सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने राजद्रोह के कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर 27 जुलाई तक टाल दी है. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से दो हफ्ते में जवाब दाखिल करने को कहा है. केंद्र ने जवाब के लिए और समय मांगा था. इससे पहले 30 अप्रैल को राजद्रोह की धारा (Sedition Law) का परीक्षण करने सुप्रीम कोर्ट को तैयार हो गया था. सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी धारा 124 ए की वैधता की जांच करने का फैसला किया था. जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस इंदिरा बनर्जी और जस्टिस के एम जोसेफ की तीन जजों वाली बेंच ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था.
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दो पत्रकारों मणिपुर के किशोरचंद्र वांगखेम और छत्तीसगढ़ के कन्हैया लाल शुक्ला की याचिका पर ये नोटिस जारी किया है. इसमें बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए इस प्रावधान को चुनौती दी गई थी. खंडपीठ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1860 की धारा 124-ए को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी. इसके तहत राजद्रोह के अपराध में सजा दी जाती है. याचिका में दावा किया गया कि धारा 124-ए बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है, जो कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) के तहत प्रदान किया गया है.
याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि वे अपनी संबंधित राज्य सरकारों एवं केंद्र सरकार पर सवाल उठा रहे हैं. सोशल मीडिया मंच फेसबुक पर उनके द्वारा की गईं टिप्पणियों एवं कार्टून साझा करने के चलते 124-ए के तहत उनके विरूद्ध FIR दर्ज की गई हैं. याचिकाकर्ताओं ने इस कानून के दुरुपयोग का आरोप भी लगाया है. याचिका में कहा गया है कि 1962 से धारा 124 A के दुरुपयोग के मामले लगातार सामने आए हैं.
इसमें कहा गया कि एक कानून का दुरुपयोग भले ही कानून की वैधता पर सवाल नहीं हो सकता है. लेकिन वर्तमान कानून की अस्पष्टता और अनिश्चितता की ओर इशारा करता हैयाचिका में कहा गया कि दुनिया भर के तुलनात्मक उपनिवेशवादी लोकतांत्रिक न्यायालयों में राजद्रोह की धाराओं को निरस्त कर दिया गया है. जबकि भारत खुद को लोकतंत्र कहता है, लेकिन पूरी लोकतांत्रिक दुनिया में राजद्रोह के अपराध को अलोकतांत्रिक, अवांछनीय और अनावश्यक बताया गया है.
याचिका में यह भी तर्क दिया गया है कि धारा 124-ए की अस्पष्टता व्यक्तियों के लोकतांत्रिक स्वतंत्रता पर एक अस्वीकार्य प्रभाव डालती है, जो वहां आजीवन कारावास के डर से वैध लोकतांत्रिक अधिकारों और स्वतंत्रता का आनंद नहीं ले सकते हैं. वर्ष 1962 में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में कानून की वैधता को बनाए रखने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला देते हुए याचिकाकर्ता ने कहा कि अदालत लगभग छह दशक पहले की अपनी खोज में सही हो सकती है, लेकिन कानून आज संवैधानिक आदर्श पारित नहीं करता है.
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