इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मोहर्रम का महीना होता है जिसे ग़म का महीना कहते हैं. इस मोहर्रम महीने की 10 तारीख को आशूरा का दिन कहते हैं. जिसमें पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन अपने 71 साथियों के साथ 3 दिन के भूखे प्यासे शहीद हुए थे. उन 72 शहीदों में सबसे छोटा शहीद 6 महीने के इमाम हुसैन के बेटे अली असगर थे, इन सभी शहीदों को सिर्फ हक़, इंसानियत और सच के रास्ते पर चलने की वजह से यज़ीद नाम के एक शासक के द्वारा मार दिया गया था.
यज़ीद बेगुनाहों पर ज़ुल्म करना, हक़ को छीनना, गलत रास्ते पर चलना,किसी भी इंसान को कत्ल करा देना समेत सारे तानाशाही कदम उठाता था, जिससे इस्लाम को बदनाम कर सके कि इस्लाम में इस तरह से ही बेजुर्म लोगों को अपना शिकार बनाया जाता है. वहीं जितने भी आस पास राज्य की सरकार होती थी उसमें भी ज़बरदस्ती उसने अपनी हुकुमत कायम करना चाह रहा था. जिससे लोग उससे डर के मारे भी उसके खिलाफ आवाज़ बुलंद नहीं कर पा रहे थे. उस यज़ीद ने इमाम हुसैन को भी खत लिखा था कि वो उसके रास्ते पर चलें लेकिन इमाम हुसैन (अस) ने उससे साफ कह दिया कि ज़िल्लत की ज़िंदगी से बेहतर इज़्ज़त की मौत है. मुझ जैसा तुझ जैसे के रास्ते पर नहीं चल सकता.
बस तभी इमाम हुसैन मोहर्रम महीने की 2 तारीख होती है और इराक़ के करबला में अपने बीवी बच्चों, साथियों के साथ कूफा शहर जा रहे होते हैं तभी यज़ीद की फौज उन्हें घेर लेती है. और पास में नहर-ए-फुरात पर भी पाबंदी लगा देती है कि जिससे इमाम हुसैन के काफिले तक पानी ना पहुंचाया जा सके. 2 मोहर्रम से लेकर 7 मोहर्रम तक इमाम हुसैन और उनके काफिले के पास जितना पानी था वो खत्म हो जाता है. और 7 मोहर्रम से लेकर 10 मोहर्रम (आशूरा) तक इमाम हुसैन का पूरा काफिला भूखा प्यासा रहता है. इस काफिले में छोटे-छोटे बच्चे से लेकर 80 साल तक के बुजुर्ग भी थे जिन्हें एक बूंद पानी तक ना मिल सका और आखिर में यज़ीद की फौज ने जब देखा कि इमाम हुसैन और उनका काफिला भूखा प्यासा रहने के बाद भी अभी तक यज़ीद के साथ होने के लिए तैयार नहीं है तो यज़ीद की फौज ने इमाम हुसैन के काफिले पर हमला कर दिया.
इस तरह दोपहर 4 बजे तक इमाम हुसैन के काफिले में 70 लोगों की शहादत हो चुकी थी, बस आखिर में इमाम हुसैन और उनका 6 महीने का बच्चा बचा था. जिसके बाद इमाम हुसैन उस बच्चे को अपनी गोद में लेकर उन ज़ालिम के पास गए और कहा कि तुमने मेरे हर एक साथी को तो शहीद कर दिया है अब इस बच्चे को तो पानी पिला दो. लेकिन जिन ज़ालिमों ने 70 लोगों को बेहरमी से मार दिया था वो इस छोटे बच्चे पर क्या रहम खाते, उन्हीं फौज में से एक हुरमुला नाम के तीरांदाज ने तीन मुंह का तीर निकाला और उस छोटे से बच्चे के गले पर मार दिया. मासूम के गले पर तीर लगने के बाद उसकी भी शहादत हो जाती है. और बाद में उस ज़ालिम फौज ने इमाम हुसैन पर भी तीर, तलवार, नेज़े की बारिश कर दी और इमाम हुसैन भी शहीद हो जाते हैं.
