
- भोपाल के हमीदिया अस्पताल में रोजाना कई लावारिस शव आते हैं, जिन्हें अंतिम संस्कार के लिए विश्राम घाट भेजा जाता है.
- भदभदा विश्राम घाट पर कई लावारिस शवों को आधे फीट गड्ढे में बिना धार्मिक अनुष्ठान के दफनाया दिया जाता है.
- पिछले यहां चार से छह हजार लावारिस शव दफन हो चुके हैं. कई बार एक ही गड्ढे में दो शव रखे दिए जाते हैं.
भोपाल के हमीदिया अस्पताल से हर दिन कई लावारिस लाशें निकलती हैं, बिना किसी नाम और बिना किसी पहचान के. इनके लिए कोई रोने वाला भी नहीं होता. इन लाशों को सही से अंतिम संस्कार भी नसीब नहीं होता. NDTV की टीम ने 10 दिन तक इन लाशों की आख़िरी यात्रा को रिकॉर्ड किया तो मरे हुए सिस्टम की दर्दनाक कहानी सामने आई. भदभदा विश्राम घाट पर लावारिस शवों के साथ होने वाला अमानवीय व्यवहार सिस्टम की संवेदनहीनता को उजागर करने के लिए काफी है.
रोज अस्पताल में आते हैं लावारिस शव
हर रोज कई लावारिस शव हमीदिया अस्पताल के मुर्दाघर में पहुंचते हैं जिन्हें दफनाने के लिए भेज दिया जाता है. अस्पताल में मुर्दाघर के कर्मचारी दीपक रैकवार ने बताया कि रोजाना करीब 5-7 लावारिस शव आते हैं. कई बार नहीं भी आते. इनमें भिखारी या बीमारी से मरे लोग शामिल होते हैं. इन्हें कोई पूछने वाला नहीं होता. हम इन्हें पुलिस को सौंप देते हैं. एंबुलेंस से इन शवों को विश्राम घाट पहुंचाया जाता है.
एक अकेला मजदूर श्मशान में दफनाता है
NDTV की टीम ने 10 दिनों तक इन एंबुलेंसों का पीछा किया. देखा कि किस तरह बिना किसी धार्मिक प्रक्रिया के, बिना परिजनों के ये शव विश्राम घाट पहुंचते हैं. भदभदा विश्राम घाट पर कहने को पुलिसकर्मी रहते हैं, लेकिन शवों को अकेला एक मज़दूर दफनाता है. कई बार मजदूर को शव दफनाने के 300 से 600 रुपये दे दिए जाते हैं. कई बार पुलिसवाले अपनी जेब से भी पैसे देते हैं.
न मंत्र, न आग... आधे फीट गड्ढे में दफन
भदभदा घाट पर हर रोज लावारिस लोगों की मौत का मज़ाक बनता है. इंसानों को बिना किसी धार्मिक रीति-रिवाज के, बिना परिजनों की मौजूदगी के, महज आधे फीट के गड्ढे में दफ़न कर दिया जाता है. ना कोई मंत्र, ना अग्नि, ना श्मशान की गरिमा का ख्याल रखा जाता है. कई बार शव को ज़मीन पर घसीटा जाता है. एक ही गड्ढे में दो-दो शव ठूंस दिए जाते हैं. कुत्ते बाहर निकली हड्डियों को चबाते नजर आते हैं.
6000 तक लाशें दफन हैं यहां
पूर्व चौकीदार सरोज ने बताया कि 25 साल हो गए. पहले मैं शवों को दफनाता था. शव दफनाने के लिए कमर के बराबर गड्ढा करते थे. अब आधे फीट में काम चलता है. ये लाशों का जंगल है. रोज़ 2-3 गड्ढे खोदे जाते हैं. कई बार पहले से दफन लाश के ऊपर ही नई बॉडी डाल देते हैं. अब शव के लिए 600 रुपये मिलते हैं. पुलिसवाले दारू भी दे देते हैं. सरोज बताते हैं कि 4000 से 6000 लाशें यहां दफन हो चुकी हैं.
