- सिरोबगड़ भूस्खलन क्षेत्र उत्तराखंड में पिछले 60 साल से सक्रिय है और बढ़ता ही जा रहा है
- यह भूस्खलन क्षेत्र बद्रीनाथ राजमार्ग पर स्थित है और सड़क बंद होने का कारण बनता है
- 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद यहां सड़क का निर्माण सामरिक दृष्टि से किया गया था
- 1985 में शोध में चार प्रमुख कारणों का पता चला, जिनमें भूगर्भीय संरचना शामिल है
पिछले 60 सालों से अधिक समय से उत्तराखंड के श्रीनगर गढ़वाल में स्थित सिरोबगड़ भूस्खलन जोन सक्रिय है जो लगातार बढ़ता जा रहा है और आज के समय मे ये नासूर बन गया है. बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर श्रीनगर से करीब 16 किलोमीटर दूर सिरोबगड़ भूस्खलन क्षेत्र मौजूद है. यह भूस्खलन क्षेत्र पिछले लंबे समय से सक्रिय है. आए दिन यहां पर भूस्खलन की वजह से मलबा सड़क पर आने से बद्रीनाथ नेशनल हाईवे बंद हो जाता है. वहीं कई बार इस भूस्खलन की चपेट में कई दुर्घटनाएं भी हुई है.
1962 की जंग के बाद बनी सड़क
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि सिरोबगड़ भूस्खलन क्षेत्र दो या दस सालों से सिरदर्द नही बना हुआ है बल्कि 1950 के दशक से ये सक्रिय है. साल 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद सामरिक दृष्टि से यह सड़क बनाई गई थी. यह भूस्खलन क्षेत्र लगातार सक्रिय उसे समय भी था. मॉनसून सीजन में सिरोबगड़ में तेजी से भूस्खलन होता है. इससे चार धाम यात्रा और स्थानीय निवासियों को बड़ी समस्या हो जाती है. बारिश के दौरान, पहाड़ी से लगातार मलबा और पत्थर गिरते रहते हैं, जिससे नेशनल हाइवे बंद हो जाता है और यातायात बाधित होता है. सिरोबगड़ भूस्खलन क्षेत्र को कालियासौर भूस्खलन क्षेत्र भी कहा जाता है.
रिसर्च में पता लगी चार वजहें
इस क्षेत्र में साल 1985 -86 में एक रिसर्च की गई थी. रिसर्च करने वाले श्रीनगर गढ़वाल सेंट्रल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर भू वैज्ञानिक डॉ एमपीएस बिष्ट और भू विज्ञान डिपार्टमेंट के हेड एस सी नैनवाल थे. डॉक्टर एमपीएस बिष्ट और एस सी नैनवाल ने 1985 और 86 में पहली बार इस क्षेत्र में रिसर्च की थी. प्रोफेसर भू-वैज्ञानिक डॉ एमपीएस बिष्ट कहते हैं कि साल 1985 में CBRI रुड़की ,केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने सिरोबगड़ भूस्खलन क्षेत्र के लिए एक प्रोजेक्ट बनाया था. इस प्रोजेक्ट में ये पता लगाना था कि इसके कारण क्या है और इस समस्या का इलाज क्या है?

प्रोफेसर डॉक्टर एमपीएस बिष्ट, भू वैज्ञानिक श्रीनगर गढ़वाल सेंटर यूनिवर्सिटी
प्रोफेसर भूवैज्ञानिक डॉ एमपीएस बिष्ट ने बताया कि सिरोबगड़ भूस्खलन क्षेत्र में चार बड़े कारण है.
पहला कारण:- श्रीनगर थ्रस्ट, जो पहले नार्थ अल्मोड़ा थ्रस्ट कहा जाता था. भू वैज्ञानिक भाषा में थ्रस्ट उसे कहते हैं जो जगह एक दूसरे को अलग करती है. एक फॉर्मेशन दूसरे फॉर्मेशन पर जोर डालता है. ये सिरोबगड़ भूस्खलन क्षेत्र इस श्रीनगर थ्रस्ट की शेयर प्लेट में आता है. शेयर प्लेट यानी एक चट्टान, दूसरी चट्टान को क्रश करती है. डॉ एमपीएस बिष्ट कहते हैं सिरोबगड़ क्षेत्र में पूरे पहाड़ की चट्टानें बुरी यानी चूरे की तरह की हैं. पूरे पहाड़ पर छोटे छोटे दाने-दाने वाले पत्थर हैं. इस पूरे भूस्खलन क्षेत्र में चट्टानें हाइली क्रश और वैज्ञानिक भाषा में गौज पदार्थ की है जो बेहद ही ढीले पदार्थ की बनी हुई हैं. यही वजह है कि लगातार इस क्षेत्र में चट्टानें नीचे गिरती रही हैं.
दूसरा कारण:- एमपीएस बिष्ट बताते हैं कि इस क्षेत्र में Quartzite की चट्टानें हैं जो पांच रंग में हैं. Quartzite पत्थर पश्चिम से पूर्व की ओर है. Quartzite पत्थर के बीच एक बहुत ही महीन क्ले (चिकनी मिट्टी) की परत है जो भूरे रंग की है. यह भूरे रंग की क्ले Quartzite पत्थरों को आपस में जोड़कर रखती है. लेकिन क्ले की प्रॉपर्टी यह होती है कि वह पानी के संपर्क में आते ही फूलने लगती है और धूप के संपर्क में आते ही सिकुड़ने लग जाती है. यही वजह है कि चट्टानों के बीच पहाड़ी ढाल पर कली के फूलने और सिकुड़ने की वजह से चट्टाने नीचे गिर रही है.

