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रिपोर्टर की आंखों देखी- राजौरी-पुंछ में आप घूम आइए, पता चलेगा- वे धर्म पर नहीं, देश पर हमला करते हैं

कश्मीर में LoC और उसके आसपास के गांवों-शहरों में अब शांति लौट रही है. पाकिस्तान की ओर से सीजफायर के पेशकश हुई और भारत ने उसे स्वीकार कर लिया..इसी बदौलत अमन की बहाली हुई है लेकिन इस पूरे ऑपरेशन सिंदूर को कवर करने गए NDTV के वरिष्ठ संवाददाता अनुराग द्वारी ने जो चीजें वहां देखी को पाक के पाप को तो बयान करती ही है साथ ही राजौरी-पुंछ के लोगों के दर्द को भी बयां करती हैं.

रिपोर्टर की आंखों देखी- राजौरी-पुंछ में आप घूम आइए, पता चलेगा- वे धर्म पर नहीं, देश पर हमला करते हैं

Indian Pakistan Conflict: मैं पहलगाम में नहीं था.लेकिन मैंने वो खबरें पढ़ीं, ऐसी कहानियां जो मन पर भारी थीं, जो दिल से उतरती ही नहीं थीं. मारे गए लोगों के रिश्तेदार कह रहे थे —हमलावर नाम पूछते थे, धर्म पूछते थे और फिर गोली चलाते थे. जो मुसलमान नहीं थे, उन्हें मार दिया गया. ये सिर्फ़ हिंसा नहीं थी…ये पहचान पर हमला था. और फिर,जैसे किसी पुराने ज़ख्म को कुरेद दिया गया हो. देश में फिर वही पुरानी बहसें लौट आईं,धर्म की लकीरें खिंचने लगीं,ज़ुबानों पर नफरत के नारे चढ़ने लगे. 

"वो धर्म पर नहीं देश पर हमला करते हैं"

लेकिन कुछ दिन बाद…मैं राजौरी और पुंछ की ज़मीन पर खड़ा था. जहां फिर आग आई थी- इस बार सरहद पार से. जहां सवाल नहीं गिरे, सिर्फ़ गोले बरसे. जहां किसी ने ये नहीं पूछा-तुम किस भगवान को पूजते हो? तुम्हारा नाम क्या है? मैं पुंछ बाज़ार में मोहम्मद हाफ़िज़ के घर के बाहर खड़ा था. तीन परिवार,और उनके सत्रह लोग एक ही छत के नीचे रहते थे जो अब नहीं रही. उनके घर की तीसरी मंज़िल पर सीधा गोला गिरा था. स्टोररूम जलकर राख बन गया. दो गैस सिलिंडर ऐसे मरोड़ खा गए थे जैसे कोई घायल लोहे का जानवर हो.

हाफ़िज़ ने हमें बताया-"उन्होंने मंदिर नहीं छोड़ा,मस्जिद नहीं छोड़ी, गुरुद्वारा भी नहीं छोड़ा." उनकी आवाज़ में ग़ुस्सा नहीं था… थकान थी, आगे कहा-  "वो धर्म पर नहीं, देश पर हमला करते हैं."

उन्होंने बताया- "रातभर फायरिंग चलती रही -पहाड़ों से किसी बेनाम राक्षस की तरह गरजती हुई. सुबह जब आई तो शांति नहीं और भी ज़्यादा धमाके लेकर आई. हाफिज बताते हैं कि हमारे 13 लोग मारे गए,50 से ज़्यादा घायल हुए हैं. मैंने ऐसी रात ज़िंदगी में कभी नहीं देखी…". वे कहते हैं-"मुझे बार-बार अटल जी के शब्द याद आते हैं, जो कहते थे-‘ये मुद्दा अब हमेशा के लिए सुलझ जाना चाहिए,बार-बार से अच्छा एक बार में हो जाए. हम थक चुके हैं अब. हर रात मौत के डर से जागते हैं. हर सुबह सोचते हैं-क्या हमारे बच्चे अगली सुबह देख पाएंगे?"" आज तो पाकिस्तान ने खुलकर किया है. ना मंदिर छोड़ा,ना मस्जिद,ना गुरुद्वारा.

