- डिलीवरी बॉयज पर 10 मिनट में सामान पहुंचाने का दबाव रहता है, जिससे वे सड़क हादसों का जोखिम उठाते हैं.
- डिलीवरी बॉयज को 16 घंटे से अधिक काम करना पड़ता है, बावजूद इसके उनकी आमदनी बेहद कम है.
- NDTV ग्राउंड रिपोर्ट में सामने आया कि डिलीवरी वर्कर्स को पार्टनर माना जाता है, इससे उन्हें कई लाभ नहीं मिलते.
आप अपने फोन पर एक क्लिक करते हैं और 10 मिनट में खाना या आपका जरूरी सामान आपके दरवाजे पर होता है, लेकिन क्या आपने कभी उस शख्स को गौर से देखा है, जो आपकी जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी किन किन जरूरतों की कुर्बानी दे रहा है या जोखिम का सामना कर रहा है? देश भर के ये 'डिलीवरी वॉरियर्स' या गिग वर्कर्स काम बंद कर सड़कों पर उतरने पर मजबूर हैं, क्यों? क्योंकि उनकी अपनी भूख अब उनके काम से नहीं मिट पा रही है. एनडीटीवी ने अपनी इस ग्राउंड रिपोर्ट में डिलीवरी बॉयज के हालातों को करीब से समझा और यह जाना कि आखिर वो काम बंद कर आंदोलन करने पर मजबूर क्यों हुए?
अमरजीत पासवान आज अपने आंसू रोक नहीं पा रहे हैं, विनीत टूटा हुआ हाथ दिखाते हैं और मनीष अब अपने हाथ पैरों में घाव की गिनती भी भूल चुके हैं. ये दर्द उन “डिलीवरी वारियर्स” का है जो इस डिजिटल इंडिया में 5G की रफ्तार से डिलीवरी हमारे घरों पर पहुंचा रहे हैं, लेकिन इसकी कीमत बेहद महंगी है.
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10 मिनट का वादा, राइडर्स पर दबाव है ज्यादा
कंपनियां 10 मिनट में सामान पहुंचाने का वादा करती हैं, जिससे राइडर्स पर भारी दबाव रहता है. वे समय बचाने के लिए तेज गाड़ी चलाते हैं, जिससे रोजाना सड़क हादसे होते हैं. मुंबई जैसा शहर जहां ट्रैफिक का साया और खुदी सड़क का हर तरफ जाल हो तो दस मिनट की डिलीवरी कैसे मुमकिन है?
डिलीवरी बॉयज का दर्द मुंबई में जरा ज्यादा है, महंगे शहर में गुजर बसर के लिए 16 घंटे की ड्यूटी भी कम पड़ती है. ऐसी ही कहानियों को ढूंढने के लिए एनडीटीवी की टीम सुबह 5 बजे शहर की तंग गलियों में पहुंची. क्योंकि कम पैसों में ये अपना आशियाना इन्हीं चॉल बस्तियों में बना पाते हैं. ड्यूटी सुबह 6 बजे से शुरू हो जाती है.
जोखिम उठाकर सामान पहुंचाते हैं डिलीवरी बॉयज
36 स्क्वायर फीट के माचिस की डिबिया जैसे माहिम के घर में पांच लोगों के परिवार के साथ रह रहे 19 साल के अफजल बहन की शादी के लिए पैसे जुटा रहे हैं. वे रोजाना घर से काम पर जाते हैं, लेकिन इस काम में कई जोखिम हैं. अफजल लॉग इन करते हैं और फिर अपना ऑर्डर लेकर निकल पड़ते हैं. इस दौरान बाइक चलाते हुए बात भी करते हैं और फास्ट डिलीवरी के लिए सिग्नल भी तोड़ते हैं. उन्हें पार्किंग से गार्ड बाहर निकाल देते हैं और सीढ़ियां चढ़कर उन्हें ऑर्डर पहुंचाना पड़ता है. कई बार बिल्डिंग में पार्किंग नहीं करने दिया जाता है, इसलिए कई बार ट्रैफिक पुलिसवाले गाड़ी उठा लेते हैं और चालान भी झेलना पड़ता है.
अफजल जैसी ही हालत आशीष मिश्रा और समीर जैसे कई डिलीवरी बॉयज की है, जिनकी व्यक्तिगत कहानियां सुनकर हैरानी होती है.ग्रेजुएशन की पढ़ाई छोड़कर मुंबई में कमाई का सपना लेकर आए आशीष मिश्रा उत्तरप्रदेश से खुद तो आए ही अपने साथियों को भी साथ लेकर आए. एक कमरे में सात लोग रहते हैं. ये लोग अलग-अलग कंपनियों में भले ही काम करते हैं, लेकिन इनका दर्द एक ही है.
