दिल्ली एनसीआर के लाखों घर ख़रीदार लूट लिए गए, लेकिन अथॉरिटी से लेकर सरकार तक कुछ नहीं कर पाई. इनसे अच्छी तो उनकी किस्मत रही, जिन्होंने सरकारी ज़मीन पर घर बना लिया और बाद में वोट के लिए उन इलाकों को नेता जी ने मंज़ूरी दिला दी. आप सोचिए सरकार की बनाई अथॉरिटी बिल्डरों को ज़मीन देती है और जनता को उन्हीं बिल्डरों से घर खरीदने का विकल्प देती है. आम आदमी अपनी गाढ़ी कमाई से घर ख़रीदता है इस आस में कि उसे तीन साल में उसका घर मिल जाएगा. रोटी, कपड़ा और मकान जैसे एडवरटाइजमेंट से लोगों को सपने दिखाए जाते हैं. फिर वे आम आदमी पहली किश्त में अपनी जमा पूंजी देता है, बाकी 80% पैसा बैंक से लोन ले लेता है. लोन चुकाने का समय 15 साल और घर मिलने का समय तीन साल. कई घर ख़रीदारों ने 15 साल में लोन की किश्त भी दी, किराया भी दिया और मानसिक रूप से परेशान भी हुए. लेकिन वो जो घर तीन साल में मिलना था, वो 15 साल बाद भी नहीं मिला.
घर ख़रीदारों की समस्या समझना ज़रूरी
ये एक ऐसी समस्या है, जिसके होने के पीछे घर ख़रीदार बिल्कुल नहीं हैं. उन्होंने जिस अथॉरिटी, जिस बिल्डर पर भरोसा किया, उसी के भ्रष्ट नेक्सस ने घर ख़रीदारों को कहीं का नहीं छोड़ा. रही-सही कसर नेताओं ने पूरी कर दी, जिन्हें सामने आकर साथ देना चाहिए, उन्होंने भी अधिकारियों की ही सुनी. घर ख़रीदारों की अगर सुनी भी तो कभी हल नहीं दे पाए. उत्तर प्रदेश के घर ख़रीदारों ने इन 15 सालों में तीन दलों की सरकार देख ली. सबने आश्वासन दिया, लेकिन सबसे ज़्यादा जो पीड़ित हैं, उन्हें समझने का प्रयास ही नहीं किया. इसलिए समस्या बड़ी होती गई और अब सुप्रीम कोर्ट को इस समस्या के समाधान के लिए आगे आना पड़ा है, जबकि ये ज़िम्मेदारी सरकारों की थी. जनता के प्रति सीधी जवाबदेही उनकी है, लेकिन गुरुग्राम से लेकर ग्रेटर नोएडा वेस्ट तक आम घर ख़रीदार ठोकरें खा रहा है.
क्यों खड़ी हुई समस्या
इसे समझना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है. उत्तर प्रदेश की उस वक्त की सरकार एक स्कीम लाई, जो स्कीम आमलोगों के लिए मुश्किल बन गई. इस स्कीम में सिर्फ़ 10% पैसा देने पर ज़मीन मिल रही थी और बाकी 10 साल के इंस्टॉलमेंट में जमा करना था. बिल्डरों और कई प्रॉपर्टी डीलरों ने कम पैसों में ज़मीन ली, घर ख़रीदारों से पूरा पैसा ले लिया, और फिर अथॉरिटी का पैसा नहीं चुकाया. अथॉरिटी नोटिस भेजने का दिखावा करती रही और हज़ारों करोड़ रुपये बिल्डरों पर बकाया हो गए. ये एक दिन में नहीं हुआ, इसमें कई साल लगे. आप सोचिए जिस अथॉरिटी का अगर एक पैसा किसी छोटे से घर ख़रीदार पर बकाया हो तो वो ऐक्शन लेने और नीलामी करने तक में पीछे नहीं हटती, लेकिन बिल्डरों पर वो मेहरबान रही. जब घर ख़रीदार आवाज़ उठाते तो मीटिंग का दिखावा होता. जिन घर ख़रीदारों का घर किसी तरह बन गया था, उनकी भी रजिस्ट्री अथॉरिटी ने रुकवा दी. खुद बिल्डर से पैसा नहीं ले सके और घर ख़रीदारों की घरों को उनका नहीं होने दे रहे. अथॉरिटी का तर्क है कि अगर वो बिल्डरों से पैसा लिए बिना रजिस्ट्री होने देंगे तो बिल्डर पैसा नहीं देंगे. आप सोचिए जब अथॉरिटी जैसी मज़बूत संस्था बिल्डरों से पैसा नहीं निकलवा पा रही तो पीड़ित घर ख़रीदारों के कहने पर क्या वो बिल्डर पैसा दे देगा. लिहाजा, पिछले सात-आठ साल से कई घर ख़रीदार बिना रजिस्ट्री घरों में रहने को मजबूर हैं.
कैसे होगा समाधान
इस मुद्दे पर अमिताभ कांत कमेटी ने विस्तार से अपनी रिपोर्ट दी है. जिसमें सबसे पहले घर ख़रीदारों को राहत देने की बात है. फिर इसमें रजिस्ट्री को बिल्डरों के बकाये से अलग रखने की बात है. पूरा रोडमैप है कि कैसे लोगों को घर मिलेगा, अथॉरिटी की क्या भूमिका होगी, सरकार क्या कर सकती है, बैंकों के मुद्दों पर क्या होगा..सब कुछ है, लेकिन इसे पूरी तरह लागू ही नहीं किया जा रहा. लिहाजा ना घर मिल रहा है और ना रजिस्ट्री हो रही है.
आखिरी उम्मीद कोर्ट
घर ख़रीदारों को अभी तक जो भी राहत मिली है, वो कोर्ट से ही मिली है. माननीय सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद ही आम्रपाली का प्रोजेक्ट बनना शुरू हुआ और आज लोगों को घर मिल रहा है. कई दूसरे प्रोजेक्ट के घर ख़रीदारों को भी कोर्ट से राहत मिली है.