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लोकसभा चुनाव 2024 : दिल्ली में आप-कांग्रेस गठबंधन के सफल या असफल होने का क्या होगा असर?

Lok Sabha Elections: लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सीटों पर यदि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की जुगलबंदी कामयाब होती है तो संभव है कि इसका गहरा असर देश की राजनीतिक भविष्य पर पड़े.

लोकसभा चुनाव 2024 : दिल्ली में आप-कांग्रेस गठबंधन के सफल या असफल होने का क्या होगा असर?
दिल्ली का सात लोकसभा सीटों में से चार पर आम आदमी पार्टी और तीन पर कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं.
नई दिल्ली:

Lok Sabha Elections 2024: मौजूदा लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (Delhi) का राजनीतिक परिदृश्य बदला हुआ है. सन 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ ताल ठोकते हुए पहली बार मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी (AAP) ने अब 2024  के चुनाव में उसी कांग्रेस (Congress) के हाथ में हाथ डालकर बीजेपी को चुनौती दी है. मौजूदा लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सीटों पर यदि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की जुगलबंदी कामयाब होती है तो संभव है कि इसका गहरा असर देश की राजनीति के भविष्य पर पड़े. लोकसभा चुनाव के महज आठ महीने बाद दिल्ली में विधानसभा चुनाव (Delhi Assembly Elections) होने वाले हैं. यदि 'आप' और कांग्रेस की 'दोस्ती' कामयाब होती है तो विधानसभा चुनाव में मुकाबले का अलग नजारा हो सकता है.         

राजधानी दिल्ली की राजनीति में कांग्रेस और बीजेपी का वर्चस्व रहा है. सन 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद 2012 में जन्मी आम आदमी पार्टी ने 2013 में चुनावी राजनीति में पदार्पण किया और इसके साथ दिल्ली की राजनीति में चलने वाला बीजेपी और कांग्रेस का संघर्ष त्रिकोणीय मुकाबले में बदल गया. सन 2013 के विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकार के खिलाफ बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने ही पूरा जोर लगाया था. चुनाव में कुल 70 सीटों में से बीजेपी को 31 और आम आदमी पार्टी को 28 सीटें मिली थीं. कांग्रेस बुरी तरह पराजित होकर आठ सीटों तक सिमट गई थी. इस चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 33.1 प्रतिशत और आम आदमी पार्टी का वोट शेयर 29.5 प्रतिशत था. कांग्रेस का वोट शेयर 24.6 प्रतिशत था. हालांकि नतीजे आने के बाद आम आदमी पार्टी ने अल्पमत के कारण कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी और अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बने थे. पहली 'आप' सरकार अल्पजीवी रही और सिर्फ 49 दिनों में तब गिर गई, जब केजरीवाल ने विधानसभा में जन लोकपाल बिल पेश करने में असफल होने पर इस्तीफा दे दिया. 

विकल्प के रूप में उभरी आम आदमी पार्टी

हालांकि ऐसा नहीं है कि किसी अन्य दल ने दिल्ली में दखल नहीं दिया, सन 2007 में मायावती के नेतृत्व वाले दल बहुजन समाज पार्टी (BSP) ने   दिल्ली नगर निगम के चुनाव में कुछ वार्डों में कामयाबी हासिल करने के बाद 2008 के विधानसभा चुनाव में भी दो सीटें जीत ली थीं. यह बात अलग है कि वह कांग्रेस और बीजेपी के लिए चुनौती नहीं बन सकी. दिल्ली के लोगों ने आम आदमी पार्टी को ही बीजेपी और कांग्रेस के दूरगामी विकल्प के तौर पर देखा और उसे समर्थन दिया. साल 2013 के बाद से दिल्ली में चाहे लोकसभा चुनाव हो, विधानसभा चुनाव हो या फिर नगर निगम चुनाव हो, यहां की राजनीति हमेशा त्रिपक्षीय बनी रही.

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त्रिकोणीय की जगह द्विपक्षीय मुकाबला 

जारी लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी से मुकाबले के लिए विपक्ष के इंडिया गठबंधन के झंडे तले एकजुट होने से अब लड़ाई द्विध्रुवीय हो गई है. इसके साथ भारतीय राजनीति में बदलाव का एक नया अध्याय जुड़ रहा है. विपक्ष की इस एकता का उद्देश्य बीजेपी के खिलाफ वोटों का बंटवारा रोकना है. वे मतदाता जो बीजेपी को वोट देना नहीं चाहते, वे बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ रही पार्टियों में से किसी एक को चुनते रहे हैं. वोटों के इस बंटवारे का फायदा बीजेपी को मिलता रहा है. 'आप' और कांग्रेस दोनों इंडिया गठबंधन का हिस्सा हैं और इसीलिए वे दोनों दिल्ली में मिलकर बीजेपी के खिलाफ मैदान में डटी हैं. अब त्रिकोणीय संघर्ष बीजेपी और इंडिया गठबंधन के बीच सीधी लड़ाई में तब्दील हो गया है.