राजौरी-पुंछ में जहां पाकिस्तान ने गोले बरसाए वहां सभी समुदाय के लोग मिल-जुल कर रहते हैं

राजौरी-पुंछ में जहां पाकिस्तान ने गोले बरसाए वहां सभी समुदाय के लोग मिल-जुल कर रहते हैं

हाफिज बड़ी गंभीरता से कहते हैं- इस आग ने ये नहीं पूछा-तुम किसको पुकारते हो? बस ये देखा-तुम हिंदुस्तानी हो." "जब वो हमला करते हैं-तो ना हिंदू देखते हैं,ना मुसलमान,ना सिख. वो सिर्फ़ 'भारत' को निशाना बनाते हैं. उन्होंने गीता भवन और अखाड़े को भी नहीं छोड़ा. हाफिज पूछते हैं-  वे किस मुंह से कश्मीर की बात करते हैं… कश्मीर तो हमारा है. ये देश हमारा है,ये सेना हमारी है, ये उनके बाप की नहीं है." वे बताते हैं-अब एक ही हल है-कश्मीर के दोनों हिस्सों को एक किया जाए"  

निरंजन ने मोहम्मद सादिक को बचाया

हाफिज से मिलने के बाद मैं सिंधी गेट,वार्ड नंबर 10 से गुज़रा-जहां दीवारें काली पड़ चुकी थीं,ईंटें चटक चुकी थीं,धुआं अब भी ठहरा था. लेकिन सबसे गहरा असर —उस तबाही की गंध का नहीं था,बल्कि भाईचारे की सांस का था. निरंजन सिंह,एक पड़ोसी —धमाका सुनते ही दौड़कर आए. "बस देखने आया था सब ठीक तो है?" किसी ने नहीं पूछा — घर में कौन था,किस धर्म का था? बस ये पूछा — "सब ठीक तो हैं ?" यहीं पर मोहम्मद सादिक ने कहा- "हमें पड़ोसियों ने बचाया है. "

"अल्लाह मेरे हिंदुस्तान की हिफ़ाज़त करे"

कुछ किलोमीटर दूर  जाने पर मेरी मुलाकात डिंगला के खलील अहमद से हुई. उनके चेहरे पर डर साफ़ दिखता था-वो डर जो कल्पना नहीं,हकीकत से उपजा होता है. उन्होंने बताया — "मैं ससुराल जा रहा हूँ क्योंकि ऐलान हुआ है कि यहां से निकल जाओ. डर लगता है… मेरे बच्चे हैं. हालांकि खलील ने उसी सांस में कहा- "अल्लाह मेरे हिंदुस्तान की हिफ़ाज़त करे." ये कोई राजनीतिक बयान नहीं था. ना ही दिखावा,बस एक इंसान की दुआ थी-जिसका घर अगला निशाना हो सकता था. जिसके पास बचाने को कुछ नहीं, सिर्फ़ एक मुल्क पर भरोसा था-जिसे वो अपना कहता है. 

यहां धमाकों के बीच सांसे गिनी जाती हैं

यहां पुंछ में जंग सिर्फ़ ख़बर नहीं, हकीकत है.खून,आग,खामोशी —कभी नहीं पूछते तुम कौन हो. जब धमाके हुए तो उन्हें बुझाने उनके हिंदू और सिख भाई आए. उस दौरान रातभर सिर्फ़ ड्रोन की आवाज़ गूंजती रही- एक अजीब-सी सनसनाहट…फिर बमबारी.दरअसल राजौरी और पुंछ में समय नहीं गिना जाता-बस धमाकों के बीच की सांसें गिनी जाती हैं. इन्हीं सांसों के बीच मैंने देखा मोहम्मद इंतिखाब आलम को. जो जम्मू-कश्मीर से नहीं थे, दूर दराज़ उन राज्यों के लोग जहां इस लड़ाई पर सार्वजनिक चर्चा आम है, जहां लोगों की भृकुटि तनी है, जुबान पर जंग की बाते हैं . वहां के इंतिखाब सिर्फ़ एक बैग लिए, सड़क पर चल रहे थे. बंगाल में उनके मां-बाप रो रहे थे-कह रहे थे वापस आ जाओ. उनसे कहा जा रहा था — अगर जिंदा रहे… तो फिर से कमा लोगे" मैंने पूछा-वापस आओगे? तो बोले-"क्यों नहीं, साहब? ये मेरा देश है." दिलबर आलम,शनगंज,बिहार से आए थे — परिवार के कहने पर जा रहे थे. लेकिन वादा कर गए कि "यहाँ के लोग अच्छे हैं. मैं वापस आऊँगा."

सीजफायर से पहले जब गोलीबारी लगातार जारी रहती थी तो रिपोर्टिंग करने में बेहद सावधानी बरतनी पड़ती थी.

सीजफायर से पहले जब गोलीबारी लगातार जारी रहती थी तो रिपोर्टिंग करने में बेहद सावधानी बरतनी पड़ती थी.

बमों से दूर धर्म पर बहस कर लेना बहादुरी नहीं...

यहां हमें कुछ ऐसे लोग भी मिले जो वापस नहीं जा पाए.राजकुमार थापा, एडिशनल डिवेलपमेंट कमिश्नर — सुबह 5:30 पर घर से निकले थे,गोला सीधा उन्हें ढूंढ लाया. घर, गाड़ी, ज़िंदगी — सब वहीं ख़त्म. साफ़ कहिए-हाँ,देश में युद्ध का माहौल है,हाँ,सीज़फायर पर सवाल हैं. लेकिन टीवी पर जंग देखना,शहरों में चाय की चुस्की लेते हुए बमों की गिनती करना वो कोई जंग नहीं होती.किसी टीवी स्टूडियो में बैठकर जंग को बहस बना देना कोई सच्चाई नहीं होती है.जब तुम बमों से मीलों दूर हो तब धर्म पर बहस कर लेना कोई बहादुरी नहीं होती. क्योंकि सरहद पर जब गोला गिरता है तो वो नहीं पूछता —
"तुम कौन हो? किसके आगे सजदा करते हो?" वो बस देखता है — "तुम हिंदुस्तानी हो और इसी के लिए वो शख्स निशाना बन जाता है. जो LOC पर रहते हैं उनके लिए ये राजनीति नहीं… ये जिंदगी और मौत का सवाल है. ये उनकी जली हुई छत, उनका दफनाया गया बच्चा, उनकी टूटी हुई खिड़की है.और फिर भी ये उनका ना मिटने वाला देशप्रेम है. 

क्या हिंसा हमें एक करती है और शांति अलग?

जब मैं राजौरी से लौटा तो फर्क ने जैसे थप्पड़ मारा हो. दिल्ली के पास ढाबों में गाने बज रहे थे, पराठे सिक रहे थे,एयरपोर्ट पर हंसी बिखरी थी. भोपाल में लोग चाय पी रहे थे,बच्चे दौड़ रहे थे,आसमान साफ़ था. और मैंने सोचा —क्या बमों की आवाज़ दूरी से धीमी हो जाती है? क्या दर्द मीलों में बंट जाता है? या फिर… हम सुनना ही नहीं चाहते? क्योंकि राजौरी और पुंछ में ना कोई डिबेट थी, ना कोई हैशटैग. बस एक पहचान थी-हिंदुस्तानी. बस एक तमन्ना थी-शांति. और अब भी मैं खुद से पूछ रहा हूं-हम किस तरह का देश बन गए हैं,जहां अशांति, हिंसा हमें एक करती है… लेकिन शांति हमें अलग?

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