अमेरिका के सहयोग से अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के लिए भारत का पहला मिशन, गुरुवार को व्हाइट हाउस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के बीच समझौतों के मुख्य आकर्षण में से एक था.
राष्ट्रपति बाइडेन ने कहा कि अमेरिका 2024 में अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर एक भारतीय अंतरिक्ष यात्री को ले जाएगा. एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह भी हुई कि भारत आर्टेमिस समझौते में शामिल होगा. यह लीगल ऑप्शंस का एक फ्रेमवर्क है जो बड़े पैमाने पर अंतरिक्ष अन्वेषण में सहयोग का रास्ता खोलता है.
सूत्रों का कहना है कि भारत ने पहले अंतरिक्ष यात्री कोर के हिस्से के रूप में भारतीय वायु सेना से चार पुरुष टेस्ट पायलटों का चयन किया है, लेकिन उन्हें रूसी प्रणालियों के अनुसार प्रशिक्षित किया गया है.
पहले से चुने गए इन चार पायलटों में से कोई स्पेस एक्स अथवा बोइंग के स्टार लाइनर रॉकेट से उड़ान भरेगा या कोई नया व्यक्ति चुना जाएगा, इसका फैसला बहुत जल्द करना होगा. भारतीय और अमेरिकी चुनावी वर्ष में एक भारतीय महिला अंतरिक्ष यात्री के अंतरिक्ष में जाने की संभावना भी अब पूरी तरह खुली है. यह दोनों लोकतंत्रों के लिए ग्रेट ऑप्टिक्स बनाता है.
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के सूत्रों ने कहा कि भारत स्पष्ट रूप से अंतरिक्ष यात्री को प्रशिक्षण देने और रॉकेट की सवारी के लिए व्यय करेगा. एक लॉन्च के लिए लागत 200 करोड़ रुपये से अधिक हो सकती है. ट्रेनिंग करीब छह महीने में पूरी की जा सकती है. अमेरिकी प्राइवेट सेक्टर ट्रेनिंग और लॉन्च का काम संभालता है. यदि सब कुछ योजना के अनुसार हुआ तो आम चुनाव से पहले लॉन्च की संभावना है.
अंतरिक्ष पर्यटन के दौर में किसी भारतीय के लिए अंतरिक्ष में जाना कोई चुनौती नहीं होगी.
इसके अलावा इंटरनेशनल स्पेस सेंटर का दौरा करने वाले इस एक मात्र भारतीय अंतरिक्ष यात्री से भारत के गगनयान कार्यक्रम में बाधा नहीं आएगी, जिसका उद्देश्य अगर सभी परीक्षण योजना के अनुसार होते हैं, तो 2024 के अंत तक एक भारतीय रॉकेट पर भारतीय धरती से एक भारतीय अंतरिक्ष यात्री को भेजना है. भारत के अंतरिक्ष और पीएमओ मंत्री डॉ जितेंद्र सिंह ने पुष्टि की है कि इसरो के गगनयान को जरूरी धन मिलता रहेगा, नया भारत-अमेरिकी मिशन दो अंतरिक्ष क्षेत्र के देशों की संयुक्त क्षमताओं का एक बड़ा उत्सव है. सिंह का कहना है कि भारत के लिए प्रौद्योगिकी को अस्वीकार करने का युग सही मायने में समाप्त हो गया है, अब हम समान भागीदार हैं.
एक शीर्ष सूत्र का दावा है कि "घरेलू मानव अंतरिक्ष उड़ान क्षमता विकास" बिना किसी बाधा के जारी रहेगा, क्योंकि भारत इस महत्वपूर्ण क्षमता को अपने दम पर विकसित नहीं करना बर्दाश्त नहीं कर सकता, खासकर इसलिए क्योंकि यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत कार्यक्रम का हिस्सा है.
एक महत्वपूर्ण नतीजा इंटरऑपरेबल प्रौद्योगिकियों और अंतरिक्ष ग्रेड मानकों का विकास हो सकता है, जिससे भारतीय उद्योग को मदद मिलेगी.
भारत के आर्टेमिस समझौते में शामिल होने पर इसरो के सूत्र ने कहा, "ये गैर-बाध्यकारी समझौते हैं और इसमें कोई वित्तीय प्रतिबद्धता नहीं है. और हां, भारत अमेरिका के नेतृत्व वाले आर्टेमिस कार्यक्रम में शामिल नहीं हो रहा है, लेकिन यह निश्चित रूप से बड़ी संभावनाएं खोलता है." चूंकि चंद्रमा, मंगल, शुक्र और पृथ्वी के बाहर मानव बस्तियां बनाने की संभावनाएं सभी पहले से ही भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी के क्षितिज पर हैं.
पीएम मोदी और राष्ट्रपति बाइडेन द्वारा अंतरिक्ष में यह नया भाईचारा संबंध अनिवार्य रूप से एक महान उपग्रह परियोजना को आगे बढ़ाने वाला है, जिसकी कल्पना नासा और इसरो ने की है. इसे एनआईएसएआर उपग्रह या "नासा इसरो सिंथेटिक एपर्चर रडार सैटेलाइट" कहा जाता है. यह दुनिया का अब तक का सबसे महंगा सिविलियन अर्थ इमेजिंग उपग्रह है, इसकी लागत 1.2 बिलियन डॉलर से अधिक है. यह एक अनोखा उपग्रह है जो पृथ्वी की सतह पर विकृतियों की निगरानी और जलवायु परिवर्तन पर नजर रखकर जीवन बचाने में मदद करेगा. दोनों देशों के वैज्ञानिकों द्वारा संयुक्त रूप से इसका निर्माण किया गया है. इसको 2024 में भारत के स्पेस पोर्ट श्रीहरिकोटा से लॉन्च होने का इंतजार है.
