भारत में एलायंस पॉलिटिक्स कितनी रही है सफल? क्या कागजी गठबंधन जमीन पर होते हैं कामयाब?

कई गठबंधन चुनाव से पहले कागजों पर काफी मजबूत दिख रहे थे लेकिन चुनाव परिणाम काफी अलग देखने को मिले.

भारत में एलायंस पॉलिटिक्स कितनी रही है सफल? क्या कागजी गठबंधन जमीन पर होते हैं कामयाब?

नई दिल्ली:

लोकसभा चुनाव 2024 की तैयारी को लेकर सभी दलों की तरफ से तैयारी तेज कर दी गई है. गठबंधन को लेकर भी चर्चाओं का दौर जारी है. विपक्ष के कई नेताओं की तरफ से चुनाव पूर्व एक व्यापक गठबंधन की वकालत की जा रही है. राजनीतिक दलों की तरफ से दावें किए जा रहे हैं कि बीजेपी गठबंधन को पिछले लोकसभा चुनाव में 40 से कम प्रतिशत वोट मिले थे फिर भी उसे जीत मिली थी. ऐसे में अगर राष्ट्रीय स्तर पर एक विपक्षी गठबंधन बनाई जाती है तो बीजेपी गठबंधन को मात दी जा सकती है. लेकिन सवाल यह है कि क्या कागजी स्तर पर जिस तरह से गठबंधन और वोट प्रतिशत को देखा जाता है क्या जमीनी स्तर पर वो वैसे ही सफल होते हैं? एक चुनावी गठबंधन के लिए राजनीतिक दलों के आर्थिक और सामाजिक नीतियों के बीच अंतर का सफलता और असफलता पर कितना असर रहा है?

भारत में कब-कब सफल रहे हैं गठबंधन?

भारतीय राजनीति में साल 1967 से ही गठबंधन राजनीति को व्यापक स्तर पर देखा गया है. लेकिन गठबंधन को पहली सफलता 1977 में ही देखने को मिली जब कई छोटे-छोटे राजनीतिक दलों और जनसंघ को मिलाकर जनता पार्टी का गठन किया गया और कुछ वामदलों के साथ मिलकर जनता पार्टी की 1977 में सरकार बनी. 1977 के फर्मूले पर ही चलते हुए 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में भी एक व्यापक गठजोड़ देखने को मिला और 1989 के चुनाव में इस गठबंधन को आंशिक सफलता मिली. चुनाव बाद बीजेपी के समर्थन से वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने हालांकि लोकसभा त्रिशंकु रहा था. जिसके परिणाम बाद के दिनों में राजनीतिक स्थिरता के तौर पर देखा गया. 1999 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए को 1977 की ही तरह पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ. और यह पहली गठबंधन सरकार बनी जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया.

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2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए को भी शानदार सफलता मिली. 2009 आते-आते आर्थिक और सामाजिक नीतियों को लेकर माकपा, राजद और सपा जैसे दलों के साथ हुए कांग्रेस के टकराव के कारण यह गठबंधन बिखर गया और यूपी और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला लिया. हालांकि चुनाव बाद यूपीए के सभी दल वापस साथ आ गए. 

राज्यों में भी सफल गठबंधन के कुछ उदाहरण हैं

अयोध्या में विवादित ढांचे को गिराए जाने के बाद हुए विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा गठबंधन को जीत मिली थी. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में राजद और जदयू गठबंधन को जीत मिली. बीजेपी और जदयू ने भी कई दफा गठबंधन के तहत जीत दर्ज किया. महाराष्ट्र में शिवसेना और बीजेपी गठबंधन और एनसीपी कांग्रेस गठबंधन को भी कई बार जीत मिली. तमिलनाडु में डीएमके और कांग्रेस गठबंधन को जीत मिली.डीएमके और कांग्रेस के रिश्तों में राजीव गांधी की हत्या के बाद काफी तल्खी हुआ करती थी. लेकिन साल 2004 में यूपीए की सरकार बनने के बाद से दोनों ही दलों के बीज मजबूत गठबंधन देखने को मिले हैं.

