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This Article is From Feb 12, 2021

आपदाग्रस्त उत्तराखंड का दो तिहाई इलाका बाढ़ और सूखे दोनों की मार झेल रहा

पर्यावरण से जुड़े थिंक टैंक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तराखंड का 85 फीसदी क्षेत्र बाढ़ (Flood) के जोखिम के दायरे में है, वहीं 69 फीसदी क्षेत्र सूखे (Drought) के संकट का सामना कर रहा है.

आपदाग्रस्त उत्तराखंड का दो तिहाई इलाका बाढ़ और सूखे दोनों की मार झेल रहा
Uttarakhand Disaster: ग्लेशियर टूटने के बाद राज्य के चमोली जिले में आई तबाही
नई दिल्ली:

Uttarakhand Flood Disaster: उत्तराखंड में ग्लेशियर टूटने के बाद चमोली जिले में आई बाढ़ ने राज्य में प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ते खतरे को फिर सतह पर ला दिया है. उत्तराखंड पिछले कुछ वर्षों से बाढ़ और सूखे दोनों की मार एक साथ झेल रहा है. पर्यावरण से जुड़े थिंक टैंक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तराखंड का दो तिहाई से ज्यादा क्षेत्र में बाढ़ (Flood) और सूखे (Drought) दोनों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है. राज्य के 85 फीसदी क्षेत्र बाढ़ के जोखिम के दायरे में है, वहीं 69 फीसदी क्षेत्र सूखे के संकट का सामना कर रहा है.

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थिंकटैंक (Council on Energy, Environment and Water) की रिपोर्ट के अनुसार,उत्तराखंड में पिछले कुछ दशकों में भूस्खलन, बादल फटने, ग्लेशियर टूटने की घटनाओं में करीब चार गुना बढ़ोतरी हुई है. नैनीताल, चमोली, हरिद्वार, पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी जिले बाढ़ से ज्यादा प्रभावित रहे हैं.बाढ़ की विभीषिका जहां अभी हम तपोवन इलाके में देख रहे हैं. वहीं सूखे की स्थिति यह है कि इलाकों में वर्षा की अवधि और तीव्रता दोनों ही कम हो गई है. खासकर गढ़वाल क्षेत्र में सूखे का असर देखने को मिल रहा है. ठीक ढंग से सिंचाई न होने से कृषि पर प्रभाव पड़ा है. कई इलाकों में जलापूर्ति का संकट भी देखने को मिल रहा है.

सीईईडब्ल्यू (CEEW) के प्रोग्राम लीड अबिनाश मोहंती का कहना है कि उत्तराखंड ने पिछले 20 सालों में करीब 50 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र खोया है, इसका असर पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ने के साथ जलवायु परिवर्तन के तौर पर दिखाई दे रहा है. उत्तराखंड में सूखे के मामले भी दोगुना बढ़े हैं पिछले एक दशक में नैनीताल, पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा जैसे जिलों ने बाढ़ और सूखे की मार एक साथ सामना किया है.वनों का पुनरुद्धार करके ही जलवायु के अंसतुलन में सुधार लाया जा सकता है. 

सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की रिपोर्ट स्वयं कहती है कि हिंदुकुश हिमालय में 1951-2014 के दौरान तापमान में करीब 1.3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है. इस कारण आई बाढ़ की घटनाओं का असर राज्य की 32 बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं पर पड़ सकता है. ऐसी हर परियोजना की लागत 150 करोड़ रुपये से अधिक है.जबकि जर्मन वॉच की 2018 की रिपोर्ट कहती है कि बाढ़, सूखे, भूकंप जैसी आपदाओं के रूप में दिखने वाले जलवायु परिवर्तन के कारण भारत का आर्थिक नुकसान 2.7 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है, जो 2018 के उसके रक्षा बजट के बराबर है.

सीईईडब्ल्यू के सीईओ अरुणाभ घोष ने कहा कि बादल (Cloud Burst) या ग्लेशियर फटने (Glacier Break), अचानक जल सैलाब (Uttarakhand Flood) आने की घटनाओं से जान-माल को होने वाले नुकसान को रोकने के लिए जरूरी है कि हर सेंसटिव जोन की रियल टाइम निगरानी हो. हर जिले में जलवायु प्रबंधन और पर्यावरण मूल्यांकन केंद्र हो. पर्यावरण संरक्षण में स्थानीय जन भागीदारी को बढ़ाने से इकोसिस्टम को मजबूती मिलेगी ताकि सतत विकास के साथ ही पहाड़ों की जलवायु को नुकसान से बचाया जा सके. 

गौरतलब है कि उत्तराखंड के चमोली (Chamoli Disaster) ज़िले में कहर बरपाने वाली ऋषिगंगा नदी से फिर बाढ़ आने का खतरा बना हुआ है. ऋषिगंगा (RishiGanga)नदी का पानी 7 फरवरी से उस जगह पर रुका हुआ है जहां रौंठी नदी से उसका संगम होता है. 7 फरवरी को क़रीब 5600 मीटर की ऊंचाई पर रौंठी पीक से जो हिमस्खलन और भूस्खलन हुआ, उसने रौंठी नदी में इतनी गाद और चट्टानें भर दीं कि उसने आगे संगम पर ऋषिगंगा नदी का पानी रोक दिया.

सैटेलाइट से मिली तस्वीरें भी साफ़ बता रही हैं कि ऋषिगंगा झील का ये पानी ख़तरनाक हो सकता है. ऋषिगंगा नदी में पानी इतना बढ़ चुका है कि वो रौंठीकी गाद से बनी अस्थायी दीवार के ऊपर से बहकर मिलने लगा है. ये पानी यहां से आगे धौलीगंगा में मिलता है जो आगे तपोवन पावर प्रोजेक्ट से होकर जाती है. 

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