कपड़े ही बन जाते है लाशों के कफन
कई बार लोग अपने लापता परिजनों की तलाश के लिए इस श्मशान में आते हैं. उनकी पहचान की आखिरी उम्मीद होती है वो कपड़े, जो मौत के वक्त उसने पहने होते हैं. वही उनके लिए कफन बन जाता है. पूर्व चौकीदार सरोज बताते हैं कि ऐसे लावारिस लोग जो कपड़े पहनकर मरते हैं, वही उनका कफन बन जाता है. उसी से उसकी पहचान होती है.
एनडीटीवी को पता चला कि 20 साल पहले दो ट्रक भरकर हड्डियां यहां से हरिद्वार भेजी गई थीं, लेकिन उसके बाद न कोई रजिस्टर बना और न ही कोई रिकॉर्ड रखा गया. सरोज बताते हैं कि 20 साल पहले दो ट्रक हड्डी हरिद्वार ले गए थे, उसके बाद कुछ नहीं हुआ.
अंत्येष्टि के लिए 3 हजार देने का नियम
राज्य सरकार ने 2013 में अंत्येष्टि सहायता योजना शुरू की थी. इसके तहत लावारिस और और बेहद गरीब लोगों के शवों के अंतिम संस्कार के लिए 3000 रुपये देने का प्रावधान है. लेकिन इसके लिए नगर निगम या जनपद पंचायत में आवेदन देना होता है. पुलिस का पंचनामा, पोस्टमार्टम रिपोर्ट, एफआईआर और मृत्यु प्रमाण पत्र साथ में लगाना होता है. सवाल ये है कि लावारिस लाशों के लिए इतनी जहमत कौन उठाए?
अधिकारी बोले, कुछ गलत है तो जांच कराएंगे
भोपाल के पुलिस कमिश्नर हरिनारायणचारी मिश्रा से जब पूछा गया तो उनका कहना था कि शवों के अंतिम संस्कार के लिए नगर निगम पैसे देता है. अगर कुछ गलत हो रहा है तो जांच कराई जाएगी. कलेक्टर कौशेलेंद्र विक्रम सिंह कहते हैं कि नगर निगम के पास अंतिम संस्कार के लिए राशि जारी करने का प्रावधान है. अगर राशि नहीं दी जा रही है तो जांच कराएंगे. व्यवस्था को बेहतर बनाएंगे.
अंत्येष्टि योजना की ये है सच्चाई
हालांकि नगर निगम के कमिश्नर हरेन्द्र नारायण साफ करते हैं कि अंत्येष्टि योजना के तहत 3000 रुपये की राशि शवों के वारिसों को क्रियाकर्म के लिए दी जाती है. लावारिस शवों के लिए कोई प्रावधान नहीं है. भोपाल के सांसद आलोक शर्मा मानते हैं कि शवों को कुत्ते खाते हैं, ये सच्चाई है. उन्होंने कहा कि मैं खुद मौके पर जाकर हालात का जायजा लूंगा.
कफन के घोटालेबाज
बात सिर्फ अंतिम संस्कार में दुर्दशा की नहीं है, इन शवों के लिए कफन-दफन का इंतज़ाम करने वालों को भी घोटालेबाज़ों ने नहीं बख्शा है. हमीदिया अस्पताल परिसर में प्रेरणा सेवा ट्रस्ट 30 साल से गरीबों के लिए भोजन और लावारिस शवों के लिए कफन का इंतजाम कर रहा है. रोज 14-15 लोग यहां से कफन ले जाते हैं, लेकिन आपको जानकर हैरत होगी कि कई बार यहां से मुफ्त में कफन लेकर बाज़ार में 1000-1200 रुपये में बेच दिए जाते हैं.
प्रेरणा सेवा ट्रस्ट की अध्यक्ष रश्मि बावा कहती हैं कि पहले हम सिर्फ नाम पूछते थे. लेकिन फिर हमें पता चला कि यहां से कफन लेकर जाकर कुछ लोग 1000-1200 रुपये में बेच देते थे. इसके बाद हम नाम और फोन नंबर पूछने लगे.
सवाल गहरा है कि ज़िंदगी ने जिन्हें कुछ नहीं दिया, मौत के बाद भी उन्हें तिरस्कार ही नसीब हो रहा है. भदभदा विश्राम घाट अब श्मशान नहीं, गुमनाम मौतों का जंगल बन चुका है जहां हर रोज इंसानियत दफन होती है.
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