भारत टीबी के खिलाफ लड़ाई में जल्द ही जीत हासिल कर सकता है. आईसीएमआर–राष्ट्रीय क्षयरोग अनुसंधान संस्थान (NIRT) की नई टीबी उन्मूलन तकनीकी रिपोर्ट 2025 में ऐसे संकेत मिले हैं. रिपोर्ट के अनुसार, पिछले कुल सालों में टीबी के मरीजों की संख्या में कमी आई है, जो बताती है कि देश टीबी उन्मूलन के प्री-एलीमिनेशन फेज की ओर बढ़ रहा है. लेकिन कई कमजोर जिले अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर मिली सफलता में बड़ी चुनौती बने हुए हैं.
संक्रमण ने कई जिलों में बढ़ाई चिंता
रिपोर्ट बताती है कि टीबी का संक्रमण अभी भी कई जिलों में गहरी जड़ें जमाए हुए है. यही वजह है कि मामले कम होने के बाद भी दुनिया के करीब 27 प्रतिशत टीबी बोझ का अकेले भारत सामना कर रहा है. हालांकि, सीबी-नेट, ट्रू-नैट और डिजिटल एक्स-रे जैसी नई तकनीक के जरिये बीमारी की पहचान में सहायता हो रही है. वहीं, निक्षय पोर्टल जैसे प्लेटफॉर्म ने मरीजों की मॉनिटरिंग और दवाइयों की उपलब्धता को पहले से काफी बेहतर किया है. लेकिन आदिवासी क्षेत्रों, शहरी झुग्गी-बस्तियों, पूर्वोत्तर के कठिन इलाकों और सीमावर्ती जिलों में संक्रमण की स्थिति परेशानी वाली बनी हुई है.
आईसीएमआर के वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसे क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की सीमित पहुंच, लगातार जगह बदलने वाले समुदाय, कुपोषण और बिना लक्षण वाले मरीजों की अधिक संख्या बीमारी की रोकथाम को कठिन बना देती है.
हॉस्पिटल और क्लिनिक का योगदान कम
रिपोर्ट बताती है कि निजी अस्पताल और क्लिनिक टीबी के रिपोर्टिंग और उपचार में जरुरत के मुताबिक योगदान नहीं दें रहें हैं. यही वजह है कि गंभीर मामलों की सही से निगरानी और समय पर इलाज नहीं हो पा रहा है. दवा पालन और निगरानी कमजोर होने के कारण कई जिलों में टीबी नियंत्रण के प्रयासों को धीमा कर रही है.
टीबी उन्मूलन का वैश्विक लक्ष्य साल 2030 लेकिन भारत सरकार ने पांच साल पहले 2025 तक रखा है. जानकारों की मानें तो भारत ने उल्लेखनीय प्रगति की है, सक्रिय केस खोज और डिजिटल तकनीकने टीबी पर नियंत्रण की दिशा में गति पैदा की है, लेकिन कमजोर जिलों में स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत किए बिना, पोषण सुधार पर ध्यान दिए बिना और निजी क्षेत्र को सक्रिय भूमिका दिए बिना यह लक्ष्य पूरा करना कठिन होगा.
पोस्ट-टीबी लंग डिजीज का खतरा
आईसीएमआर की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से पोस्ट-टीबी लंग डिजीज का जिक्र है. इसमें बताया गया है कि बहुत से मरीज टीबी से ठीक हो जाने के बाद भी लंबे समय तक सांस की समस्या, फेफड़ों की कमजोरी या काम करने की क्षमता में कमी का सामना करते हैं. देश में इस स्थिति की पहचान और प्रबंधन अभी भी कमजोर है जबकि यह लाखों मरीजों की जिंदगी को प्रभावित कर रही है.
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