लोकसभा चुनाव 2024 (Lok sabha election 2024) कई मायनों में रोचक होता जा रहा है. चुनाव की तारीख के ऐलान के लगभग 10 महीने पहले से ही गठबंधन की कवायद शुरू हो गयी थी. विपक्षी दलों की गठबंधन को लेकर पहली बैठक 23 जून 2023 को पटना में आयोजित की गयी थी. वहीं साल 2019 से लेकर 2022 के बीच एनडीए के भी कई घटक दल टूट गए थे जिन्हें वापस लाने के प्रयास भी विपक्षी गठबंधन की आहट के साथ ही शुरू हो गयी थी. हालांकि विपक्षी दलों के तमाम प्रयासों के बाद भी इंडिया गठबंधन को अंतिम रूप कुछ राज्यों में अब तक नहीं दिया जा सका है. वहीं कभी एनडीए का हिस्सा रहे कई दलों की सत्ताधारी गठबंधन में वापसी हो गयी है.
BJP से दूरी बनाकर रखने के लिए ही जनता दल से अलग होकर बना था JDS
पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा भारतीय राजनीति में जीवित एक मात्र पूर्व प्रधानमंत्री हैं जो कुछ हद तक राजनीति में अभी भी सक्रिय हैं. 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के बहुमत साबित करने में असफल रहने के बाद देवगौड़ा संयुक्त मोर्चा की तरफ से देश के प्रधानमंत्री बने थे. लंबे समय तक देवगौड़ा बीजेपी से दूरी बनाकर रखने के पक्षधर रहे थे. साल 1999 में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 1 वोट से विश्वासमत हार गयी थी उसके बाद तत्कालिन जनता दल में बीजेपी को समर्थन के नाम पर विभाजन हो गया था. जनता दल का एक हिस्सा शरद यादव और रामविलास पासवान के नेतृत्व में एनडीए के साथ जाना चाहता था. वहीं देवगौड़ा किसी भी हालत में एनडीए को समर्थन के पक्ष में नहीं थे. देवगौड़ा ने अलग हटकर जुलाई 1999 में जनता दल सेक्युलर (JDS) का गठन किया था.
जेडीएस ने NDA के साथ क्यों किया गठबंधन?
पिछले 2 दशक की राजनीति में तमाम उठापटक के बाद एचडी देवगौड़ा की पार्टी कर्नाटक की राजनीति में भी हासिए पर चली गयी थी. पिछले विधानसभा चुनाव में जेडीएस का प्रदर्शन बेहद खराब रहा था. साथ ही कर्नाटक में कांग्रेस की वापसी के बाद विपक्षी गठबंधन की तरफ से जेडीएस को वो उचित सम्मान मिलने की उम्मीद नहीं थी. साथ ही जेडीएस के नेताओं और कांग्रेस के नेताओं का मानना रहा है कि वोट ट्रांसफर एक दूसरे दलों के बीच नहीं हो पाता है. ऐसे में जेडीएस ने इंडिया के बदले एनडीए के विकल्प को चुना. देवगौड़ा का कांग्रेस के साथ अनुभव कभी भी अच्छा नहीं रहा है. जब वो प्रधानमंत्री बने थे उस दौरान भी कांग्रेस पार्टी की तरफ से कुछ ही दिनों बाद समर्थन वापस ले लिया था. साथ ही पीएम मोदी ने कई मौकों पर एचडी देवगौड़ा के साथ स्वयं मुलाकात कर रिश्ते को मजबूत दी.
चंद्रबाबू नायडू को एनडीए क्यों लगा बेहतर?
आंध्रप्रदेश की राजनीति में लंबे समय से मजबूत उपस्थिती रखने वाले चंद्रबाबू नायडू साल 1999 से 2004 तक और 2014 से 2019 तक आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं. दोनों ही दफे सीएम बनने में उन्हें बीजेपी का सहयोग मिला था. बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ने के बाद उन्हें हार का सामना करना पड़ा. 2019 के लोकसभा चुनाव में नायडू ने कांग्रेस के खिलाफ देश भर में सभी दलों को बीजेपी के खिलाप गोलबंद करने की कोशिश की थी. लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी. नायडू का कांग्रेस के साथ गठबंधन भी सफल नहीं रहा था. इस चुनाव में जब उनके ऊपर राज्य सरकार की तरफ से भ्रष्टाचार के कई केस चल रहे हैं. साथ ही राज्य में वाईएस राजशेखर रेड्डी उन्हें बेहद मजबूत चुनौती दे रहे हैं ऐसे में उन्होंने इंडिया की तुलना में अपने आपको एनडीए के साथ रखना उचित समझा.
नीतीश कुमार ने क्यों लिया यू-टर्न
साल 2023 में नीतीश कुमार विपक्षी गठबंधन के सबसे बड़े पक्षकार के तौर पर देखे जा रहे थे. नीतीश कुमार की पहल पर ही विपक्ष के तमाम नेता 23 जून 2023 को पटना में जुटे थे. नीतीश कुमार ने देश भर में जाकर तमाम विपक्षी नेताओं से मुलाकात कर बीजेपी के खिलाफ हर सीट पर साझा उम्मीदवार उतारने की बात कही थी. नीतीश कुमार बिहार छात्र आंदोलन के उपज रहे हैं. आपातकाल के दौरान भी नीतीश कुमार सक्रिय रहे थे. उनके पास राजनीति का लंबा अनुभव रहा है. 1974 से 1994 तक उन्होंने समाजवादी दलों के साथ राजनीति की थी बाद में वो 1995 के बाद एनडीए के सहयोगी बन गए. लगभग 2 दशक तक नीतीश कुमार की पार्टी एनडीए का हिस्सा रही थी.
जदयू के नेता महागठबंधन की तुलना में BJP के साथ अधिक सहज
नीतीश कुमार की पार्टी पहले समता पार्टी और बाद में जदयू पिछले लगभग 3 दशक से (कुछ समय को अगर छोड़ दें तो) एनडीए का हिस्सा रही है. ऐसे में नीतीश कुमार की और उनकी पार्टी की लगभग पूरी राजनीति लालू प्रसाद के खिलाफ रही है. हालांकि वैचारिक तौर पर नीतीश कुमार लालू प्रसाद के करीब हैं लेकिन उनके कार्यकर्ताओं और नेताओं का झुकाव बीजेपी की तरफ रहा है. जदयू के अधिकतर नेताओं का मानना था कि बीजेपी के साथ जाने पर मतों का ट्रांसफर आसानी से हो सकता है और जीत मिल सकती है. जदयू के कई सांसद भी बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ना चाहते थे.
कांग्रेस की तुलना में बीजेपी को बेहतर सहयोगी मानते हैं क्षेत्रीय दल!
हाल के दिनों में कई क्षेत्रीय दलों में हुई टूट के बाद भी कई क्षेत्रीय क्षत्रप आज भी कांग्रेस की तुलना में बीजेपी के साथ गठबंधन करने में अधिक सहज रहते हैं. आपातकाल और उसके बाद हुई राजनीति में जो नेता सक्रिय थे वो आज भी कांग्रेस से बेहतर विकल्प बीजेपी को मानते हैं. साथ ही पिछले 3 दशकों में कई राज्यों में बीजेपी ने अपने वोट बैंक के सहयोग से कई क्षेत्रीय क्षत्रपों को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहंचाया है. वहीं जानकारों का मानना रहा है कि वोट ट्रांसफर के मामले में भी बीजेपी कांग्रेस से आगे रही है. बीजेपी के मतदाता काफी सहजता के साथ बीजेपी गठबंधन के सहयोगी को वोट दे देते हैं.
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