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This Article is From Jun 06, 2019

नई शिक्षा नीति में हिंदी थोपने को लेकर समिति के प्रमुख कस्तूरीरंगन ने कहा, कभी नहीं थी ऐसी मंशा

दक्षिण भारत में भाषा एक संवेदनशील मुद्दा है और यहां के कई राज्य उन पर हिंदी लागू करने के किसी भी प्रयास का विरोध करते हैं.

नई शिक्षा नीति में हिंदी थोपने को लेकर समिति के प्रमुख कस्तूरीरंगन ने कहा, कभी नहीं थी ऐसी मंशा
कृष्णास्वामी कस्तूरीरंगन नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिये गठित की गई समिति के प्रमुख है.
नई दिल्ली:

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हिंदी की अनिवार्यता को लेकर दक्षिण भारत के गैर हिंदी भाषी राज्यों में विरोध जारी है. इसी बीच इसरो के पूर्व प्रमुख और शिक्षाविद कृष्णास्वामी कस्तूरीरंग(Krishnaswamy Kasturirangan) ने स्पष्ट किया है कि हिंदी को थोपने का कोई प्रयास नहीं किया गया है. वह नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिये गठित की गई समिति के प्रमुख है. कई राजनीतिक दलों, खासकर तमिलनाडु के दलों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में तीन भाषा के फॉर्मूले का विरोध करते हुए कहा था कि यह गैर-हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी भाषा थोपने के बराबर है.

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कस्तूरीरंगन ने जोर दिया कि हिंदी को थोपने की कोशिश कभी नहीं की गई है. वैज्ञानिक कस्तूरीरंगन ने बताया , हमारे पास दो स्वीकृत संस्करण थे, जिसमें से एक शिक्षा नीति की भावना को व्यक्त नहीं करता था , जैसा रूप हम देने की कोशिश कर रहे थे. हमने इसे उस पैरा से बदल दिया जिसमें हिंदी का उल्लेख नहीं था. उन्होंने कहा , " हिंदी थोपने की मंशा कभी नहीं थी. 1968, 1986, 1992 और मौजूदा शिक्षा नीति के बीच मुख्य अंतर यह है कि पहले की नीतियों में तीन भाषा फॉर्मूला स्वीकार्य है , लेकिन नई नीति में लचीलापन है. "

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विवाद बढ़ने के बाद केंद्र ने शिक्षा नीति के मसौदे में सुधार करते हुए गैर - हिंदी राज्यों में हिंदी पढा़ने के अनिवार्य प्रावधान को हटा दिया है. रविवार को केंद्र सरकार ने अपना बचाव करते हुए कहा था कि किसी भी राज्य पर हिंदी थोपी नहीं जाएगी. इसके बाद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Nirmala Sitharaman) और विदेश मंत्री एस जयशंकर (S Jaishankar) ने इस मामले में अपने ट्विटर पर संदेश प्रसारित किए और यह भरोसा दिलाया कि इस ड्राफ्ट को अमल में लाने से पहले इसकी समीक्षा की जाएगी.

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बता दें  दक्षिण भारत में भाषा एक संवेदनशील मुद्दा है. यहां के कई राज्य उन पर हिंदी लागू करने के किसी भी प्रयास का विरोध करते हैं.  1965 में जब लाल बहादुर शास्त्री सरकार द्वारा पहली बार तीन-भाषा फार्मूला प्रस्तावित किया गया था, उस वक्त पूरे तमिलनाडु में बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू हुए थे. कर्नाटक में भी 2017 में इसी तरह का विरोध प्रदर्शन हुआ था, जिसमें लोगों ने बेंगलुरु रेलवे स्टेशनों पर लगे तीन-भाषा के साइनबोर्ड्स को नुकसान पहुंचाया था. 

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