दिल्ली की सात लोकसभा सीटों में से चार सीटों - नई दिल्ली, पूर्वी दिल्ली, दक्षिणी दिल्ली और पश्चिमी दिल्ली पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार मैदान में उतरे हैं. चांदनी चौक, उत्तर पूर्वी दिल्ली और उत्तर पश्चिम दिल्ली सीट पर कांग्रेस चुनाव लड़ रही है.  

इस चुनाव में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस सहित अन्य दल मतदाताओं को एक साफ संदेश दे रहे हैं कि उनका गठबंधन चुनाव में किसी पार्टी की जीत के लिए नहीं है बल्कि लोकतंत्र और संविधान बचाने के लिए है.

वोट शेयरिंग के गणित में बदलाव 

दिल्ली में 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को कुल 56.7 प्रतिशत वोट मिले थे. कांग्रेस को 22.6 फीसदी और 'आप' को महज 18.2 फीसदी वोट मिले थे. जबकि इससे पहले के 2014 के लोकसभा चुनाव में वोट शेयर का गणित थोड़ा अलग था. उस समय बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में पेश करते हुए पहला चुनाव लड़ा था. तब दिल्ली में बीजेपी को 46.4 प्रतिशत वोट मिले थे. आम आदमी पार्टी को 33.1 प्रतिशत और कांग्रेस को 15.2 प्रतिशत वोट मिले थे. इस बार आम आदमी पार्टी और कांग्रेस को भरोसा है कि उन दोनों के वोट आपस में बंटेंगे नहीं. सम्मिलित वोट दोनों दलों के उम्मीदवारों को मिलेंगे.  

इस बार इंडिया गठबंधन का मजबूत पक्ष यह है कि इस बार बीजेपी के पक्ष में कोई प्रभावी लहर नहीं है और दूसरी तरफ कुछ हद तक सत्ता विरोधी लहर है. इस स्थिति में वोट शेयर में आंशिक बदलाव भी नतीजों को प्रभावित कर सकता है.  

दोनों दलों के भीतर नाराजगी के बीच निकला गठबंधन का रास्ता 

कांग्रेस और 'आप' ने 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान भी गठबंधन पर विचार किया था पर इसे अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका था. चूंकि दोनों पार्टियां नगर निगम और विधानसभा चुनाव में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ती हैं और दोनों का वोटर बेस भी एक ही है, इसलिए दोनों के बीच एकता के विरोध में इनके अंदर से ही सुर उठते रहे हैं. इस चुनाव से पहले भी दोनों पार्टियों में, खास तौर पर कांग्रेस के अंदर इस गठबंधन के फैसले को लेकर भारी विरोध की स्थितियां देखने को मिलीं. यहां तक कि कुछ नेताओं ने तो गठबंधन के फैसले के विरोध में पार्टी ही छोड़ दी.    

इंडिया गठबंधन की स्थापना से पहले ही विपक्षी दलों में इसको लेकर आम सहमति नहीं बन पा रही थी. इसके अलावा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच भी एक साथ चलने पर सहमति की कमी बनी रही. दिल्ली के कथित शराब घोटाले के मामले में अरविंद केजरीवाल की सरकार के मंत्रियों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई, केजरीवाल सहित दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल वीके सक्सेना के बीच कभी न खत्म होने वाले विवादों के सिलसिले के बीच आखिरकार दोनों पार्टियों में एकता पर सहमति बन गई.    

    

दिल्ली में गठबंधन, पंजाब में दूरी

लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी दिल्ली में चार सीटों पर, असम में दो सीटों पर, गुजरात में दो सीटों पर, पंजाब की सभी 13 सीटों पर और हरियाणा की एक सीट पर चुनाव लड़ रही है. पार्टी ने पंजाब को छोड़कर दिल्ली सहित अन्य राज्यों में कांग्रेस से सीटों की समझौता किया है. देश भर में आम आदमी पार्टी कुल 22 सीटों पर और कांग्रेस 300 से कुछ अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही है.     

