इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में कहा है कि दीवानी विवादों को आपराधिक कृत्यों का रंग नहीं दिया जा सकता है. इस तरह से अदालत ने दीवानी विवाद में आपराधिक मुकदमे को रद्द कर दिया. न्यायमूर्ति समीर जैन ने फर्रुखाबाद के राघवेंद्र सिंह और तीन अन्य लोगों द्वारा दायर याचिका स्वीकार करते हुए यह व्यवस्था दी. याचिकाकर्ताओं ने फर्रुखाबाद के अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में अपने खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 420, 468, 471, 506 और 120बी के तहत चल रहे आपराधिक मुकदमे को चुनौती दी थी.
इन आरोपों पर गौर करने के बाद अदालत ने कहा, “मैं पाता हूं कि प्रतिवादी ने एक विशुद्ध दीवानी विवाद को आपराधिक रंग दिया है. आरोपों के मुताबिक, फर्जी वसीयत के आधार पर दाखिल खारिज की प्रक्रिया आवेदकों के पक्ष में समाप्त हुई, लेकिन ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है कि 30 नवंबर, 2000 की तिथि की पंजीकृत वसीयत फर्जी है.” अदालत ने कहा, “इसलिए इस मामले को लेकर केवल सक्षम सिविल कोर्ट निर्णय कर सकती है कि विवादास्पद वसीयत फर्जी है या नहीं, लेकिन प्रतिवादी ने इस वसीयत को रद्द करने के लिए कोई वाद दायर नहीं किया.”
अदालत ने यह भी कहा कि उच्चतम न्यायालय ने इस व्यवस्था को हतोत्साहित किया है कि यदि विवाद की प्रकृति विशुद्ध रूप से दीवानी है और यह सक्षम अदालत द्वारा साक्ष्य के आधार पर तय की जा सकती है तो आपराधिक मुकदमे को जारी रखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. अदालत ने बृहस्पतिवार को आपराधिक मुकदमे को खारिज करते हुए कहा कि मौजूदा मामले में प्रश्न यह है कि 30 नवंबर, 2000 की तिथि की वसीयत फर्जी है या नहीं, इसे सक्षम सिविल कोर्ट द्वारा साक्ष्य और दस्तावेजों के जरिए तय किया जा सकता है. लेकिन शिकायतकर्ता ने किसी सिविल कोर्ट के समक्ष इस वसीयत को चुनौती नहीं दी.
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