सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को उपभोक्ता फोरम (Consumer Forum) में खाली पदों पर भर्तियों के मामले में स्टेटस रिपोर्ट दाखिल न करने को लेकर फटकार लगाई है. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को चेतावनी देते हुए कहा कि अगर अगली बार भी स्टेटस रिपोर्ट दाखिल नहीं हुई तो 2 लाख रुपए का जुर्माना लगाया जाएगा और यह संबंधित अधिकारियों से वसूला जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर राज्य अवमानना का नोटिस नहीं चाहते तो डेडलाइन का पालन करें. मामले में अगली सुनवाई एक दिसंबर को होगी. उपभोक्ता फोरम में खाली पदों पर भर्तियों को लेकर 22 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से नाराजगी जताई थी. सरकार की उदासीनता और मनमानी से खिन्न सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की थी. कोर्ट ने कहा था, "ये कोई अच्छी स्थिति नहीं है कि खाली पदों पर भर्ती को लेकर भी कोर्ट को ही दखल देना पड़े. अगर सरकार ट्राइब्यूनल्स और उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग जैसे अहम संस्थानों को नियमानुसार नहीं चलाना चाहती तो उन्हें खत्म ही कर दे. फिर तो सरकार को ट्राइब्यूनल्स एक्ट ही खत्म कर देना चाहिए."
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उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग और समितियों में खाली पड़े पदों की लगातार बढ़ती संख्या पर सुओ मोटो यानी स्वत: संज्ञान लेते हुए जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने सुनवाई के दौरान असंतोष जताते हुए कहा कि ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट को सरकार से इस खाली पदों पर समय से भर्तियों और अन्य व्यवस्थाओं की बाबत बार बार कहना पड़ रहा है. हमारी ऊर्जा तो अपने न्यायक्षेत्र को इन ट्राइब्यूनल में खाली जगहों का पता लगाने और भर्ती के इंतजाम करने में ही खप जाती है. कोर्ट तक लोग खाली पदों को भरने के आदेश देने की अर्जी लेकर आते हैं. ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. राज्य और जिला स्तरीय उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग और समितियों में बड़ी संख्या में खाली पड़े पदों पर भर्ती न होने से लोग परेशान हैं. वर्षों से लंबित अर्जियां यूं ही पड़ी हैं, लेकिन सरकारें निश्चिंत हैं.
गौरतलब है कि जस्टिस कौल और जस्टिस सुन्दरेश की पीठ ने सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों को आठ हफ्ते में हर एक जिला उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोगों और समितियों में खाली पद भरने का आदेश दो महीने पहले 11 अगस्त को दिया था. शुक्रवार को जब सुनवाई शुरू हुई तो गोपाल शंकर नारायण ने कोर्ट का ध्यान ट्राइब्यूनल्स एक्ट में प्रस्तावित संशोधन पर खींचते हुए सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया. शंकरनारायण ने कहा कि मद्रास बार एसोसिएशन मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खुलेआम उल्लंघन करते हुए केंद्र सरकार ये सब कर रही है.
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उधर सरकार का पक्ष रखते हुए एएसजी अमन लेखी ने कहा कि दरअसल देखा जाए तो संशोधन विधेयक सुप्रीम कोर्ट के मद्रास बार एसोसिएशन वाले मामले में दिए गए फैसले का पूरक हैं, लेकिन कोर्ट की टिप्पणियों से साफ हो गया कि लेखी की दलीलों का कोर्ट पर कोई असर नहीं पड़ा. पीठ ने कहा कि ऐसा लगता है कि हम अपने फैसले में कुछ और कह रहे हैं सरकार कुछ और ही कर रही है. कहा कुछ और जा रहा है. इस सबके बीच आम जनता परेशान हो रही है.
हाल ही बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने भी अपने फैसले में उपभोक्ता संरक्षण नियम 2020 के कुछ प्रावधानों को रद्द किया था, जिनमें राज्य और जिला उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्तियों के प्रावधान में बदलाव किया गया है. हाईकोर्ट ने पाया कि नियम 3(2) के अनुसार राज्य स्तरीय आयोग के अध्यक्ष और सदस्य पद पर नियुक्ति के लिए उम्मीदवार का कम से कम 20 साल का और नियम 4 (2) c के मुताबिक जिला स्तरीय आयोग के अध्यक्ष और सदस्य पद पर कम से कम 15 साल का अनुभव जरूरी है. इसके अलावा नियम 6(9) के मुताबिक उस चयन समिति को भी अक्षम और निष्क्रिय कर दिया गया है, जो आयोग के कार्य और प्रक्रियाओं के साथ ही आयोग की जरूरतों के मुताबिक सिफारिश भी करती है.
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वैसे सुप्रीम कोर्ट में ट्राइब्यूनल्स के खाली पदों पर चीफ जस्टिस एनवी रमना की अगुआई वाली पीठ ने कई बार सरकार को निष्क्रियता और उदासीनता के लिए फटकार लगाई थी. सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल 14 जुलाई में केंद्र सरकार के ट्राइब्यूनल्स नियमों में संशोधन के लिए संसद में पेश वित्त विधेयक 2017 की धारा 184 रद्द कर दी थी. उस विधेयक में ट्रिब्यूनल सुधार के साथ एकरूपता और सेवा शर्तों का नियमन करने का अध्यादेश था. इसमें ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष और सदस्य का कार्यकाल चार साल तय कर दिया था.
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