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कई गठबंधन असफल रहे

कई गठबंधन चुनाव से पहले कागजों पर काफी मजबूत दिख रहे थे लेकिन चुनाव परिणाम काफी उलट देखने को मिले. 2017 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और सपा गठबंधन को बेहद मजबूत माना जा रहा था. कागज पर इस गठबंधन के पक्ष में लगभग 40 प्रतिशत वोट शेयर होने की बात कही जा रही थी लेकिन परिणाम काफी निराशाजनक देखने को मिले.

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2019 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और बसपा गठबंधन को कागज पर काफी सफल माना जा रहा था लेकिन चुनावी मैदान में गठबंधन को करारी हार का सामना करना पड़ा. बंगाल विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और बंगाल में वर्षों तक राज करने वाली सीपीआईएम को भी मजबूत गठबंधन के तौर पर देखा जा रहा था. लेकिन चुनाव में दोनों ही दलों ने बेहद निराशाजनक प्रदर्शन किया. हाल ही में हुए त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और माकपा गठबंधन को निराशा हाथ लगी यहां तक कि माकपा के सीटों में गिरावट ही देखने को मिला. 

गठबंधन की सफलता और असफलता के पीछे क्या तर्क है?

जानकारों का मानना रहा है कि राजनीतिक दलों का गठबंधन भारतीय लोकतंत्र के लिए अपरिहार्य होता जा रहा है. लेकिन रिकॉर्ड यही बताते हैं कि समान विचारधारा वाले दलों के बीच हुए गठबंधन ही अधिक सफल हुए हैं. उदाहरण के तौर पर आप बीजेपी और शिवसेना गठबंधन को देख सकते हैं. कई बार इस गठबंधन को सफलता मिली. वहीं माकपा और कांग्रेस गठबंधन को लगातार हार का सामना करना पड़ा है. 90 के दशक में जहां बसपा और सपा गठबंधन सफल हुए वहीं 2019 में इसी गठबंधन को असफलता मिली. इसके पीछे भी शुरुआती दिनों में दोनों ही दलों की विचारधारा में सामाजिक न्याय जैसे एक तरह के मुद्दे दिखते हैं तो वहीं 2019 आते-आते दोनों ही दलों के आधार मतदाताओं में जातिगत प्रभुता के कारण टकराव का असर चुनाव परिणाम पर भी दिखे.

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वोट ट्रांसफर करने की क्षमता का अभाव

कई गठबंधन कागजी रिकॉर्ड में मजबूत होते हैं लेकिन जमीन पर असफल हो जाते हैं. पिछले 3-4 दशकों में गठबंधन के स्वरूप में बदलाव देखने को मिला है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस पर अपना वोट ट्रांसफर नहीं करवा पाने का आरोप लगाया था. 2019 के चुनाव में सपा पर बसपा ने भी यही आरोप लगाया. वामदलों और कांग्रेस के बीच भी वोट ट्रांसफर का अभाव देखा गया है. चुनाव आयोग के रिकॉर्ड बंगाल और त्रिपुरा में बताते हैं कि कई जगहों पर लेफ्ट और कांग्रेस के गठबंधन के बाद बीजेपी के मतों में काफी बढ़ोतरी देखने को मिली.

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हालांकि कुछ छोटे राजनीतिक दल हैं जिन्हें उनके वोट ट्रांसफर करने की क्षमता के लिए जाना जाता है. बिहार में रामविलास पासवान की एलजेपी, वामदलों में भाकपा- माले जैसे दल अपने गठबंधन सहयोगी के लिए कई बार बेहद उपयोगी साबित हुए हैं. लोजपा की 2004 के चुनावों में यूपीए की सफलता में अहम भूमिका रही थी. वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की वापसी में लोजपा की भूमिका रही थी. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में भाकपा माले का राजद  और कांग्रेस के साथ आना चुनाव परिणाम में बड़ा परिवर्तन करने वाला साबित हुआ था. माले के आधार क्षेत्र में महागठबंधन को अच्छी सफलता मिली थी.

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