नमस्कार... मैं रवीश कुमार। घमासान मचा देने से समाधान नहीं निकलता है। फिर भी दो घटनाओं के बीच अगर कोई चीज़ निरंतर है तो घमासान ही है। आप हर किस्म के मंचों पर हो रही बहसों को देखिए हाहाकार मचा हुआ है।
पांच दिसंबर को उबर की टैक्सी में हुई बलात्कार की घटना के बाद समाज और सिस्टम ठीक वैसे ही जागा है जैसे 16 दिसंबर 2012 की घटना के बाद जागा था। तब कड़े कानून की कमी का पता लगा था, जिसे रिकॉर्ड समय में दुरुस्त कर दिया गया, लेकिन अब जीपीएस, सीसीटीवी वेरिफिकेशन और लाइसेंस देने में लापरवाही जैसी कमियों की पहचान हो रही है। जिस मोबाइल ऐप को हम नए ज़माने के गवर्नेंस के रामबाण की तरह प्रचारित कर रहे थे उसकी इस मामले में ढोल पिट चुकी है।
उबर टैक्सी ड्राइवर का रिकॉर्ड बता रहा है कि उस पर कई प्रकार के आपराधिक मामले चल रहे हैं। मैनपुरी में एक बलात्कार का मामला भी चल रहा है, जिसमें वह ज़मानत पर बाहर है। कई बार गिरफ्तार होने के बाद भी अदालत ने उसे दोषी नहीं ठहराया है। ऐसी ही स्थिति में कोई सांसद होता तो राजनीतिक दल से लेकर प्रधानमंत्री तक उसके निर्दोष होने की वकालत कर रहे होते। लंबित मुकदमों के रहते आप सांसद हो सकते हैं, मगर ड्राइवर नहीं हो सकते।
ज़ाहिर है हमें सवालों को ठीक जगह रखना पड़ेगा। सब कुछ दिल्ली−दिल्ली करने से नहीं होगा, मैनपुरी और मथुरा में भी संस्थाओं को बदलना होगा। अगर कंपनी ने आरोपी शिव कुमार यादव की जांच कराई भी होती, तो क्या गारंटी इसमें फर्जीवाड़ा नहीं हो जाता।
दिल्ली पुलिस के वेरिफिकेशन पर भी कई लोग सवाल उठा देते हैं। दिल्ली पुलिस वेरिफिकेशन का फॉर्म लेकर रजिस्ट्री से दूसरे राज्य की पुलिस को भेज देती है। कई बार गलतियां पकड़ी भी जाती हैं, लेकिन अगर उस राज्य के ज़िले के किसी थाने की पुलिस ने सही जानकारी नहीं दी तो फिर दिल्ली पुलिस के पास कोई चारा नहीं होता। ज़रूरी नहीं कि आरोपी का रिकॉर्ड उस थाने में ही मिले जहां का वह रहने वाला हो।
दिल्ली में प्राइवेट कंपनियां भी अपने कर्मचारियों का वेरिफिकेशन कराती हैं। वह एक चिट्ठी देकर आपको डीसीपी दफ्तर में भेज देती हैं, जहां ढाई सौ रुपये की एक पर्ची कट जाती है। मोदी सरकार ने तो सत्यापन यानी फोटो अटेस्ट की व्यवस्था ही समाप्त कर दी है। अब तो आपको खुद ही सत्यापित करना है। समस्या उस पुराने सिस्टम में भी थी समस्या इस नए सिस्टम में भी हो सकती है।
दिल्ली प्रशासन ने ईज़ी कैब, मेगा कैब, मेरू कैब, चैनसन कैब, यो कैब और एयर कैब को छोड़ कर इंटरनेट से संचालित सभी टैक्सी कंपनियों को बंद कर दिया है। गृहमंत्री ने अन्य राज्यों को भी यही सुझाव दिया है।
पिछले दिनों लंदन, मैड्रिड, बर्लिन और पेरिस के टैक्सी ड्राईवरों ने उबर के खिलाफ प्रदशर्न भी किया, क्योंकि यह कंपनी कथित रूप से सुरक्षा बीमा और लाइसेंस के नियमों का ठीक से पालन नहीं करती है। इन्हीं कमियों के कारण थाइलैंड ने भी इंटरनेट कंपनियों को बंद कर दिया है। भारत में बहस हो रही है कि रेलगाड़ी में बलात्कार होगा तो क्या रेल बंद कर देंगे। कुछ लोग कह रहे हैं कि बिल्कुल ठीक हुआ है।
इसमें कोई शक नहीं है कि रेडियो टैक्सी ने महानगरों में रात−बिरात अकेले चलने वाली कामगार महिलाओं को एक बेहतर विकल्प दिया है। जीपीएस और एसएमएस सिस्टम से लैस कॉरपोरेट होने के कारण भी सुरक्षा का भाव पनपा होगा। उबर घटना से पहले आप इन टैक्सियों में चलने वाली महिलाओं से पूछेंगे तो उनका अनुभव ठीक ठाक से लेकर बेहतर तक मिलेगा। अब कइयों का आत्मविश्वास हिल गया है।
मुंबई पुलिस ने कहा है कि वह काली-पीली रेडियो टैक्सी, मोबाइल ऐप आधारित टैक्सी की गिनती कराएगी। सभी ड्राइवरों का पुलिस वेरिफिकेशन होगा। बेंगलुरु पुलिस ने भी वेरिफिकेशन का फैसला किया है।
यह सब फैसले सही हैं पहले ही होने चाहिए थे। जब इनकी कारें महानगरों की सड़कों पर दौड़ रही थीं तब परिवहन से लेकर गृह मंत्रालय तक कहां थे। जबकि इस मॉडल का गुणगान किसी न किसी अखबार में हो ही रहा था। आप किस हद तक वेरिफिकेशन करेंगे।
एक छोटा सा मसला है लेकिन कितना बड़ा सवाल बन गया है। अचानक कई लोग नुक्कड़ के टैक्सी स्टैंड को लेकर इतना सेंटी हो गए हैं कि भूल गए हैं कि इन टैक्सी स्टैंड के कई ड्राईवरों का भी वेरिफिकेशन नहीं होता है… क्या बैन कर देने भर से इस समस्या का समाधान हो जाएगा।
एक ड्राईवर की गलती की सज़ा बाकी ड्राईवरों को क्यों दी जाए? मामला परिवहन मंत्रालय का है और फैसला गृह मंत्रालय ले रहा है। जबकि गृहमंत्री राजनाथ सिंह को परिवहनमंत्री नितिन गडकरी से पूछना चाहिए था, आप क्या कर रहे हैं। गडकरी ने तो आते ही आरटीओ का पद समाप्त करने की बात कही थी, उसका क्या हुआ। लाइसेंसिंग की व्यवस्था में क्या सुधार हुआ है।
निर्भया कांड के बाद हमने पीसीआर वैन की संख्या बढ़ा दी बड़ी संख्या में आटो और बसों में जीपीएस सिस्टम भी लगा सही है कि सारी गाड़ियों में जीपीएस नहीं लग सका, सीसीटीवी लगा दिए, फिर भी दिल्ली में बलात्कार की संख्या में कमी नहीं आई।
ठीक है कि लड़कियां अब इस घटना की रिपोर्टिंग करने लगी हैं लेकिन क्या यही दलील मुकम्मल है। बलात्कार की संख्या कम नहीं हुई यह सवाल क्यों नहीं है और यह किसकी नाकामी है। सवाल सिर्फ ड्राईवरों का ही नहीं औरतों को एक विश्वसनीय परिवहन व्यवस्था भी देने का भी है।
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