
जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के बिहार के बेगूसराय के लोकसभा चुनाव लड़ने की खबरें चर्चा में हैं. खुद कन्हैया ने स्पष्ट कोई बयान तो नहीं दिया है, मगर चुनाव से पीछे हटने के भी संकेत नहीं दिए हैं. इन चर्चाओं के बीच अब उनके राजनीतिक भविष्य को लेकर भी लोग अटकलें लगाने लगे हैं. इसी कड़ी में लालू यादव की पार्टी राजद के वरिष्ठ उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने कन्हैया कुमार को सुझाव दिया है. कहा है कि उन्हें चुनाव लड़ने की जगह पांच से दस साल अभी अपनी पार्टी को ताकतवर बनाने में लगाना चाहिए. उन्होंने कहा है कि वह अपने युवा साथी को बिन मांगे यह सलाह वरिष्ठ होने की हैसियत से दे रहे हैं. शिवानंद तिवारी ने कन्हैया को लेकर अपने विचार को फेसबुक पर साझा किया है.
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...कन्हैया कुमार चुनाव लड़ने के लिए इतना बेचैन क्यों हैं. काफ़ी पुरानी बात है. उस ज़माने में लोहिया विचार मंच का मैं कार्यकर्ता हुआ करता था.किशन पटनायक हमारे नेता थे. लोहिया के बाद समाजवाद की उस धारा का मैं उनको मौलिक चिंतक मानता हूं.एक मरतबा बात निकली कि समाजवादी कार्यकर्ता को किस उम्र में चुनाव लड़ना चाहिए. किशन जी का जवाब था कि चालीस की उम्र के पहले चुनाव लड़ना ठीक नहीं है. ऐसा क्यों ? उनका जवाब था कि आदमी जब जवान रहता है तो उसके अंदर एक तरह की आदर्शवादिता रहती है. कुछ कर गुज़रने का जोश और उमंग होता है. उस उम्र में चुनाव लड़ने का अर्थ है उस आदर्शवादिता से समझौता करना.उनके अनुसार चुनाव लड़ने और जीतने के लिए आपको समझौते करने पड़ते हैं. अपनी आदर्शवादिता पर क़ायम रहते चुनाव लड़ना और जीतना संभव नहीं है.
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किशन जी की बात मुझे जंची. उसका प्रभाव था कि उस उम्र में चुनाव लड़ने के दो अवसरों को मैंने अनदेखा किया. पहला अवसर था आपात काल के बाद का विधान सभा चुनाव लड़ने का. उस ज़माने में जनता पार्टी की देश में और विशेष रूप से हिंदी पट्टी में लहर चल रही थी.जनता पार्टी ने मुझे विधान सभा का उम्मीदवार बनाया था.किशन जी की बात मेरी स्मृति में थी. जनता पार्टी का टिकट मैंने लौटा दिया था. दूसरा अवसर उसके तुरंत बाद आया. 1980 के विधान सभा चुनाव के पहले बाबूजी का देहावसान हो गया था. कर्पूरी जी तथा अन्य लोगों ने शाहपुर से विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए मझसे कहा. कर्पूरी जी लोहिया विचार मंच के साथ मेरे जुड़ाव को जानते थे. इसलिए उन्होंने कहा कि मैं चाहूं तो निर्दलीय भी लड़ सकता हूं. वे लोग समर्थन करेंगे. लेकिन मैंने हाथ जोड़ लिया.
1985 में मैं जीवन का पहला चुनाव लड़ा. उस समय मेरी उम्र 42 वर्ष की हो गई थी. चुनाव में उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरने के बाद मैंने किशन जी की बातों का मर्म समझा. मतदाताओं का दबाव और चुनाव जीतने की लालसा आपके आदर्श का बराबर इम्तिहान लेते रहते है.कन्हैया को मैं पसंद करता हूं. उनका प्रशंसक हूं. बग़ैर संसद में गए उनकी एक राष्ट्रीय छवि बन गई है.लोग उनको सुनते हैं. मीडिया उनको पसंद करता है. देश के कितने ऐसे सांसद हैं जिनको यह स्थान और प्रतिष्ठा प्राप्त है. वे अभी बत्तीस साल के हैं. राजनीति की उनकी धारा वामपंथी है. सीपीआइ से जुड़े हैं. एक समय बिहार की सियासत में सीपीआइ एक ताक़त थी. अब वह अतीत की बात हो गई. कन्हैया में एक आकर्षण है. जाति-मज़हब के दायरे को लांघ कर नौजवान उनके पीछे हो जा रहे हैं. क्यों नहीं पांच-दस साल कन्हैया पार्टी को ताक़तवर बनाने में लगाते हैं. पार्टी का ढांचा तो है. लेकिन नेतृत्व पुराना पड़ चुका है. उसमें आकर्षण नहीं बचा है. कन्हैया में आकर्षण है. मुझे लगता है कि चुनाव लड़ने की इच्छा को दबाकर उन्हें इस दिशा में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए. यह मेरी निजी राय है. एक वरिष्ठ के नाते अपने युवा साथी को बिन मांगे सलाह.
- शिवानंद तिवारी
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