मैसूर का शाही दशहरा जिसमें न तो राम होते हैं न ही रावण

मैसूर का शाही दशहरा जिसमें न तो राम होते हैं न ही रावण

दशहरा पर बिजली की रोशनी से सजा मैसूर का महल।

बेंगलुरु:

मैसूर में दशहरा पर्व की परम्परा काफी समृद्ध है। इस शहर में दशहरा पर्व के आयोजन की परम्परा को शुरू हुए 500 साल बीत गए। राज परिवार द्वारा शुरू किया गया यह आयोजन अब राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। राजशाही की परंपरा लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदली जरूर लेकिन इसका शाही अंदाज आज भी बरकरार है। मैसूर का दशहरा वक्त के साथ देश-विदेश में प्रसिद्धि पाता गया है। अन्य स्थानों के दशहरे के आयोजन से मैसूर के आयोजन में सबसे बड़ा अंतर यह है कि यहां रावण के पुतले का दहन नहीं होता। यहां दशहरा देवी चामुंडा द्वारा राक्षस महिसासुर का वध करने पर मनाया जाने वाला पर्व है।

मैसूर में दशहरा पर्व के आयोजन के विभिन्न दृश्य।

23 साल के यदुवीर राज कृष्णदत्ता चमराजा वाडेयार ने पहली बार मैसूर पैलेस में शाही दरबार लगाकर यदुवंशी वाडेयार राजघराने के अपने पुरखों की 500 साल पुरानी विरासत को शाही अंदाज में आगे बढ़ाया। श्रीकांतदत्ता नर्सिम्हाराजा वाडेयार की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी महारानी प्रमोदा देवी ने यदुवीर को गोद लेकर वाडेयार शाही परिवार की बागडोर थमाई।


मैसूर दशहरे की शान
शाही अंदाज में सजे संवरे हाथियों का काफिला  21 तोपों की सलामी के बाद मैसूर राजमहल से शुरू होकर लगभग 6 किलोमीटर दूर बन्नी मंडप में खत्म होता है। इस काफिले की अगुआई करने वाले हाथी की पीठ पर लगभग 750 किलो शुद्ध सोने का अम्बारी (सिंहासन) होता है, जिसमें माता चामुंडेश्वरी की मूर्ति विराजमान होती है।

पहले मैसूर के राजा इस अम्बारी में बैठते थे, लेकिन संविधान के 26वें संशोधन के बाद 1971 में जब राजशाही का वजूद खत्म कर राष्ट्रपति को सर्वेसर्वा बनाया गया तो अम्बारी से राजा को हटाकर उनकी जगह माता चामुंडेश्वरी देवी की प्रतीमा को दे दी गई।


कैसे शुरू हुई दशहरे को शाही परम्परा
मैसूर राज परिवार के रिसर्चर और लेखक प्रोफेसर नानजे राजा उर्स के मुताबिक विजय नगर एम्पायर के सबसे पराक्रमी राज कृष्णदेव राय अपने समय के शक्तिशाली सम्राट माने जाते थे। उन्हें अच्छी तरह पता था कि अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए समकालीन राजा महाराजाओं पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाए रखना जरूरी है। ऐसे में 1515 ईस्वी के आसपास उन्होंने दशहरे को राजशाही अंदाज में मनाने का ऐलान किया और अपने मातहत सभी राजाओं को हुक्म दिया कि इस मौके पर अपने दल बल के साथ श्रीरंगपट्टनम आएं। दूसरे प्रदेशों के राजा जब एक बड़ी फौज एक झंडे के नीचे देखते तो कृष्ण देव राय को चुनौती देने का साहस नहीं जुटा पाते।
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सन 1565 ईस्वी में विजयनगर एम्पायर के पतन के बाद जब मैसूर स्वतंत्र राज्य बन गया और बाद में राजधानी मैसूर बना तो विजय नगर साम्राज्य की परम्परा कायम रही और इस तरह मैसूर दशहरा शाही रीती रिवाज के साथ आगे बढ़ता गया। हर धर्म और सम्प्रदाय के लोग इससे जुड़ते गए क्योंकि इसमें खैलकूद और सांस्कृतिक कार्यक्रमों को तरजीह दी गई। स्थानीय कलाकारों और खिलाड़ियों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिला और बाजार भी। मैसूर दशहरा मनाया जाता है माता चामुंडेश्वरी देवी के हाथों महिसासुर नाम के  राक्षस के वध की याद में, यानी अच्छाई की बुराई पर जीत।


सरकार के हाथ में दशहरे का संचालन
संविधान के 26 संशोधन के बाद 1971 में मोनार्की खत्म कर दी गई और उनकी जगह देश के राष्ट्रपति ने ले ली। इसी के साथ 1972 से दशहरे के आयोजन में कई बदलाव आए। राज्य सरकार ने इसे 'नादा हब्बा' यानी राजपर्व घोषित कर बजट में इसके लिए हर साल राशि देनी शुरू कर दी। अब राजमहल में शाही दशहरा शाही अंदाज में राज परिवार मनाता है तो बाहर होने वाले आयोजन का जिम्मा राज्य सरकार का होता है।

राज परिवार पर अभिशाप का साया
वाडेयार ने 1612 में विजयनगर एम्पायर के महाराजा तिरुमलराजा को हराकर यदु राजवंश की मैसूर में स्थापना की थी। तिरुमलराजा की पत्नी रानी अलमेलम्मा गहने लेकर जंगल में छिप गई, लेकिन वाडेयार के सैनिकों ने उन्हें ढूंढ निकाला। अपने को चारों तरफ से घिरा देख रानी अलमेलम्मा ने कावेरी नदी में छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। वह जाते-जाते ये श्राप दे गईं कि जिसने मेरा नाश किया है उस वंश में अब कभी उत्तराधिकारी पुत्र पैदा नहीं होगा। इसके बाद कभी भी वाडेयार राजा-रानी को पुत्र नहीं हुआ। यह सिलसिला पिछले तकरीबन साढ़े पांच सौ  सालों से बदस्तूर जारी है। राजवंश की महारानियों को राज परिवार के किसी सदस्य को वारिस के तौर पर गोद लेना पड़ता है।