लोग हमें रोबोट समझते हैं... डिलीवरी बॉयज का छलका दर्द
ये अपना दर्द बताते हैं और कहते हैं कि स्विगी और जोमैटो जैसी कंपनियों के कंपीटिशन में हम पिस रहे हैं. वो कहते हैं कि स्विगी ने इंसेंटिव कम किया तो जोमैटो ने भी कम कर दिया. रात में कुत्ते काटते हैं और लोग हमें रोबोट समझते हैं.
कई बार आलीशान इमारतों की लिफ्ट इन डिलीवरी बॉयज के लिए बंद होती है तो कई पुरानी बिल्डिगों में लिफ्ट ही नहीं है.
8-8 मंजिल ऊपर तक सीढ़ियों से जाना पड़ता है तो देरी होती है. कस्टमर की शिकायत भर से इंसेंटिव कट या फिर अकाउंट ही डिएक्टिवेट कर दिया जाता है. मेहनताने की कटौती के बीच हमारे डिलीवरी बॉयज शारीरिक और मानसिक तनाव भी खूब झेलते हैं.
समीर ने बताया कि ऊंची इमारतों में सीढ़ियां चढ़ना रोजाना की बात है. कई बार देरी होती है तो शिकायत पर अकाउंट ही डिएक्टिवेट हो जाता है.
डिलीवरी बॉयज की ये हैं प्रमुख मांगें
- न्यूनतम 35 रुपए प्रति डिलीवरी फिक्स रेट हो, अभी 15-20 रुपए मिलते हैं.
- खतरनाक '10 मिनट डिलीवरी' मॉडल बंद किया जाना चाहिए.
- बिना सुनवाई के आईडी ब्लॉक नहीं की जाए.
- 8 घंटे की शिफ्ट और आराम का समय तय हो.
- दुर्घटना बीमा और स्वास्थ्य लाभ मिलने चाहिए.
- पेट्रोल भत्ता अलग से होना चाहिए.
- डिलीवरी पार्टनर नहीं, 'कर्मचारी' का दर्जा मिले.
कानूनी तौर पर डिलीवरी बॉयज को 'कर्मचारी' के बजाय केवल 'पार्टनर' माना जाता है, जिससे उन्हें मजदूर का दर्जा नहीं मिल सका है.
वे गिग वर्कर्स कहलाते हैं, जो असंगठित क्षेत्र में आते हैं और कंपनियों द्वारा स्वतंत्र फ्रीलांसर/पार्टनर माने जाते हैं, जिससे उन्हें PF, ESI(कर्मचारी राज्य बीमा), छुट्टी और सुरक्षा जैसे सामाजिक सुरक्षा लाभ नहीं मिलते हैं.

ये है गिग इकॉनमी का काला सच!
- 2020-21 में भारत में करीब 77 लाख गिग वर्कर्स थे, जिनके 2029-30 तक बढ़कर 2.35 करोड़ होने का अनुमान है.
- 2020-21 के अनुमान के मुताबिक, भारत में हर दिन करीब 1.15 करोड़ डिलीवरी होती हैं.
- 2024 के आंकड़ों के अनुसार, फूड डिलीवरी बाज़ार 3.78 लाख करोड़ रुपए (45.15 बिलियन डॉलर) और क्विक कॉमर्स 30,150 करोड़ रुपए (3.6 बिलियन डॉलर) का हो चुका है.
- आंकड़ों के मुताबिक, 91% लोग इसे फुल-टाइम प्रोफेशन की तरह कर रहे हैं, जबकि केवल 9% ही पार्ट-टाइम जुड़े हैं.
- 41% वर्कर्स हफ्ते में एक भी छुट्टी नहीं ले पाते हैं
- करीब 75% डिलीवरी एजेंट्स हर दिन 10 घंटे से ज्यादा काम करते हैं
- 42% काम के दौरान हिंसा का सामना कर चुके हैं
- 87% डिलीवरी बॉयज, ऐप्स पर आईडी ब्लॉक होने की समस्या से प्रभावित हैं.
- सबसे ज्यादा 32% वर्कर्स ही रोजाना मात्र 401-600 रुपए कमा पाते हैं, सिर्फ 5% ऐसे हैं जिनकी कमाई 800 रुपए से ऊपर है.
- 48% वर्कर्स को कोई डेली मिनिमम गारंटी या इंसेंटिव नहीं मिलता, जबकि 20% को यह कभी-कभी ही मिल पाता है.
- डिलीवरी के लिए शुरू किए गए 10-मिनट के 'इंस्टेंट मॉडल' को लेकर वर्कर्स में भारी विरोध है.
- 86% डिलीवरी वर्कर्स मानते हैं कि यह मॉडल सही नहीं है और उनके लिए अस्वीकार्य है.

भारत सरकार ने कानून बनाया लेकिन...
भारत सरकार ने पहली बार गिग वर्कर्स को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में शामिल करने के लिए कानून बनाया है. अब नए लेबर कोड में गिग वर्कर्स के लिए एक फंड बनाने की बात है, जिसमें कंपनियों को अपने टर्नओवर का 1-2% देना होगा, सरकारी लाभ देने की कोशिश है, लेकिन यूनियन का कहना है कि नियम कागजों पर तो बन गए हैं, लेकिन उन्हें लागू होने में सालों लग रहे हैं.
गिग वर्कर्स यूनियन के महाराष्ट्र सचिव मनोज यादव ने कहा कि इनके पास कोई गवर्निंग बॉडी नहीं है. जाएं तो जाएं कहां, नए लेबर कोड में सामाजिक सुरक्षा फंड का क्या फायदा, पेंशन मिलेगी लेकिन ये नौकरी में टिकेंगे तब पैसा मिलेगा ना, हर छोटी बात पर तो अकाउंट डीएक्टिवेट कर देते हैं, उनको मजदूर का दर्जा मिलना चाहिए.

डिलीवरी पार्टनर नहीं कर्मचारी का दर्जा मिले
इनकी सबसे अहम मांग है कि “डिलीवरी पार्टनर” नहीं बल्कि इन्हें “कर्मचारी” का दर्जा मिले और खतरनाक '10 मिनट डिलीवरी' मॉडल बंद हो. शुरुआत दो अहम दिनों क्रिसमस और 31 दिसंबर को हड़ताल के साथ हुई, क्योंकि वार उसी दिन किया जिस दिन सबसे ज्यादा चोट लगे. अगर मांगें नहीं मानी गईं और उनके हड़ताल का दायरा बढ़ा तो आप और हम जैसे ग्राहकों की सोचिए जो डिलीवरी बॉयज पर पूरी तरह से निर्भर हैं , उन व्यापारियों की भी सोचिए जिनका 50-60% व्यापार ऑनलाइन चलता है.
जब डिमांड चरम पर हो तो डिलीवरी बॉयज़ की हड़ताल की खबर से भी लोग सिहर रहे हैं. फिर चाहे वो आम ग्राहक हों, रेस्टोरेंट, छोटे होटल मालिक या व्यापारी हों, जिनकी समय के साथ इन डिलीवरी वॉरियर्स पर निर्भरता 100% फीसदी बढ़ी हैं सभी एक सुर में मानते हैं दस मिनट का दबाव ठीक नहीं है.
ग्राहक कहते हैं कि किसी की जान पर खेल कर दस मिनट में पार्सल नहीं चाहिए, हम सौ फीसदी उन पर निर्भर हैं, अब ऑफलाइन नहीं जाते, कौन जाए समय कहां है.

ब्लिंकिट, स्विगी, जोमैटो, जैप्टो जैसी क्विक कॉमर्स सेवाओं ने लोगों का जीवन आसान तो बनाया है लेकिन इसके पीछे काम करने वाले डिलीवरी बॉयज का जीवन बहुत कठिन हुआ है. कंपनियों का टर्नओवर भले ही करोड़ों में हो, लेकिन सच्चाई ये है कि इन लड़कों को एक डिलीवरी पर मात्र 15-20 रुपये मिलते हैं. पेट्रोल के बढ़ते दाम ने इनकी कमर तोड़ दी है. 12-16 घंटे काम करने के बाद भी हाथ में 300-400 रुपये भी नहीं बचते हैं. कई बार ऑर्डर लेने में देरी हुई तो दिन भर की कमाई खत्म हो जाती है.
ये सोचकर भी हैरानी होती है कि हमारे घर दस मिनट में पहुंचने वाला सामान किसी की जान की बाजी लगाकर पहुंच रहा है, तो जब अगली बार आपके दरवाजे की घंटी बजे तो आप सिर्फ अपना पार्सल ना लें, बल्कि उस चेहरे को भी पढ़ें जिसने अपनी भूख मारकर आपकी भूख मिटाई है.
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