा बेटा सिर्फ 10 महीने का था। इस पूरे वक्फे में पुलिसिया ज़ुल्म और सामाजिक बदनामी झेलते हुए उनकी पत्नी सुजिया लगातार कानूनी लड़ाई लड़ती रही। इसी दौरान उनके पिता का देहांत भी हुआ, लेकिन उन्हें एक घंटे के लिए भी पैरोल पर नहीं छोड़ा गया। अब मुफ्ती अब्दुल कयूम कहते हैं, "यह किताब सिर्फ मुसलमानों के लिए नहीं है, बल्कि समाज के सबसे ज़्यादा दबे-कुचले तबके के लिए है... अगर मेरी किताब से कोई एक भी व्यक्ति सरकारी ज़्यादतियों का शिकार होने से बच सका, तो मैं इसे अपनी कामयाबी मानूंगा..."
पुलिस ने उन्हें अक्षरधाम हमले की साज़िश में शरीक होने के आरोप में गिरफ्तार किया था। पुलिस का दावा था कि मंदिर में मारे गए फिदायीन के पास उर्दू में उनकी लिखी एक चिट्ठी मिली है। इसके अलावा उन पर आतंकवादियों को पनाह देने का आरोप भी लगाया गया। इसके बाद पोटा कानून के तहत मुफ्ती अब्दुल कयूम को फांसी की सज़ा सुना दी गई, लेकिन आखिरकार पिछले साल 17 मई को सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बेगुनाह बताते हुए सभी आरोपों से बरी कर दिया।
उनकी पत्नी का कहना था, "मेरा बेटा जैसे-जैसे बड़ा होता जा रहा था, उसका हर वक्त यही सवाल होता था कि मेरे अब्बा कब लौटेंगे... हर रोज़ स्कूल जाने से पहले वह ज़रूर पूछता था कि अब्बू घर कब आएंगे... हमारा हर पल दर्द के साथ बीता है..." मुफ्ती अब्दुल कयूम के मुताबिक ज़िन्दगी ने उन्हें जो सबक दिए, वे काफी अलग किस्म के हैं। कयूम कहते हैं, न उनके दिन लौटेंगे, न उनके बच्चों का बचपन और न उनके मां-बाप की ज़िन्दगी। वह बताते हैं कि यह किताब उनके जेल में बिताए पलों का लेखा-जोखा है। वह यह भी कहते हैं कि इसे लिखना आसान रहा, लेकिन अब वह इसे दोबारा पढ़ने की ताब नहीं ला पा रहे हैं।
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