
पहलगाम आतंकी हमले के बाद देशभर में फैले आक्रोश के बीच केंद्र सरकार ने एक बड़ा राजनीतिक फैसला लिया है. सरकार ने अगली जनगणना में जातियों की गणना कराने का फैसला किया है. इस बात की जानकारी केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव ने दी. उन्होंने बताया कि अगली जनगणना में जातीय जनगणना भी कराई जाएगी. केंद्र सरकार के इस फैसले को एक बड़ा राजनीतिक कदम बताया जा रहा है. सरकार ने यह फैसला बिहार विधानसभा चुनाव से पहले लिया है. बिहार की राजनीति में जाति एक बड़ा मुद्दा है. देश में इससे पहले जातीय जनगणना 1931 में उस समय कराई गई थी, जब देश में अंग्रेजी सरकार थी.
जातीय जनगणना, बीजेपी और आरएसएस
देश में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले दल इसकी मांग बहुत पहले से कर रहे थे. बाद में इस मांग में कांग्रेस भी शामिल हो गई थी. कांग्रेस नेता राहुल गांधी संसद और संसद से बाहर एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना रहे थे. जाति जनगणना एक केंद्रीय मुद्दा बन गया था. जाति जनगणना की मांग का बीजेपी ने कभी-कभी सीधे विरोध नहीं किया था. लेकिन वह कभी खुलकर सामने नहीं आई थी. पिछले साल के शुरू में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि बीजेपी जाति जनगणना की विरोधी नहीं है. इसके बाद सितंबर 2024 में केरल के पलक्कड़ में आयोजित आरएसएस की अखिल भारतीय समन्वय बैठक से पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने जातीय जनगणना का समर्थन किया था. संघ के मुख्य प्रवक्ता सुनील आंबेकर ने जातीय जनगणना को राष्ट्रीय एकीकरण के लिए महत्वपूर्ण बताया था. उन्होंने कहा था, ''देश और समाज के विकास के लिए सरकार को डेटा की जरूरत पड़ती है. समाज की कुछ जाति के लोगों के प्रति विशेष ध्यान देने की जरूरत होती है. इन उद्देश्यों के लिए इसे (जाति जनगणना) करवाना चाहिए. इसका इस्तेमाल लोक कल्याण के लिए होना चाहिए. इसे पॉलिटिकल टूल बनने से रोकना होगा.''

आरएसएस ने पिछले साल सितंबर में जातीय जनगणना का समर्थन किया था.
बुधवार को हुई कैबिनेट की बैठक से पहले मंगलवार रात आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके आवास पर भेंट की थी. माना जा रहा है कि दोनों नेताओं की बैठक में जातीय जनगणना को लेकर चर्चा हुई थी.
लोकसभा चुनाव में बीजेपी की हार
दरअसल आरएसएस पिछले काफी समय से जातीय जनगणना को लेकर मांग से परेशान थी. उसे लग रहा था कि वृहद हिंदू समाज इस मांग को लेकर बंटता जा रहा है. वह इसी हिंदू एकता के लिए ही इस मांग के समर्थन में आगे आई. जातीय जनगणना का सबसे अधिक फायदा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को होने की बात की जाती है. ओबीसी का कहना है कि उनकी जनसंख्या की सही जानकारी न होने की वजह से उसे शिक्षा और नौकरियों में सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ रहा है. इसको लेकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक और गैर शैक्षणिक पदों पर ओबीसी की नियुक्तियों को डेटा अक्सर सोशल मीडिया में साझा किया जाता था. देश भर में बीजेपी को मिल रही सफलता के पीछे ओबीसी का बड़ा हाथ है.बीजेपी में नरेंद्र मोदी के उदय के बाद से ब्राह्मण-बनिया की पार्टी मानी जानी वाली बीजेपी के साथ ओबीसी की जातियां लामबंद हुई हैं. लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के गठबंधन ने जिस तरह से उत्तर प्रदेश में नुकसान पहुंचाया, उसने बीजेपी और आरएसएस को परेशान कर दिया था. इसी के बाद आरएसएस भी जातीय जनगणना के समर्थन में आगे आया. इससे पहले आरएसएस जातीय जनगणना के समर्थन में नहीं था. इसे ऐसे समझ सकते हैं कि आंबेकर के बयान से पहले संघ प्रचारक और विदर्भ प्रांत के प्रमुख श्रीधर गाडगे ने 19 दिसंबर 2023 को नागपुर में जातिगत जनगणना को लेकर कहा था, ''हमें इसमें कोई फायदा नहीं बल्कि नुकसान दिखता है. यह असमानता की जड़ है और इसे बढ़ावा देना ठीक नहीं है.'' उन्होंने महाराष्ट्र विधानसभा और विधान परिषद में बीजेपी और शिव सेना शिंदे गुट के विधायकों को संबोधित करते हुए यह बात कही थी. आंबेकर का बयान लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद आया था, जिसमें बीजेपी अपने 400 सीटों के लक्ष्य की जगह केवल 240 सीटें ही जीत पाई थी. इसका परिणाम यह हुआ था कि बीजेपी अकेले के दम पर बहुमत नहीं जीत पाई थी. उसे नीतीश और चंद्रबाबू के समर्थन से सरकार बनानी पड़ी थी.

लगातार हार से परेशान कांग्रेस को अपनी मुक्ति का रास्ता जातीय जनगणना में दिख रहा है.
देश में कौन कर रहा था जातीय जनगणना की वकालत
साल 2011 की जनगणना से पहले संसद में जातीय जनगणना को लेकर लंबी बहस हुई थी. इसमें सपा के संस्थापक रहे मुलायम सिंह यादव,आरजेडी के संस्थापक लालू यादव और जेडीयू नेता रहे शरद यादव और बीजेपी नेता रहे गोपीनाथ मुंडे के अलावा पक्ष-विपक्ष के कई बड़े नेताओं ने जातीय जनगणना के समर्थन में दलीलें दी थीं. लेकिन कांग्रेस के अधिकांश नेता इसके विरोध में आगे आए थे.इसके बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने जातीय जनगणना का सैद्धांतिक रूप से समर्थन किया था. लेकिन 2011 की जनगणना में जाती के कॉलम को शामिल नहीं किया गया. इसके बाद मनमोहन सिंह की सरकार ने सोशियो इकोनॉमिक एंड कास्ट सेंसस (एसईसीसी) कराया था. लेकिन एसईसीसी के पूरे आंकड़ों को न तो कांग्रेस सरकार ने कभी जारी किया और न ही बीजेपी की नरेंद्र मोदी सरकार ने.
साल 2011 में जातीय जनगणना का विरोध करने वाली कांग्रेस इन दिनों अपनी मुक्ति का रास्ता जातीय जनगणना में ही देख रही है.वह लगातार मिल रही हार से परेशान है.कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगातार जातीय जनगणना की वकालत कर रहे है.उन्होंने लोकसभा में कहा था कि वो जातिगत जनगणना करवा कर रहेंगे.वो इसे कांग्रेस के संगठन में भी दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. कांग्रेस के संगठन में ओबीसी नेताओं को जगह दी जा रही है.
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