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नौकरियों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण है निर्धारित
इस वक्त क्रीमी लेयर की सीमा छह लाख है
इससे ऊपर आय होने पर आरक्षण का लाभ नहीं
दरअसल सरकारी नौकरियों और राज्य की शैक्षणिक संस्थाओं में 22.5 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जातियों (एससी) और जनजातियों के लिए आरक्षित हैं. इसके अतिरिक्त 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण पर मुहर लगाई. लेकिन साथ ही कोर्ट ने यह व्यवस्था भी दी कि सालाना एक निश्चित आय वर्ग वाले लोगों के लिए 'क्रीमी लेयर' की सीमा का निर्धारण होना चाहिए और इसके दायरे में आने वाले लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकार को हर तीन साल में क्रीमी लेयर की समीक्षा करनी चाहिए लेकिन वास्तव में पिछले दो दशकों में इसकी समीक्षा केवल तीन बार ही हुई है. सबसे हाल में 2011 में इसकी समीक्षा हुई और छह लाख रुपये वार्षिक आय को क्रीमी लेयर के तहत लाया गया.
इस बीच पिछड़ा वर्ग राष्ट्रीय आयोग ने बार-बार इस कट-ऑफ को बढ़ाने की बात कही लेकिन सरकार ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया. वास्तव में इसमें यह चुनौती रही है कि ऐतिहासिक रूप से कमजोर तबकों को तो संरक्षण दिया जाए लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ऐसी जातियां जो परंपरागत रूप से प्रभावशाली रही हैं लेकिन अब आर्थिक रूप से पिछड़ी हैं, वे कहीं विकास की दौड़ में कहीं पीछे नहीं रह जाएं.
2015 में पेश अपनी पिछली रिपोर्ट में आयोग ने इस कट-ऑफ को बढ़ाकर 15 लाख रुपये करने की सिफारिश की थी. पिछले कुछ दशकों में कुर्मी और यादव जैसी जातियां आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से प्रभावी हुई हैं. ओबीसी श्रेणी से ताल्लुक रखने वाले ज्यादातर ग्रेजुएट इन्हीं जातियों से ताल्लुक रखते हैं और वे क्रीमी लेयर के दायरे को पार कर रहे हैं, इसका मतलब है कि उनको सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती.
वहीं दूसरी ओर बेहद गरीब जातियां अपने बच्चों के लिए उच्च शिक्षा का इंतजाम नहीं कर पातीं, इसका भी मतलब यह हुआ कि उन बच्चों को भी सरकारी नौकरी नहीं मिल पाएगी. इन वजहों से ही 27 प्रतिशत कोटा उपलब्ध होने के बावजूद इनकी हिस्सेदारी महज 12 प्रतिशत है.
आयोग के सदस्य एसके खारवेंथन का कहना है, ''सरकार ने 2014 में संसद में स्वीकार किया था कि सुप्रीम कोर्ट के 27 प्रतिशत आरक्षण कोटे के निर्णय के 20 साल बाद भी ओबीसी का सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व महज 12 प्रतिशत है.''
बाराबंकी के एक गांव में पंचायत के एक चबूतरे पर बैठे कुछ युवा सदस्यों के समूह में से एक राहुल यादव ने चार साल पहले ग्रेजुएट किया था और सरकारी नौकरी को पाने की कोशिशें की. लेकिन उसके पिता की सालाना आमदनी सात लाख रुपये से ज्यादा है. इस कारण ओबीसी श्रेणी को होने के बावजूद क्रीमी लेयर के दायरे में आने के कारण उसको आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकता. नतीजतन अब वह खेती कर रहा है. उसका कहना है, ''क्रीमी लेयर की सीमा बढ़ाकर 8-10 लाख की जानी चाहिए, ऐसा नहीं होने पर सबसे योग्य पिछड़ों को भी सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी.''
ऐसे में नवंबर में क्रीमी लेयर की सीमा बढ़ाने की उम्मीद है, इससे सरकार को निचली जातियों में लोकप्रियता बढ़ने की उम्मीद है लेकिन इससे परंपरागत रूप से बीजेपी का समर्थन करने वाली ऊंची जातियां छिटक सकती हैं. इसलिए सूत्रों का कहना है कि आयोग की क्रीमी लेयर की 15 लाख की सीमा की सिफारिशों के बावजूद सरकार उससे कहीं नीचे ही इसका निर्धारण कर सकती है.
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