बदलते जनाधार से बदलती रही राजनीति की धारा

लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों की जनता में पैठ घटती-बढ़ती रहती है. सन 1975 से पहले तक कांग्रेस भारतीय राजनीति के केंद्र में थी. इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने 25 जून 1975 को आपातकाल लागू कर दिया. सरकार का यह फैसला उसे पराभव की दिशा में ले गया. सन 1977 के चुनाव में कांग्रेस को कड़ी पराजय का सामना करना पड़ा. तब जनता पार्टी ने अन्य दलों के साथ गठबंधन करके मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनाई थी. इसके बाद 1980 में कांग्रेस की वापसी हुई. सन 1989 में फिर बड़ा राजनीति बदलाव हुआ और जनता दल की सरकार बनी. सन 1991 में जनता ने एक बार फिर कांग्रेस को देश की बागडोर सौंपी. सन 1996 में बीजेपी की सरकार बनी और फिर 2004 से 2014 तक कांग्रेस की सरकार रही. इसके बाद से बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार लगातार 10 साल से सत्तासीन है.

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विकल्पों को अपनाकर बदलाव लाने वाले वोटर

लोकतंत्र में सत्ता में आने वाले दलों के सकारात्मक और नकारात्मक असर हमेशा चुनावी नतीजों को प्रभावित करते हैं. एक तरफ जहां दलों के खाते में आने वाले पारंपरिक वोट होते हैं वहीं दूसरी तरफ अपना रुख बदलने वाले और विकल्पों को अपनाने वाले वोटर होते हैं. यही वोटर बदलाव का बड़ा कारण बनते हैं.

नई-पुरानी राजनीतिक मान्यताओं का गठबंधन

मौजूदा लोकसभा चुनाव में दिल्ली में यदि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन बीजेपी को शिकस्त देने में कामयाब होता है तो इससे बनने वाले राजनीतिक समीकरण सिर्फ दिल्ली ही नहीं देश की राजनीति के भविष्य को भी नई दिशा में ले जा सकते हैं. ध्यान देने वाली बात है कि कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी और आम आदमी पार्टी सिर्फ 11 साल पुरानी पार्टी है. कांग्रेस जहां सबसे लंबे समय तक देश की सत्ता संभालने वाली पार्टी है वहीं 'आप' दो राज्यों दिल्ली और पंजाब की सत्ता हासिल करने में कामयाब हुई पार्टी है. देश के लोगों ने आजादी के बाद कांग्रेस को सत्ता विरासत में दी थी जबकि आंदोलन से जन्मी आम आदमी पार्टी ने एक दशक में ही देश के मुख्य धारा के राजनीतिक दलों में अपनी जगह बना ली. भारत के संसदीय इतिहास में कांग्रेस का देश के कोने-कोने में जनाधार रहा है. दिल्ली की क्षेत्रीय पार्टी मानी जाने वाली आम आदमी पार्टी ने तेज गति से दूसरे राज्यों में अपने कदम बढ़ाए और 2023 में राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल कर लिया. यानी एक तरह से पुरानी और नई, दो तरह की राजनीतिक मान्यताओं वाले दलों का यह गठबंधन है, जो देश की राजनीति की नई केमिस्ट्री गढ़ सकता है.   

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कामयाबी खोल सकती है नए रास्ते

यदि दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन सातों सीटों को जीतने में सफल होता है तो संभव है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में भी यह गठबंधन बना रहे और दिल्ली का अगला चुनाव भी यह दोनों दल मिलकर लड़ें. संभावना कम होने के बावजूद यदि इंडिया गठबंधन लोकसभा चुनाव में बहुमत हासिल करने में सफल हो जाता है, तो तब भी यह राजनीतिक जुगलबंदी जारी रहने की संभावना है.  

असफलता से उठेंगे सवाल

दूसरी तरफ यदि 'आप' और कांग्रेस का गठबंधन दिल्ली के मौजूदा चुनाव में असफल होता है तो स्वाभाविक रूप से ही इसके भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा. यदि कांग्रेस अपनी सभी तीन सीटों पर सफल होती है और आप असफल, या फिर कांग्रेस नाकामयाब होती है और आप कामयाब, तब भी इस गठबंधन की एकता पर असर पड़ेगा. इसका सबसे पहला प्रभाव दिल्ली विधानसभा के आगामी चुनाव पर देखने को मिलेगा. फिलहाल देखते चलें.. किसे चुनती है, किसे नकारती है दिल्ली...

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