करुणानिधि के साथ स्टालिन (फाइल फोटो).
नई दिल्ली:
डीएमके संस्थापक करूणानिधि के निधन से तमिलनाडु की राजनीति में एक बड़ा स्थान रिक्त हो गया है जिसे भरना आसान नहीं होगा. सबसे ज़्यादा असर डीएमके पर पड़ेगा, जहां उनके बेटे और उत्तराधिकारी स्टालिन को लीडर के
तौर पर सबसे पहले खुद को साबित करना होगा.
करुणानिधि डीएमके की कमान अपने बेटे एमके स्टालिन के हाथों में छोड़ गए हैं. तमिलनाडु की राजनीति के जानकार मानते हैं कि स्टालिन के पास अपने कद्दावर पिता करूणानिधि सरीखी सियासत की समझ नहीं है और नेतृत्व क्षमता की कमी है. ऐसे में सबसे अहम सवाल ये उठता है कि क्या स्टालिन भी कलाईनार की तरह लोगों का भरोसा और उनका समर्थन हासिल कर पाएंगे?
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बीजेपी के वरिष्ठ नेता प्रभात झा ने एनडीटीवी से कहा, "महानतम लोगों की विरासत संभालने का जिम्मा बहुत कठिन है. करुणानिधि की साधना से डीएमके खड़ा हुआ, लेकिन उस साधना की साधने वाले लोग हैं क्या?" कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने एनडीटीवी से कहा, "उनके जाने से बड़ी क्षति हुई है. न सिर्फ तमिलनाडु की राजनीति में बल्कि पूरे भारत की राजनीति में, एक बहुत बड़ी कमी आई है."
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करुणानिधि ने करीब छह दशक तक तमिलनाडु की राजनीति को प्रभावित किया. अब उनके जाने के बाद उनकी विरासत को संभालना स्टालिन के लिए आसान नहीं होगा. साथ ही, पहले जयललिता और अब करुणानिधि के जाने के बाद तमिलनाडु की राजनीति एक नए दौर में प्रवेश कर रही है, जहां रजनीकांत और कमल हासन के मैदान में उतरने से प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है.
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ज्यादातर लोग मानते हैं कि स्टालिन अपने पिता की तरह शानदार वक्ता नहीं हैं. ऐसे में ये बड़ा सवाल होगा कि
तमिलनाडु के वोटर उन्हें स्वीकार करेंगे या नहीं? इसके अलावा स्टालिन के पास राजनीतिक अनुभव और खासकर केंद्र में काबिज सत्ताधारी दलों से डील करने का कोई अनुभव नहीं है. करुणानिधि इन सियासी दांव-पेचों के महारथी थे और उन्होंने दिल्ली में बीजेपी और कांग्रेस दोनों के साथ गठजोड़ किया.
यह भी पढ़ें : राजनीति में सामाजिक सरोकार के झंडाबरदार थे एम करुणानिधि
एनसीपी नेता डीपी त्रिपाठी कहते हैं, "करुणानिधि के नहीं रहने के बाद तमिलनाडु की जनता को नई लीडरशिप की तलाश करनी होगी, एक तमिल पहचान के साथ. तमिल पहचान ही अगला नेतृत्व तय करेगा." जबकि राज्य सभा सांसद स्वपन दासगुप्ता कहते हैं कि करुणानिधि के जाने के बाद तमिल राजनीति में एक खालीपन दिख रहा है, राजनीति के एक युग का अंत हुआ है और एक नई पीढ़ी आ रही है राजनीति में.
VIDEO : तमिलनाडु की राजनीति में एक युग का अंत
फिलहाल सबकी निगाहें स्टालिन पर हैं. क्या वे करुणानिधि के बाद हुए नुकसान की भरपाई कर पाते हैं या नहीं. उधर एआईएडीएमके भी जयललिता को खोने के बाद कई चुनौतियों से जूझ रही है. ऐसे में जानकारों के मुताबिक राज्य में विधानसभा चुनाव ही बेहतर रास्ता होगा. अगर ऐसा हुआ तो स्टालिन के लिए यह पहली कड़ी परीक्षा होगी.
तौर पर सबसे पहले खुद को साबित करना होगा.
करुणानिधि डीएमके की कमान अपने बेटे एमके स्टालिन के हाथों में छोड़ गए हैं. तमिलनाडु की राजनीति के जानकार मानते हैं कि स्टालिन के पास अपने कद्दावर पिता करूणानिधि सरीखी सियासत की समझ नहीं है और नेतृत्व क्षमता की कमी है. ऐसे में सबसे अहम सवाल ये उठता है कि क्या स्टालिन भी कलाईनार की तरह लोगों का भरोसा और उनका समर्थन हासिल कर पाएंगे?
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बीजेपी के वरिष्ठ नेता प्रभात झा ने एनडीटीवी से कहा, "महानतम लोगों की विरासत संभालने का जिम्मा बहुत कठिन है. करुणानिधि की साधना से डीएमके खड़ा हुआ, लेकिन उस साधना की साधने वाले लोग हैं क्या?" कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने एनडीटीवी से कहा, "उनके जाने से बड़ी क्षति हुई है. न सिर्फ तमिलनाडु की राजनीति में बल्कि पूरे भारत की राजनीति में, एक बहुत बड़ी कमी आई है."
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करुणानिधि ने करीब छह दशक तक तमिलनाडु की राजनीति को प्रभावित किया. अब उनके जाने के बाद उनकी विरासत को संभालना स्टालिन के लिए आसान नहीं होगा. साथ ही, पहले जयललिता और अब करुणानिधि के जाने के बाद तमिलनाडु की राजनीति एक नए दौर में प्रवेश कर रही है, जहां रजनीकांत और कमल हासन के मैदान में उतरने से प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है.
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ज्यादातर लोग मानते हैं कि स्टालिन अपने पिता की तरह शानदार वक्ता नहीं हैं. ऐसे में ये बड़ा सवाल होगा कि
तमिलनाडु के वोटर उन्हें स्वीकार करेंगे या नहीं? इसके अलावा स्टालिन के पास राजनीतिक अनुभव और खासकर केंद्र में काबिज सत्ताधारी दलों से डील करने का कोई अनुभव नहीं है. करुणानिधि इन सियासी दांव-पेचों के महारथी थे और उन्होंने दिल्ली में बीजेपी और कांग्रेस दोनों के साथ गठजोड़ किया.
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एनसीपी नेता डीपी त्रिपाठी कहते हैं, "करुणानिधि के नहीं रहने के बाद तमिलनाडु की जनता को नई लीडरशिप की तलाश करनी होगी, एक तमिल पहचान के साथ. तमिल पहचान ही अगला नेतृत्व तय करेगा." जबकि राज्य सभा सांसद स्वपन दासगुप्ता कहते हैं कि करुणानिधि के जाने के बाद तमिल राजनीति में एक खालीपन दिख रहा है, राजनीति के एक युग का अंत हुआ है और एक नई पीढ़ी आ रही है राजनीति में.
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फिलहाल सबकी निगाहें स्टालिन पर हैं. क्या वे करुणानिधि के बाद हुए नुकसान की भरपाई कर पाते हैं या नहीं. उधर एआईएडीएमके भी जयललिता को खोने के बाद कई चुनौतियों से जूझ रही है. ऐसे में जानकारों के मुताबिक राज्य में विधानसभा चुनाव ही बेहतर रास्ता होगा. अगर ऐसा हुआ तो स्टालिन के लिए यह पहली कड़ी परीक्षा होगी.
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