यह नई स्पेस कैमिस्ट्री 60 साल बाद आई है, जब अमेरिका ने भारत को अपना पहला साउंडिंग रॉकेट नाइकी अपाचे लॉन्च करने में मदद की थी. उसे 21 नवंबर, 1963 को थुंबा से लॉन्च किया गया था. अमेरिका ने भी भारत के सैटेलाइट प्रोग्राम में भूमिका निभाई है. पिछली सदी में दो भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष शटल पर उड़ान भरने के लिए चुनकर उन्हें प्रशिक्षित किया गया था. अंतरिक्ष शटल को आपदाओं का सामना करना पड़ा, जिसमें भारतीय मूल की अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री कल्पना चावला की मौत हो गई थी.
लेकिन 1974 और 1998 में भारत की ओर से परमाणु विस्फोटों के बाद अमेरिका और भारत के बीच संबंधों में इतनी गिरावट आ गई कि अमेरिका ने भारत को क्रायोजेनिक इंजन प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण रोक दिया. इससे अंतरिक्ष संबंधों में काफी खटास आ गई.
भारत द्वारा एक साहसिक नए अध्याय की शुरुआत करते हुए जब 2008 में भारत के पहले चंद्रमा मिशन, चंद्रयान -1 को लॉन्च किया गया तो इसमें अमेरिकी उपकरणों को शामिल किया गया. यह एक ऐसा मिशन था जिसमें भारत कप्तान था, और अमेरिकी खिलाड़ी थे, लेकिन इसमें नासा के उपकरणों का उदारता से समायोजन किया गया था. भले ही इसरो पर अमेरिकी प्रतिबंध जारी रहे, लेकिन इसने अंततः चंद्रमा के भूवैज्ञानिक इतिहास को बदल दिया. चंद्रमा की सतह पर वॉटर मॉलीक्यूल की मौजूदगी की संयुक्त खोज ने भविष्य में चंद्रमा पर आवास के लिए दरवाजे खोल दिए.
चंद्रयान मिशन से एक और बड़ी उपलब्धि यह थी कि भारत ने चंद्रमा के सबसे दक्षिणी बिंदु, दक्षिणी ध्रुव के सबसे करीब अपना झंडा फहराया. यह आगे के लिए एक तरह से भारत को चंद्रमा पर उस क्षेत्र पर अधिकार भी देता है, और इसलिए आर्टेमिस समझौते पर हस्ताक्षर करना भारत की गहरी चंद्र अन्वेषण क्षमताओं की पुष्टि है.
यह बिल्कुल स्पष्ट है कि जब दुनिया के सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतंत्र धरती पर सहयोग करेंगे तो अंतरिक्ष में स्वर पैदा होंगे.
निश्चित रूप से भारत अपनी रॉकेट तकनीक के दम पर अंतरिक्ष तक अपनी स्वतंत्र पहुंच को कभी नहीं छोड़ेगा. अंतरिक्ष में भारत की संपूर्ण क्षमताओं को कुशलतापूर्वक और उपयुक्त रूप से पहचाना जा रहा है.
व्हाइट हाउस में बाइडेन-मोदी के संबंधों की बदौलत भारत-अमेरिका संबंध एक नई ऊंचाई पर पहुंच गए हैं. दोनों देश नई अज्ञात द्विपक्षीय सीमाओं का पता लगाएंगे. अमेरिका के पास सबसे उन्नत अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी है और भारत कम लागत वाली इंजीनियरिंग के लिए जाना जाता है.
इसरो के शीर्ष सूत्रों ने अंतरिक्ष समझौते को "ऐतिहासिक और सही कदम, दोनों देशों के लिए फायदे का सौदा" बताया.
भारत के तेजी से बढ़ते अंतरिक्ष स्टार्ट-अप सेक्टर को अपनी नई घरेलू प्रौद्योगिकियों के व्यावसायीकरण के लिए विशाल अमेरिकी बाजार की आवश्यकता है और आर्टेमिस डील के बिना यह मुश्किल होता, क्योंकि भारत को संदेह की दृष्टि से देखा जाता. इसरो के एक शीर्ष सूत्र ने कहा, अब पीएम मोदी द्वारा "अंतरिक्ष क्षेत्र को अनलॉक" करने के बाद यह एक स्वाभाविक कदम होगा.
एक भारतीय अंतरिक्ष यात्री को अमेरिकी अंतरिक्ष यान पर अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजना भारत के अपने गगनयान कार्यक्रम के साथ अच्छी तरह से फिट बैठता है. फर्क सिर्फ इतना है कि भारतीयों को अंतरिक्ष में भारतीय रॉकेट से नहीं बल्कि अमेरिकी निजी क्षेत्र के रॉकेट से ले जाया जाएगा.