वहीं इमाम हुसैन की बीवी बच्चे, बहने और एक बीमार बेटे आदि को यज़ीद की फौज कैदी बना लेती है. जिन्हें करबला(इराक) से सीरिया के दमिश्क तक पैदल ले जाकर कैद कर देती है. बस यहीं वो मंज़र था जिस पर हर एक धर्म का इंसान इमाम हुसैन की शहादत को याद करता है, इमाम हुसैन अगर यज़ीद के रास्ते पर चले जाते तो शायद यज़ीद उन्हें क़त्ल ना करता लेकिन इमाम हुसैन ने 61 हिजरी यानि तकरीबन 1400 साल पहले बता दिया कि इंसानियत और हक़ पर चलने वाला इंसान कभी ज़ालिम के आगे अपना सर नहीं झुका सकता चाहे उसकी जान तक चली जाए.
इसी शहादत को आज तक कोई भूल नहीं सका है, पीएम नरेंद्र मोदी,महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, रविंद्रनाथ टैगोर, सरोजनी नायडू, आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार, शकंराचार्य आदि ने इमाम हुसैन के बारे में क्या क्या कहा आइए बताते हैं.
Imam Husain (SA) sacrificed himself instead of accepting injustice. He was unwavering in his desire for peace and justice. His teachings are as relevant today as they were centuries ago.
— Narendra Modi (@narendramodi) September 14, 2018
इमाम हुसैन के पवित्र संदेश को आपने अपने जीवन में उतारा है और दुनिया तक उनका पैगाम पहुंचाया है
— PMO India (@PMOIndia) September 14, 2018
इमाम हुसैन अमन और इंसाफ के लिए शहीद हो गए थे
उन्होंने अन्याय, अहंकार के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की थी
उनकी ये सीख जितनी तब महत्वपूर्ण थी उससे अधिक आज की दुनिया के लिए ये अहम है: PM
प्रधानमंत्री नरेंद मोदी: इमाम हुसैन (स.अ.व.) ने अन्याय को स्वीकार करने के बजाय अपना बलिदान दिया. वह शांति और न्याय की अपनी इच्छा में अटूट थे.उनकी शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी सदियों पहले थीं. इमाम हुसैन के पवित्र संदेश को आपने अपने जीवन में उतारा है और दुनिया तक उनका पैगाम पहुंचाया है. इमाम हुसैन अमन और इंसाफ के लिए शहीद हो गए थे. उन्होंने अन्याय, अहंकार के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद की थी. उनकी ये सीख जितनी तब महत्वपूर्ण थी उससे अधिक आज की दुनिया के लिए ये अहम है.
महात्मा गांधी : मैंने हुसैन से सीखा कि मज़लूमियत में किस तरह जीत हासिल की जा सकती है. इस्लाम की बढ़ोतरी तलवार पर निर्भर नहीं करती बल्कि हुसैन के बलिदान का एक नतीजा है जो एक महान संत थे.
रवीन्द्र नाथ टैगोर : इन्साफ और सच्चाई को जिंदा रखने के लिए, फौजों या हथियारों की जरुरत नहीं होती है. कुर्बानियां देकर भी फ़तह (जीत) हासिल की जा सकती है, जैसे की इमाम हुसैन ने कर्बला में किया.
पंडित जवाहरलाल नेहरू : इमाम हुसैन की क़ुर्बानी तमाम गिरोहों और सारे समाज के लिए है, और यह क़ुर्बानी इंसानियत की भलाई की एक अनमोल मिसाल है.
इंद्रेश कुमार, आरएसएस - इमाम हुसैन पर मुसीबतें आई और उन्होंने इसको अपनी परीक्षा समझा, मुसीबत में कुछ लोग बिखर जाते हैं तो कुछ लोग निखर जाते हैं. उन्होंने दुनिया को रास्ता दिखाना था जिसकी वजह से वो निखर गये, इमाम हुसैन आतंक के खिलाफ थे, प्यार मोहब्बात भाईचारे के रास्ते पर चलते थे, उनके अंदर एक रुहानियत ताकत थी.
डॉ राजेंद्र प्रसाद : इमाम हुसैन की कुर्बानी किसी एक मुल्क या कौम तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोगों में भाईचारे का एक असीमित राज्य है.
