
- पशुपति पारस और हेमंत सोरेन के समर्थन से बिहार में महागठबंधन को नया राजनीतिक बल मिला है.
- पारस के महागठबंधन में शामिल होने से दलित-पासवान वोट बैंक में NDA के लिए चुनौती उत्पन्न हो सकती है.
- सोरेन के जुड़ाव से सीमांचल के आदिवासी और मुस्लिम मतदाताओं को महागठबंधन के साथ जुड़ने की संभावनाएं हैं.
Mahagathbandhan in Bihar: लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता पशुपति कुमार पारस और झारखंड मुक्ति मोर्चा के सोरेन परिवार का साथ महागठबंधन को नया बल देता दिख रहा है. बिहार की राजनीति में हर चुनाव से पहले समीकरणों का फेरबदल आम बात है, लेकिन इस बार महागठबंधन (INDIA ब्लॉक) ने दो ऐसे चेहरे अपने साथ जोड़ लिए हैं, जिनका महत्व महज़ संख्याओं तक सीमित नहीं बल्कि प्रतीकात्मक और सामाजिक समीकरणों में भी गूंजता है. लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के नेता पशुपति कुमार पारस और झारखंड मुक्ति मोर्चा के सोरेन परिवार का साथ महागठबंधन को नया बल देता दिख रहा है.
पशुपति के जरिए पासवान तो सोरेन से जरिए आदिवासियों को साधने की कोशिश
पशुपति पारस, दिवंगत रामविलास पासवान के छोटे भाई हैं. पासवान परिवार बिहार में दलित राजनीति का पर्याय रहा है. पारस का महागठबंधन के साथ खड़ा होना इस बात का प्रतीक है कि पासवान वोट बैंक पर अब केवल NDA का ही दावा नहीं रह गया. दूसरी ओर, सोरेन परिवार का जुड़ाव यह बताने के लिए काफी है कि सीमांचल और झारखंड सीमा से सटे इलाकों में महागठबंधन ने आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदायों को साधने की तैयारी पूरी कर ली है.

दलित-पासवान वोटरों में सेंध लगाने का मौका
बिहार की राजनीति की धुरी जातीय समीकरण पर टिकी रहती है. महागठबंधन पहले से ही यादव, मुस्लिम और पिछड़े वर्गों का बड़ा हिस्सा अपने साथ मानता रहा है. अब पारस के आने से महागठबंधन को दलित-पासवान वोटों में सेंध लगाने का मौका मिलेगा. यह वोट बैंक अब तक चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के ज़रिए NDA के साथ जुड़ा रहा है.
सोरेन का जुड़ना सीमांचल के दिलाएगा ताकत
झारखंड मुक्ति मोर्चा और सोरेन परिवार का जुड़ना सीमांचल की राजनीति के लिए महत्वपूर्ण है. किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया और अररिया जैसे ज़िलों में आदिवासी और मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं. यहां सोरेन परिवार का समर्थन विपक्ष को नया आधार देगा.
पारस के महागठबंधन में जाने से यह संदेश जाएगा कि पासवान वोट बैंक में बिखराव हो रहा है. यह भाजपा के लिए कठिनाई खड़ी कर सकता है. खासकर उन सीटों पर जहां पासवान समाज निर्णायक भूमिका में रहा है.

झारखंड से सटे इलाकों में भी फायदा मिलने की उम्मीद
वहीं सोरेन परिवार के समर्थन से महागठबंधन यह संदेश भी देगा कि आदिवासी, सीमांचल और झारखंड से सटे इलाकों के अल्पसंख्यक वोट उसके साथ हैं. भाजपा ने पिछली बार सीमांचल में मुस्लिम वोट बैंक के बंटवारे से लाभ उठाया था. अब अगर सोरेन की मौजूदगी से मुस्लिम-आदिवासी वोट एकजुट होता है, तो NDA की राह मुश्किल हो सकती है.
खींचतान की शिकायत समाप्त होने का संदेश
महागठबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती रही है “एकजुटता की छवि”. अक्सर यह आरोप लगता रहा है कि महागठबंधन के भीतर खींचतान रहती है और छोटे दलों का महत्व घट जाता है. लेकिन पारस और सोरेन जैसे नेताओं को जोड़कर महागठबंधन यह दिखाना चाहता है कि वह न सिर्फ बड़े दलों बल्कि क्षेत्रीय और जातीय नेतृत्व को भी बराबरी का महत्व दे रहा है. यह संदेश वोटरों के बीच गूंजेगा और विपक्षी गठबंधन को मनोवैज्ञानिक बढ़त देगा.
पारस के साथ से एनडीए की बढ़त हो सकती है कम
अगर आंकड़ों की बात करें तो बिहार में 40 लोकसभा सीटें हैं. पासवान वोट बैंक का असर कम से कम 5 से 6 सीटों पर सीधे तौर पर पड़ता है. इनमें हाजीपुर, समस्तीपुर, जमुई, खगड़िया और वैशाली जैसी सीटें प्रमुख हैं. पारस के महागठबंधन में सक्रिय होने से इन सीटों पर NDA की बढ़त कमजोर हो सकती है.
मोदी बनाम ऑल की लड़ाई का भी संदेश
इस पूरे घटनाक्रम का सबसे बड़ा संदेश यह है कि विपक्ष यह लड़ाई “मोदी बनाम सब” की तरह पेश करना चाहता है. महागठबंधन में जितने ज़्यादा चेहरे और दल जुड़ते जाएंगे, उतना ही यह नैरेटिव मज़बूत होगा कि भाजपा और NDA अकेले पड़ते जा रहे हैं. इसके विपरीत अगर NDA में बिखराव का संदेश गया, तो वह विपक्ष के लिए फायदेमंद होगा.
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