
- केदारनाथ, रामेश्वरम, चिदंबरम जैसे आठ शिव मंदिर जल, ऊर्जा और खाद्य उत्पादकता वाले उन्नत क्षेत्रों में स्थित हैं
- IIT रुड़की के शोध के अनुसार इन मंदिरों के आसपास सालाना चावल का उत्पादन 44 मिलियन टन तक संभव है
- मंदिरों के स्थान स्थलाकृति, वन आवरण, वर्षा, मृदा स्वास्थ्य और कृषि आंकड़ों के आधार पर चुने गए थे
अगर मैं आपसे कहूं कि केदारनाथ , कालेश्वरम , श्रीशैलम, कलवियूर, रामेश्वरम, चिदंबरम, कांचीपुरम और तिरुवन्नमलाई जैसे मंदिर सिर्फ यहां होने वाली पूजा-पाठ के लिए ही नहीं है बल्कि इस क्षेत्र की उत्पादकता की वजह से भी खास हैं, तो आपको शायद ही मेरी बातों पर भरोसा हो. लेकिन IIT रुड़की और अमृता विश्व विद्यापीठम की हालिया रिसर्च ने इस लेकर बड़ा दावा किया है. इस रिसर्च में दावा किया गया है कि इन मंदिरों को खासतौर पर उन्हीं इलाकों में बनाया गया है जहां पानी, ऊर्जा और खाद्य उत्पादकता के लिहाज से आसपास के इलाके से सबसे उन्नत थे. यानी अगर कहा जाए कि इन मंदिरों को उन ही इलाकों में बनाया गया जहां दूसरे क्षेत्रों की तुलना में ज्यादा उत्पादक थे तो इसमें कुछ भी गलत नहीं होगा.

IIT रुड़की के इस अध्ययन में पाया गया कि 1350 ईस्वी से पहले निर्मित आठ प्राचीन शिव मंदिर जल, ऊर्जा और खाद्य उत्पादकता की प्रबल संभावनाओं वाले क्षेत्रों में स्थित थे. शोधकर्ताओं के अनुसार शिव शक्ति अक्ष रेखा (SSAR) क्षेत्र के 18.5% भू-भाग - जहां ये मंदिर स्थित हैं. इन मंदिर के पास अगर खेती की जाए तो सालाना 44 मिलियन टन तक चावल का उत्पादन किया जा सकता है. साथ ही साथ अगर नवीकरणीय ऊर्जा की बात करें तो यहां से लगभग 597 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन हो सकता है. इससे भारत के विकास को और तेजी से बढ़ाने में मदद मिल सकती है.
सालाना 44 मीट्रिक टन चावल का हो सकता है उत्पादन
इस अध्ययन में पाया गया है कि ये सभी मंदिर पारिस्थितिक संतुलन समृद्ध हैं. शोधकर्ताओं ने भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) भू-स्थानिक विश्लेषण का उपयोग करके मंदिरों के स्थानों को स्थलाकृति, वन आवरण, वर्षा, मृदा स्वास्थ्य और कृषि आंकड़ों के साथ जोड़ा है. आपको बता दें कि जिस बेल्ट में ये मंदिर स्थित हैं, उसके 18.5% भू-भाग पर सालाना 44 मीट्रिक टन चावल का उत्पादन हो सकता है. ये सभी आठ मंदिरों का निर्माण न केवल आध्यात्मिक और सामाजिक पहलुओं को ध्यान में रखकर किया गया था, बल्कि संसाधनों की उपलब्धता और कृषि उर्वरता को भी ध्यान में रखकर किया गया था. मंदिर निर्माण प्राकृतिक संसाधन वितरण की वैज्ञानिक समझ को दर्शाता है.

पहले का फॉरेस्ट एरिया और घना था
इस अध्ययन से पता चला है कि उस काल में वन क्षेत्र (फॉरेस्ट एरिया) आज की तुलना में लगभग 2.4 गुना अधिक सघन था, जिसके परिणामस्वरूप मृदा धारण क्षमता बेहतर हुई और पारिस्थितिक स्थिरता भी बेहतर हुई. हालांकि बारिश की मात्रा वर्तमान स्तर से भिन्न थी, फिर भी उनका भौगोलिक वितरण काफी हद तक स्थिर रहा, जिससे सदियों तक विश्वसनीय कृषि परिस्थितियां सुनिश्चित रहीं. मंदिरों के स्थान सीधे उन क्षेत्रों से संबंधित थे जहां सालभर जल स्रोतों, उपजाऊ भूमि और जलविद्युत या सौर ऊर्जा उत्पादन की क्षमता थी.शोधकर्ताओं ने स्थिरता से जुड़े प्राकृतिक पैटर्न की पहचान करने के लिए सुदूर संवेदन और साहित्य सर्वेक्षणों को संयोजित किया.

नेचर पोर्टफोलियो द्वारा ह्यूमैनिटीज एंड सोशल साइंसेज कम्युनिकेशंस में प्रकाशित इस शोध ने सुझाव दिया कि भारत के एनसिएंट प्लानिंग मॉडल माइथोलॉजी (कथाओं) से गहराई से जुड़े हुए हैं. और समकालीन विकास के लिए पारिस्थितिकी (इकोलॉजी फॉर कंटेम्पररी डेवलपमेंट) टेम्पलेट के रूप में काम कर सकते हैं. साथ ही कहा गया है कि भारत का लक्ष्य 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन का है, और अकेले SSAR बेल्ट की अनुमानित उत्पादन क्षमता इस लक्ष्य के दसवें हिस्से से भी अधिक योगदान दे सकती है.
IIT रुड़की के जल संसाधन विकास एवं प्रबंधन विभाग के प्रोफ़ेसर केएस काशिविश्वनाथ, जो इस अध्ययन के प्रमुख लेखक हैं, ने कहा कि यह ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि से कहीं अधिक प्रदान करता है. इन मंदिर स्थलों के पीछे का विज्ञान हमें अपनी विरासत से प्राप्त स्थायी योजना का खाका प्रदान करता है. ये निष्कर्ष केवल पुरातात्विक नहीं हैं. ये आधुनिक भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रति सहनशीलता और संसाधन सुरक्षा के लिए अत्यंत प्रासंगिक हैं. टीम ने निष्कर्ष निकाला कि मंदिर स्थल न केवल पवित्र थे, बल्कि पारिस्थितिक रूप से उत्पादक परिदृश्यों के अनुरूप रणनीतिक रूप से चुने गए थे.
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