
- बिहार चुनाव में साथ यूपी-बिहार के सीमावर्ती इलाकों की भौगोलिक सीमाएं भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी
- यूपी के सीमावर्ती जिलों की बोली, रहन-सहन और खान-पान बिहार के पश्चिमी जिलों के साथ काफी हद तक मेल खाते हैं
- अगड़ा वोट बैंक पर भाजपा का प्रभाव मजबूत है, लेकिन भूमिहार और राजपूत वर्ग में कुछ असंतोष और हलचल देखी जा रही है
बिहार विधानसभा चुनाव बस कुछ महीनों दूर हैं. ऐसे में सीटों की साझेदारी फाइनल करने के साथ ही गठबंधन के दल सियासी समीकरण साधने में जुटे हैं. लेकिन जातीय गोलबंदी, गठबंधन के साथ भौगोलिक सीमाएं भी बिहार चुनाव में अहम फैक्टर साबित हो सकती हैं. बिहार विधानसभा की करीब 38 सीटें हैं, जो यूपी की सीमा से लगती हैं. ये सीटें बिहार के 8 जिलों सीवान, सारण, भोजपुर, पश्चिमी चंपारण, गोपालगंज, बक्सर, कैमूर और रोहतास में फैली हैं. उत्तर प्रदेश के 7 जिले महाराजगंज, कुशीनगर, देवरिया, गाजीपुर, चंदौली और सोनभद्र की सीमाएं बिहार के सीवान, छपरा, गोपालगंज, पश्चिमी चंपारण जैसे जिलों से लगती हैं.
दोनों राज्यों के सीमावर्ती इलाकों की बोली भोजपुरी, रहन-सहन और ताना-बाना भी लगभग एक जैसा है. पूर्वांचल और पश्चिमी बिहार के जातीय समीकरण भी कुछ हद तक मेल खाते हैं. राजनीतिक विश्लेषक अरविंद मोहन का कहना है कि बिहार में बगहा से सासाराम तक काफी सीटें हैं जो सीमावर्ती उत्तर प्रदेश के जिलों से लगती हैं. गंडक और गंगा किनारे के इस इलाके में जातीय समीकरणों की बात करें तो राजपूत और रविदास समाज का वोट पर यूपी की राजनीति का असर पड़ता रहा है.
रविदास समुदाय का वोट
बसपा प्रमुख मायावती का रविदास वोट बैंक पर असर रहा है. बिहार के इन इलाकों में दुसाध बनाम रविदास यानी दलित बनाम महादलित का फैक्टर भी असर डालता है. यही वजह है कि बसपा ने यहां कई चुनाव में कुछ सीटें जीती हैं, लेकिन इसे एकमात्र फैक्टर नहीं माना जा सकता.
अगड़ा वोट बैंक कितना बीजेपी के साथ
अगड़े वोट बैंक की बात करें तो ब्राह्मण, वैश्य, राजपूत-भूमिहार वोट काफी हद तक बीजेपी के साथ रहा है, लेकिन उनमें भी इस बार थोड़ी बहुत बेचैनी है. भाजपा की राजनीति पिछड़ों के इर्द गिर्द घूम रही है. भले ही विजय कुमार सिन्हा डिप्टी सीएम हों, लेकिन अगड़ा वोट बैंक खुद को उस प्रभावी भूमिका में नहीं देख पा रहा है.
प्रशांत किशोर फैक्टर
अरविंद मोहन का कहना है कि अगड़ों में भूमिहार और राजपूत में भी थोड़ा असंतोष है. खासकर प्रशांत किशोर ने जो मेहनत की है, उससे सवर्ण वोट में थोड़ी हलचल है. 35 साल से लालू-नीतीश की जगह नई पॉलिटिक्स को लेकर युवाओं में थोड़ी सोच बदली है.
किसी भी क्षेत्रीय दल का दोनों राज्यों में दबदबा नहीं
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी नेता मुलायम सिंह यादव ने बिहार में पैठ बनाने की भरसक कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं रहे. मायावती को थोड़ी बहुत सफलता मिली, लेकिन सत्ता से दूरी और उनके राजनीतिक ग्राफ में गिरावट के साथ यह भी पूरे राज्य में नहीं फैल सका. नीतीश कुमार की अगुवाई वाली जेडीयू और लालू यादव की राजद ने भी उत्तर प्रदेश में पैर पसारने का प्रयास किया, लेकिन बेअसर साबित हुए. जैसे यूपी में जाटों के बड़े नेता चौधरी चरण सिंह का हरियाणा में और देवीलाल यूपी में कोई बड़ा असर नहीं डाल सके.
योगी फैक्टर का रहेगा असर
अरविंद मोहन ने कहा कि यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक राजपूत नेता और हिंदुत्व के चेहरे के तौर पर राजनीतिक असर रखते हैं.इस कारण चुनाव दर चुनाव उनकी रैलियों की मांग भी बढ़ रही है. खासकर बिहार के सीमावर्ती जिलों में राजपूतों की अच्छी खासी आबादी है, जहां बीजेपी के पक्ष में वोटों के ध्रुवीकरण में उनकी अहम भूमिका रहने वाली है.
दलितों पर कांग्रेस का फोकस
यूपी की तरह कांग्रेस का बिहार में भी शिफ्ट दलित वोटों की तरफ हुआ है. कांग्रेस ने राजाराम के तौर पर दलित (रविदासी) को अध्यक्ष बनाया है. पार्टी प्रभारी भी उसी समुदाय से आते हैं. राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा भी ऐसे इलाकों से गुजरी है, जहां दलित वोट पासा पलटने की अहमियत रखते हैं. अगर यूपी की तरह बिहार में भी दलित वोट शिफ्ट होता है तो यह कांग्रेस के लिए गेमचेंजर साबित हो सकता है. लंबे समय से उसका कोई जातीय जनाधार दोनों राज्यों में नहीं रहा है.
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं