यह ख़बर 13 मई, 2011 को प्रकाशित हुई थी

कभी परिवार चलाने के लिए दूध बेचती थीं ममता

खास बातें

  • उनके लिए अपने छोटे भाई-बहनों के पालन-पोषण में अपनी विधवा मां की मदद करने का यही अकेला तरीका था।
कोलकाता:

कभी ऐसा समय भी था जब ममता बनर्जी को गरीबी के चलते दूध बेचने का काम करना पड़ा था। उनके लिए अपने छोटे भाई-बहनों के पालन-पोषण में अपनी विधवा मां की मदद करने का यही अकेला तरीका था। मुसीबत के उन दिनों ने ममता को सख्त बना दिया और उन्होंने पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों को सत्ता से बेदखल करने के अपने सपने को पूरा करने में दशकों गुजार दिए। शुक्रवार को उनका यह सपना पूरा हो गया। बीते सालों में कई मुश्किलें आईं लेकिन 56 वर्षीया ममता दुनिया की सबसे सफलतम कम्युनिस्ट पार्टियों में से एक माक्सर्वादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की जड़ें हिलाने के अपने मिशन पर डटी रहीं। पिछली लोकसभा में ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस का एक ही सदस्य था और 2006 के विधानसभा चुनावों में उन्हें 294 में से केवल 30 सीटें ही मिली थीं। ममता ने मात्र 13 साल पहले ही कांग्रेस से अलग होकर अपनी नई पार्टी गठित की थी। ममता के पिता स्वतंत्रता सेनानी थे और जब वह बहुत छोटी थीं तभी उनकी मृत्यु हो गई थी। बाद में उन्होंने अपने परिवार को चलाने के लिए दूध विक्रेता का कार्य करने का निर्णय लिया। उन्होंने 70 के दशक में कांग्रेस की छात्र इकाई  से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। उस समय  इस इकाई ने ने कोलकाता से नक्सलियों को उखाड़ फेंकने में अहम भूमिका निभाई थी। ममता ने कानून और शिक्षा के अलावा कला में भी डिग्री हासिल की है। शुरुआत में ममता को राजनीति में सुब्रत मुखर्जी लाए थे। अब मुखर्जी तृणमूल कांग्रेस में ममता के अनुयायियों में से एक हैं। ममता को 1984 से पहले पश्चिम बंगाल के बाहर कोई नहीं जानता था लेकिन जब उन्होंने इस साल के अपने पहले लोकसभा चुनाव में ही जादवपुर से माकपा नेता सोमनाथ चटर्जी को पराजित कर दिया तो वह देशभर में मशहूर हो गईं। इसके बाद उन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वर्ष 1991 में वह प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में शामिल हुईं लेकिन वह खेलों को विकसित करने के प्रति सरकार की उदासीनता देखकर नाखुश थीं। साल 1993 में वह मंत्रालय से बाहर हो गईं। जब उन्हें एहसास हुआ कि कांग्रेस वास्तव में पश्चिम बंगाल से कम्युनिस्टों को उखाड़ना नहीं चाहती है तो उन्होंने तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। वाम मोर्चे को पराजित करने की कोशिश में वह लगातार पाला बदलती रहीं। उन्होंने 1998 से 2001 तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का साथ दिया, साल 2001 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ खड़ी हुईं और फिर दोबारा 2001-06 तक भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन का साथ दिया। इस बीच वह दो बार रेल मंत्री बनीं। केंद्रीय मंत्री बनने के बावजूद ममता अपने कोलकाता के कालीघाट मंदिर के नजदीक स्थित एक मंजिला घर में रहती रहीं। वह हमेशा सादी सूती साड़ी, कंधे पर एक झोले और रबड़ की चप्पलों में नजर आईं। वह सात बार संसद सदस्य चुनी गईं। ममता राजनीति के अलावा चित्रकारी और लेखन में भी रुचि रखती हैं। वह एक अच्छी रसोईया भी हैं। वह धार्मिक भी हैं और हर साल काली पूजा में जरूर हिस्सा लेती हैं। साल 2009 के और इस बार के चुनावों में भी ममता का नारा 'मां, माटी और मानुष' था। उन्हें वाम मोर्चे के तीन दशक पुराने शासन को लेकर उठी सत्ता विरोधी लहर के चलते यह जीत हासिल करने में कामयाबी मिली।


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