- असम में 1983 की हिंसा की रिपोर्टों के फिर से सामने आने के बाद 2026 का विधानसभा चुनाव नई दिशा ले सकता है.
- हिमंत सरकार इसे 'असमिया पहचान' और 'अवैध प्रवासियों' के संदर्भ में पेश कर रही है, जिससे BJP को फायदा हो सकता है
- कांग्रेस और विपक्ष पर राजनीतिक दबाव बढ़ रहा है और पूरे चुनाव में उन्हें बचाव की मुद्रा में रहना पड़ सकता है.
असम में 1983 की हिंसा की रिपोर्टों के फिर से सामने आने के बाद 2026 का विधानसभा चुनाव नई दिशा ले सकता है. हिमंत सरकार इस मुद्दे को 'असमिया पहचान' और 'अवैध प्रवासियों' के संदर्भ में पेश कर रही है, जिससे बीजेपी को वोटों का फायदा मिल सकता है. दूसरी ओर, कांग्रेस और विपक्ष पर राजनीतिक दबाव बढ़ रहा है और उन्हें पूरे चुनाव में बचाव की मुद्रा में रहना पड़ सकता है. इस कदम से पहचान-आधारित वोटिंग, समुदायों के ध्रुवीकरण और नए गठबंधनों की संभावनाएं उभर सकती हैं.
'असमिया पहचान' सबसे बड़ा चुनावी हथियार
जब हिमंत सरकार ने 1983 के दंगों की रिपोर्टें विधानसभा में रखी तो उसका सीधा संदेश यही था कि वो यह संदेश देना चाहती थी कि 'असम की पहचान पर खतरा पहले भी था, आज भी है.'
असम की आबादी के एक बड़े हिस्से में मतदाताओं के बीच अवैध प्रवासन, जमीन पर कब्जा, जनसंख्या संतुलन जैसे मामले बेहद संवेदनशील मुद्दे माने जाते हैं.
पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य के मठों की जमीन से अतिक्रमण हटाना बीजेपी का प्रमुख चुनावी मुद्दा था. असम विधानसभा में पेश किए गए सरकारी आंकड़ों के अनुसार मई 2021 में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के नेतृत्व में राज्य में दोबारा बीजेपी की सरकार बनने के बाद से सरकारी जमीन पर कथित रूप से अतिक्रमण करने वाले कुल 4449 परिवारों को बेदखल किया गया था.
अब पुरानी रिपोर्टों की बातों को उजागर करने से राज्य में मतदाताओं की भावनाएं फिर जाग सकती हैं, जिससे बीजेपी और हिमंत सरकार को राजनीतिक फायदा मिल सकता है, क्योंकि वे पिछले कई सालों से यही मुद्दे प्रमुखता से उठा रहे हैं.
कांग्रेस पर सीधा वार — बचाव में फंस सकता है विपक्ष
तिवारी रिपोर्ट में हिंसा की जिम्मेदारी छात्र संगठनों और उस समय की राजनीतिक स्थितियों पर डाली गई है, लेकिन हिंसा के समय सत्ता में कांग्रेस थी.
इससे BJP को मौका मिलता है कि वह कह सके कि, “कांग्रेस के समय सबसे बड़ा नरसंहार हुआ, किसी को सजा नहीं मिली.”
विपक्ष का डर यह है कि उसे पूरे चुनाव में यही सफाई देनी पड़ेगी, असम आंदोलन और 1983 की हिंसा की जिम्मेदारी से बचना मुश्किल होगा, उसके अपने परंपरागत वोटरों में भ्रम फैल सकता है. यानी यह कांग्रेस के लिए राजनीतिक रूप से नुकसानदायक बन सकता है.
गहरी हो सकती है ध्रुवीकरण की राजनीति
पुरानी रिपोर्टें आने से दो तरह के वोटर एक्टिव हो सकते हैं- एक जो असम से मूल निवासी है और जिन्हें घुसपैठ का डर है. तो दूसरे वो जो अल्पसंख्यक और प्रवासी पृष्ठभूमि के वोटर है और उन्हें डर है कि उन्हें फिर से निशाना बनाया जाएगा. इससे चुनाव में भावनात्मक वोटिंग और पहचान आधारित वोटिंग काफी बढ़ सकती है. यह स्थिति आमतौर पर सत्ताधारी बीजेपी के पक्ष में जाती है, क्योंकि पहचान और प्रवासन वाले मुद्दों पर उनकी पकड़ मजबूत है.
गठबंधन राजनीति में हो सकता है बदलाव- क्षेत्रीय दल अहम होंगे
असम में AIUDF, AGP जैसे क्षेत्रीय दलों का अपना एक खास वोट बैंक है. कुछ खास समुदायों में वो आज भी बेहद मजबूत हैं. 1983 दंगों की रिपोर्ट सामने आने के बाद मुस्लिम वोटों का एक हिस्सा AIUDF की तरफ और तेजी से रुख कर सकता है, तो असमिया और जनजातीय वोट BJP–AGP गठबंधन की ओर खिंच सकते हैं. वहीं इन रिपोर्ट्स को सामने लाने से निशाने पर आई कांग्रेस के लिए गठबंधन बनाना मुश्किल हो सकता है. यानी, चुनावी गठबंधन और साफ और ध्रुवीकरण पर आधारित हो सकता हैं.
2026 के असम विधानसभा चुनाव में कुल असर क्या होगा?
इन मुद्दों को सामने लाने का सीधा फायदा BJP के पक्ष में दिखता है क्योंकि मुद्दा उनकी राजनीतिक लाइन से मेल खाता है. उन्हें इतिहास को 'ठीक करने' और 'सच्चाई सामने लाने' के बहाने विपक्ष को घेरने का सबसे कारगर हथियार मिला है. इससे विपक्ष यानी कांग्रेस रक्षात्मक स्थिति में आ जाएगी. इन मुद्दों के सामने से आने पर खुद कांग्रेस भी यह डर जता रही है. यानी सरकार का यह कदम चुनाव से ठीक पहले 1983 की यादों को ताजा करके जनता की भावनाओं को जागृत कर एकतरफा माहौल बना सकता है.
मतदाता इस मुद्दे को सुरक्षा, पहचान, अवैध प्रवासन के नजरिए से देख सकते हैं, जिससे असम की राजनीति का पूरा नैरेटिव चुनाव तक इसी मुद्दे पर टिक सकता है.
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