तीसरा कारण:- उस समय रिसर्च में यह बात भी सामने आई थी कि सिरोबगड़ भूस्खलन क्षेत्र के ठीक नीचे अलकनंदा नदी बह रही है. जहां इस भूस्खलन क्षेत्र का सबसे निचला हिस्सा है, वहां पर पूरे भूस्खलन क्षेत्र का मलबा गिरता है. वहीं पर अलकनंदा नदी तेजी से नीचे से कटाव कर रही है. वैज्ञानिक भाषा में इसे तो टोह इरोजन कहा जाता है. अलकनंदा नदी के तेजी से कट ऑफ के कारण इसका ढाल 90 डिग्री होने की वजह से तेजी से भूस्खलन हो रहा है. चट्टानें नीचे सरक रही हैं.
चौथा कारण:- डॉ एमपीएस बिष्ट बताते हैं कि इस पूरे हिमालय क्षेत्र में लगातार छोटे बड़े भूकंप इस भूस्खलन क्षेत्र को और एक्टिव कर रहे हैं क्योंकि जब भी कोई भूकंप आता है चाहे वह छोटा है या पड़ा वह चट्टानों को हिला देता है. इससे चट्टानें अस्थिर हो जाती हैं और नीचे की ओर गिरने लग जाती हैं.
कई विदेशी वैज्ञानिक भी पहुंचे
प्रोफेसर बिष्ट के मुताबिक जब वह इस क्षेत्र में रिसर्च कर रहे थे. साल 1985 और 86 में उसे समय देश-विदेश के कई बड़े वैज्ञानिक इस भूस्खलन क्षेत्र में अपनी रिसर्च करने आए थे. उस दौरान इंग्लैंड के भू-वैज्ञानिक जेएन हचिंसन को भी बुलाया गया था. इंग्लैंड के इस वैज्ञानिक ने भूस्खलन के क्षेत्र में बहुत सारी किताबें लिखी हैं. प्रोफेसर बिष्ट बताते हैं कि उन्होंने हचिंसन से सिरोबगड़ भूस्खलन क्षेत्र के बारे में पूछा था.
उनका सवाल था कि क्या इस क्षेत्र का कभी कोई इलाज है भी या नहीं? इस पर हचिंसन का जवाब था कि इस क्षेत्र का कभी कोई ट्रीटमेंट नहीं किया जा सकता और ना ही इसे कंट्रोल किया जा सकता है. इस लिहाज से दूसरी तरफ से सड़क निकालना ही बेहतर एक रास्ता है. हैरानी की बात है कि हचिंसन की सलाह के बाद भी अब तक इस पर करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं.

36 साल बाद हो रहा काम
यही वजह है कि इस क्षेत्र में आए दिन भूस्खलन होते हैं और कोई न कोई घटना होती है. इनकी वजह से रास्ते बंद हो जाते हैं और लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. स्थिति बरसात के मौसम में और ज्यादा बिगड़ जाती है. चार धाम यात्रा में इस वजह से ही सिरोबगड़ भूस्खलन क्षेत्र के ठीक सामने यानी दूसरी तरफ एक सड़क बनाई गई है. भूस्खलन क्षेत्र से करीब 100 मीटर पहले अलकनंदा नदी पर एक पुल बनाया गया है. इससे ट्रैफिक आने वाले दिनों में डाइवर्ट किया जाएगा. जो बात साल 1986 में इंग्लैंड के वैज्ञानिक ने तब कही थी, उसे बात का अमल 36 साल बाद किया जा रहा है.
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