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बिहार में पलायन चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता, आखिर क्‍यों मौन हैं राजनेता?

पलायन को पूर्णतः नहीं रोका जा सकता है लेकिन सरकार और समाज ज़िद कर ले, तो हर घर सूक्ष्म उद्योग, हर गांव लघु उद्योग, तो अवश्य ही आर्थिक स्थिति को ठीक कर सकता है. लेकिन सरकार के पास विजन की कमी है.

बिहार में पलायन चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता, आखिर क्‍यों मौन हैं राजनेता?
पलायन के विषय पर मौन क्‍यों राजनेता?
  • बिहार से पलायन की सबसे बड़ी वजह रोजगार की कमी है, लेकिन यह विधानसभा चुनाव में प्रमुख मुद्दा नहीं बन पाया है
  • राजनेता पलायन पर सवाल उठाने से बचते हैं, क्योंकि इससे उनकी राजनीतिक स्थिति प्रभावित हो सकती है
  • छठ पूजा के दौरान बिहार-दिल्ली रूट पर लाखों लोग आते हैं और यह प्रवासन का बड़ा प्रमाण है
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पटना:

बिहार में पलायन चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनता है? इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत में जिस राज्‍य से लोग सबसे ज्‍यादा पलायन करते हैं, वो बिहार है. इसकी सबसे बड़ी वजह रोजगार का न होना है. लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव में पलायन 'चुनावी मुद्दा' नहीं बन पाया है. 'जन सुराज पार्टी' के प्रशांत किशोर ने इसपर आवाज़ उठाई, लेकिन बहुत प्रैक्टिकल एप्रोच नहीं होने के कारण उतना असर नहीं किया, जितना होना चाहिए. बीच में वो न जाने किस कारण से थोड़े मौन भी हो गए. 

पलायन के विषय पर मौन क्‍यों राजनेता?

पिछले 75 वर्षों से सत्ता भोग रहे राजनेता इस मुद्दे पर सवाल क्यों उठायेंगे? कारण स्पष्ट है कि उंगली उनके तरफ़ मुड़ेगी, तो बड़ी आसानी और सावधानी से लगभग सभी दल के राजनेता इस पलायन के विषय पर मौन ही नहीं होते हैं, बल्कि सावधानी से समस्त विषय को बिहार में सरकारी नौकरी का प्रलोभन, धर्म, जाति और न जाने कितने अन्य कारकों की तरफ़ जनता को ठेल देते हैं. 

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छठ पूजा पर लाखों लोग आ रहे बिहार

ख़बर है कि सिर्फ़ मुजफ्फरपुर आने के लिए इस छठ पूजा में  क़रीब 12.90 लाख टिकट काटे गए रेलवे द्वारा. पटना का आंकड़ा 23 लाख से ऊपर है और क़रीब 50% लोग वापस बिहार दिल्ली रूट से आ रहे हैं. यह आंकड़ा मैं नहीं लिख रहा, बल्कि बिहार के अख़बारों में छपा है. इधर दिल्ली बिहार के बढ़िया हाईवे बनने के बाद मेरा अनुमान है की करीब 1 लाख कारें बिहार में सिर्फ़ उत्तर भारत से प्रवेश करेंगी. ये वो मिडिल क्लास हैं, जो कुछ वर्ष बिहार से बाहर रह अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत किए हैं. मैंने छठ के मौके पर गुजरात तक से कारें आते अपने गांव में देखी हैं.

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बिहार के प्रमुख शहरों के आसपास के गांव में पलायन की प्रतिशत कम है, लेकिन ज़िला मुख्यालय से दूर वाले गांव में कोई चारा नहीं रहने के कारण कई टोले तो पूर्णतः शून्य है. लेकिन यह स्थिति पटना के अपर मिडिल क्लास में भी ज़्यादा है. सन 2018/19 में नीतीश कुमार ने स्वयं एक भाषण में कहा की बिहार के बड़े शहरों में पुरानी पीढ़ी ने बड़े-बड़े मकान बनाए, लेकिन अब उसी बड़े हालात में उनकी नई पीढ़ी रहने को तैयार नहीं है. 

पलायन को पूर्णतः नहीं रोका जा सकता

मेरे गोपालगंज का संजीत आईटीआई में पढ़कर नोएडा की सोसाइटी में इलेक्ट्रीशियन है. डबल ड्यूटी कर के कुछ कमाता है और जमा पैसा लेकर होली, छठ में गांव आता है. ऐसी स्थिति लगभग समस्त एनसीआर की है. आप टैक्सीवालों को देखें, तो हर तीसरा कैब ड्राइवर बिहारी होगा. पलायन को पूर्णतः नहीं रोका जा सकता है लेकिन सरकार और समाज ज़िद कर ले, तो हर घर सूक्ष्म उद्योग, हर गांव लघु उद्योग, तो अवश्य ही आर्थिक स्थिति को ठीक कर सकता है. लेकिन सरकार के पास विजन की कमी है और समाज के पास बिहार त्यागने के अलावा कोई और उपाय नहीं है. 

मजबूरी में किया गया पलायन बहुत दर्द देता है. एक समस्त पीढ़ी ख़ुद को नई जगह में स्वाहा कर देती है. एक नई छत बनाने में जीवन ख़त्म हो जाता है. इधर, बिहार भी छूट जाता है.

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