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This Article is From Jan 19, 2015

अस्पताल दर अस्पताल भटकती एंबुलेंस, क्यों न हो एक 'सेंट्रलाइज्ड नंबर'

अस्पताल दर अस्पताल भटकती एंबुलेंस, क्यों न हो एक 'सेंट्रलाइज्ड नंबर'
नई दिल्ली:

मरीज के लिए एक एंबुलेंस एम्स में घंटेभर से ज्यादा खड़ी रही, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। यहां से निराश होकर एंबुलेंस पास के ही सफरजंग हॉस्पिटल के लिए निकल पड़ी। हमने रिश्तेदार से बात की तो पता चला कि यहां बेड नहीं है, लिहाजा दूसरे अस्पताल का रुख करना होगा। मरीज के रिश्तेदारों को ये भी पता नहीं कि सफदरजंग में इलाज हो ही जाएगा और बेड मिल ही जाएगा। बस इलाज के उम्मीद के भरोसे भटकती एंबुलेंस।

एंबुलेंस से आए मरीज़ो को भर्ती नहीं करने की समस्या सिर्फ एक जगह की बात नहीं है। एम्स के बाद अब हम दिल्ली के ही जीबी पंत हॉस्पिटल पहुंचे। ज्यादा देर इंतज़ार नहीं करना पड़ा, जब इमरजेंसी के बाहर एक एंबुलेंस दिखी जो ग्रेटर नोएडा से एक दिल के मरीज़ को लेकर आई थी। घरवाले इमरजेंसी में दाखिले की कोशिश करते रहे, लेकिन एंबुलेंस को यहां से ओपीडी में जाना पड़ा। पास ही एलएनजेपी अस्पताल है। जबतक हम वहां पहुंचते, ग्रेटर नोएडा से आई एंबुलेंस भी मरीज के साथ ओपीडी से धक्के खाकर यहां भी आ पहुंची।

यहां भी रिश्तेदार से बात की तो पता चला कि दिल का दौरा पड़ा है, लेकिन किसी को कोई फिक्र नहीं। मरीज जिए या मरे। करीब 70 से 80 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद जीबी पंत पहुंचना हुआ और यहां करीब 3 घंटे सिर्फ इमरजेंसी से ओपीडी और फिर एलएनजेपी के चक्कर में बर्बाद हो गए।

मुसीबत में घिरे परिवार को देखकर लगा मदद की कोशिश करने में क्या हर्ज है। लिहाजा इनके साथ इमरजेंसी वार्ड की तरफ चल पड़े जहां का माहौल अस्पताल से ज्यादा किसी पुलिस थाने का लगा। आखिरकार इलाज तो मिला लेकिन इससे पहले के कीमती ढाई तीन घंटे रास्ते में नहीं बल्कि अस्पताल दर अस्पताल भटकने में बर्बाद हुए।

सवाल था क्या जीबी पंत में एंबुलेंस से आए हर मरीज़ के साथ ऐसा ही होता है। एक बार फिर हम जीबी पंत ही पहुंचे। इस बार बाहर खड़ी एंबुलेंस बाबू जगजीवन राम अस्पताल से रेफर हुए एक मरीज़ को लेकर आई थी, साथ में जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर भी था। डॉक्टर के पीछे पीछे हम भी वार्ड की तरफ चले। यहां मौजूद डॉक्टरों से उनकी बातचीत हुई लेकिन भर्ती कराने में नाकाम रहे। पता चला डॉक्टर साहब को भी मरीज लेकर ओपीडी में जाने को कहा गया।

दिल्ली पुलिस ने हाल में भी इस बात को लेकर सर्कुलर जारी किया है कि एंबुलेंस या इमरजेंसी सर्विसेज के रास्ते में आने पर 2000 रुपए का जुर्माना भरना होगा। जिसके बाद हो सकता है मरीजों को लेकर एंबुलेंस वक्त पर अस्पताल तक पहुंच जाए। पर सवाल है कि सड़कों पर जिंदगी के लिए एक एक सेकेंड कीमती होने वाला वक्त अस्पताल पहुंचते ही फालतू क्यों हो जाता है।

साइबर सिस्टम और मोबाइल जीपीएस के इस जमाने में क्या सरकार किसी ऐसे सेंट्रलाइज्ड नंबर का बंदोबस्त नहीं कर सकती ताकि मरीज को लेकर आने वाली एंबुलेंस को अस्पताल दर अस्पताल चक्कर ना काटना पड़े और पहले से ही तय हो जाए कि आखिर उसे पहुंचना कहां है। ऐसे में वक्त तो बचेगा ही, साथ ही वो जिंदगी भी बचेगी जिसकी भरपाई ना तो किसी मुआवजे से हो सकती है ना ही किसी दोषी पर कार्रवाई से।

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