डॉ राधाकृष्णन : अगरचे इमाम हुसैन ने सदियों पहले अपनी शहादत दी, लेकिन उनकी पाक रूह आज भी लोगों के दिलों पर राज करती है.
स्वामी शंकराचार्य : यह इमाम हुसैन की कुर्बानियों का नतीजा है कि आज इस्लाम का नाम बाकी है, नहीं तो आज इस्लाम का नाम लेने वाला पूरी दुनिया में कोई भी नहीं होता.
सरोजिनी नायडू : मैं मुसलमानों को इसलिए मुबारकबाद पेश करना चाहती हूं कि यह उनकी खुशकिस्मती है कि उनके बीच दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती इमाम हुसैन (अ:स) पैदा हुए जिन्होंने संपूर्ण रूप से दुनिया भर के तमाम जातीय समूह के दिलों पर राज किया और करते हैं.
एडवर्ड ब्राउन : कर्बला में खूनी सहरा की याद जहां अल्लाह के रसूल का नवासा प्यास के मारे ज़मीन पर गिरा और जिसके चारों तरफ सगे सम्बन्धियों की लाशें थीं, यह इस बात को समझने के लिए काफी है कि दुश्मनों की दीवानगी अपनी चरम सीमा पर थी, और यह सबसे बड़ा गम है जहां भावनाओं और आत्मा पर इस तरह नियंत्रण था कि इमाम हुसैन को किसी भी प्रकार का दर्द, खतरा और किसी भी प्रिय की मौत ने उनके क़दम को नहीं डगमगाया.
इग्नाज़ गोल्ज़ेहर : बुराइयों और हज़रत अली के खानदान पर हुए ज़ुल्म और प्रकोप पर उनके शहीदों पर रोना और आंसू बहाना इस बात का प्रमाण है कि संसार की कोई भी ताक़त इनके अनुयायियों को रोने या गम मनाने से नहीं रोक सकती है और अक्षर “शिया” अरबी भाषा में कर्बला की निशानी बन गए हैं.
डॉ के शेल्ड्रेक : इस बहादुर और निडर लोगों में सभी औरतें और बच्चे इस बात को अच्छी तरह से जानते और समझते थे कि दुश्मन की फौजों ने इनका घेरा किया हुआ है और दुश्मन सिर्फ लड़ने के लिए नहीं बल्कि इनको कत्ल करने के लिए तैयार हैं. जलती रेत, तपता सूरज और बच्चों की प्यास ने भी एक पल के इनके कदम डगमगाने नहीं दिए. हुसैन अपनी एक छोटी टुकड़ी के साथ आगे बढ़े, न किसी शान के लिए, न धन के लिए, न ही किसी अधिकार और सत्ता के लिए, बल्कि वे बढ़े एक बहुत बड़ी क़ुर्बानी देने के लिए जिसमें उन्होंने हर कदम पर सारी मुश्किलों का सामना करते हुए भी अपनी सत्यता का कारनामा दिखा दिया.
चार्ल्स डिकेन्स : अगर हुसैन अपनी संसारिक इच्छाओं के लिए लड़े थे तो मुझे यह समझ नहीं आता कि उन्होंने अपनी बहन, पत्नी और बच्चों को साथ क्यों लिया! इसी कारण मैं यह सोचने और कहने पर विवश हूं कि उन्होंने पूरी तरह से सिर्फ इस्लाम के लिए अपने पूरे परिवार का बलिदान दिया, ताकि इस्लाम बच जाए.
अंटोनी बारा : मानवता के वर्तमान और अतीत के इतिहास में कोई भी युद्ध ऐसा नहीं है जिसने इतनी मात्रा में सहानूभूति और प्रशंसा हासिल की है और सारी मानव जाति को इतना अधिक उपदेश व उदाहरण दिया है जितनी इमाम हुसैन की शहादत ने कर्बला के युद्ध से दी है.
थॉमस कार्लाईल : कर्बला की दुखद घटना से जो हमें सबसे बड़ी सीख मिलती है वह यह है कि इमाम हुसैन और इनके साथियों का भगवान पर अटूट विश्वास था और वो सब मोमिन (भगवान से डरने वाले) थे! इमाम हुसैन ने यह दिखा दिया कि सैन्य विशालता ताकत नहीं बन सकती.
रेनौल्ड निकोल्सन : हुसैन गिरे, तीरों से छिदे हुए, इनके बहादुर सदस्य आखरी हद तक मारे-काटे जा चुके थे, मुहम्मदी परम्परा अपने अंत पर पहुंच जाती, अगर इस असाधारण शहादत और क़ुर्बानी को पेश न किया जाता. इस घटना ने पूरी बनी उमय्या को हुसैन के परिवार का दुश्मन, यज़ीद को हत्यारा और इमाम हुसैन को “शहीद” घोषित कर दिया.
सरदार एसएस आज़ाद - बंग्ला साहब गुरुद्वारा - इमाम हुसैन की शहादत इंसानियत को बचाने के लिए दी गई शहादत थी,ज़ालिम हुकमरान हमेशा ही इंसानियत के खिलाफ रहते हैं, और इंसानियत के चाहने वाले जो होते हैं वो हमेशा ही करबला की तरह अपनी शहादत देकर इंसानयित को ज़िंदा रखते हैं.
फादर विक्टर एडविन - इमाम हुसैन इंसानियत के लिए लड़े और जुल्म के खिलाफ कभी सर नहीं झुकाया और अपनी कुर्बानी दे दी. मैं खुद भी उनकी कब्र(करबला) पर गया हूं मुझे वहां जाकर महसूस हुआ कि जिनते भी लोग वहां आते हैं सबको बहुत सुकुन मिलता है. उनकी ज़िंदगी आज के लिए सबक है. सब शांति अमन के लिए सबके साथ रहकर अपने कदम आगे बढ़ाएं.
इमाम हुसैन को हिंदुस्तान से बहुत प्यार था, और आखिरी वक्त में उन्होंने ये ख्वाहिश भी की थी कि वो हिंदुस्तान जाना चाहते हैं लेकिन यज़ीद फौज ने उन्हें इसकी भी इजाज़त नहीं दी. लेकिन उनकी इसी मोहब्बत को हर हिंदुस्तानी याद करता है. और उनकी याद में हिंदुस्तान के कई धर्म के लोग उन्हें चाहते हैं. कोई ताज़िया निकालता है तो कोई उनका अलम अपने घर पर सजाता है.
इमाम हुसैन ने इंसानियत को ज़िंदा रख दिया, जिसकी वजह से आज 1400 साल के बाद भी लोग उन्हें याद करते हैं. पूरे विश्व में 10 मोहर्रम के दिन उनकी याद में ग़म मनाया जाता है.. वहीं हर साल करोड़ो लोग इमाम हुसैन की कब्र पर जाते हैं, और जो लोग उनके कब्र पर नहीं जा पाते हैं वो अपने शहर, गांव,क्षेत्र में ही मजलिस मातम, पानी, शरबत आदि बांटकर इमाम हुसैन और सभी करबला के 72 शहीदों को याद करते हैं.
इमाम हुसैन अस अगर आज से 1400 साल पहले अपनी शहादत नहीं देते तो दुनिया इस्लाम को सिर्फ यहीं समझती कि इसमें सिर्फ लोगों पर ज़ुल्म और नाइंसाफी होती है. जिसका आज के दौर में सीधा उदाहरण आईएसआईएस, लश्कर ए तैय्यबा जैसे आतंकी संगठन से देखने को मिल सकता है जिसमें ये आतंकी लोग किसी भी मज़लूम पर रहम नहीं करते और इंसानियत का क़त्ल कर देते हैं. वहीं इमाम हुसैन ने अपनी कुर्बानी देकर इन लोगों के चेहरे से इस्लाम का नकाब हटा दिया कि ये लोग जो इस्लाम का नाम लेकर मासूमों को क़त्ल करते हैं वो इंसान नहीं शैतान हैं. और उनका इस्लाम से कोई नाता नहीं. इस्लाम सिर्फ इंसानियत, भाईचारा, सच का रास्ता दिखाता है जिसमें हर एक मज़लूम की मदद की जाए.