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This Article is From Jul 16, 2014

प्राइम टाइम इंट्रो : दिल्ली में सरकार बनाने का दांवपेंच

नई दिल्ली:

नमस्कार मैं रवीश कुमार। राजनीति में नैतिकता चुनाव सापेक्षिकहोती है और व्यावहारिकता सत्ता सापेक्षिक होती है। राजनीति के इस गुणसूत्र यानी डीएनए की खोज मैंने नहीं की है। इसकी खोज आप जनता ने की है जिस पर जमी धूल को झाड़ कर मैं फिर से पेश कर रहा हूं। तो दिल्ली में सरकार बनने के आसार फिर से मंडराने लगे हैं। इस दिशा में बीजेपी ने तमाम संकेतों का प्रक्षेपण कर दिया है। रॉकेट लांच करने के लिए प्रक्षेपण शब्द का इस्तेमाल होता है। आज दोपहर जब राजधानी दिल्ली का टेलिविजन वैदिक काल में अपना कोई गुज़ारा ढूंढ़ रहा था तभी सूखे की मार की खबरों के बीच दिल्ली में सरकार की ख़बर आ गई।

जब हमारे सहयोगी अखिलेश शर्मा ने ख़बर खंडित कर दी यानी ब्रेक कर दी कि दिल्ली में बीजेपी सरकार बनाने की तैयारी कर रही है। पार्टी को विदेश दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वापसी का इंतज़ार है। अखिलेश ने यह भी संकेतों के सहारे सूचित किया कि जगदीश मुखी का नाम मुख्यमंत्री की दौड़ में आगे नजर आ रहा है। प्रो जगदीश मुखी दिल्ली के पुराने नेताओं में से एक हैं। जनकपुरी विधानसभा से सात बार से विधायक हैं और पूर्व वित्तमंत्री सहित विपक्ष के नेता भी रह चुके हैं।

राजनीति को अक्सर उसकी विडंबनाओं में देखना चाहिए। वे भी क्या दिन थे जब शीला दीक्षित और अरविंद केजरीवाल के मुकाबले बीजेपी के पोस्टरों में विजय गोयल विजेता की तरह छाए हुए थे। लेकिन, चुनाव आते-आते विजय गोयल बदल गए और हर्षवर्धन आ गए। नतीजा आया तो हर्षवर्धन साहब आकर भी मंज़िल पर पहुंचने से रह गए।

विजय गोयल राज्य सभा पहुंचे और डॉ हर्षवर्धन लोकसभा जीत गए। दिल्ली के मुख्यमंत्री की उम्मीदवारी छोड़ केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री बन गए।

इस बीच ईमानदार नेता के तौर पर किरण बेदी का नाम भी चलने लगा। राजनीति के प्रति झुकाव वाला उनका ट्वीट भी नाम को और चला गया। लेकिन, बीजेपी के अध्यक्ष पद पर सतीश उपाध्याय आ गए। बीजेपी के चुनाव प्रभारी नितिन गडकरी भी नागपुर से जीतकर केंद्रीय मंत्री बने।

अब प्रो जगदीश मुखी का नाम आया है। पता नहीं पहले वालों का नाम भी आएगा या नहीं। बीजेपी को भले ही दिल्ली की सत्ता नहीं मिली, मगर बीजेपी में सत्ता परिवर्तन ज़बरदस्त हुआ। आम आदमी पार्टी के अनुसार बीजेपी उसके विधायकों को खरीदने में लगी है। कांग्रेस ने या कांग्रेस के किसी विधायक ने ऐसे आरोप नहीं लगाए हैं कि बीजेपी उन्हें या उनके विधायकों को खरीदना चाहती है। जिस दिल्ली में टमाटर साठ रुपये किलो हो उस दिल्ली में विधायकों के लिए खरीदना क्रिया का प्रयोग नहीं करना चाहिए। तो क्या वाकई बीजेपी अब नए सिरे से सरकार बनाने का दावा करने जा रही है।
विडंबना विपक्ष के खेमे में भी कम नहीं रही। शीला दीक्षित हार कर केरल की राज्यपाल बनी तो नरेंद्र मोदी पीएम बनकर इस्तीफा मांगने लगे। कांग्रेस दिल्ली में लोकसभा की सातों सीट हार गई और देश भर में 44 ही जीत सकी। 14 फरवरी को इस्तीफा देने वाले अरविंद केजरीवाल ने 21 मई तक माफी मांग ली कि सरकार छोड़कर बड़ी गलती हो गई है।

आप को दिल्ली में लोकसभा की एक भी सीट नहीं मिली मगर चार सांसद मिले। आप ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश की थी। लेकिन, केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति शासन लगा दिया। इसके खिलाफ आम आदमी पार्टी सुप्रीम कोर्ट चली गई जिसे अदालत ने संविधान पीठ के पास भेज दिया है, जहां 4 अगस्त को सुनवाई होगी। संविधान पीठ को यह तय करना है कि क्या वो उप राज्यपाल या राष्ट्पति को निर्देशित कर सकती है कि दिल्ली में चुनाव कराये जायें। मगर संविधान पीठ में भेजने से पहले कि एक सुनवाई में अदालत ने एक टिप्पणी की थी कि राजनीति में कुछ भी हो सकता है। शुरू में कांग्रेस ने बीजेपी को बाहर रखने के लिए आप का समर्थन किया। अगर आप उनकी बड़ी दुश्मन बन जाती है तो आप को बाहर रखने के लिए बीजेपी से गठबंधन कर सकती है। वैसे भी दिल्ली विधानसभा में दोनों ने मिलकर जनलोकपाल बिल को पेश नहीं होने दिया था। विधानसभा में जैसी घटना घटी उससे तो कुछ भी असंभव नहीं लगता। यहां तक कि कांग्रेस और बीजेपी भी किसी तरह मिलकर सरकार बना सकते हैं।

शब्दश: तो नहीं मगर यह टिप्पणी भविष्यवाणी बनती दिख रही है। कांग्रेस समर्थन भले न करे मगर टूटे तारों की तरह उसके विधायक बीजेपी की सरकार बनवा सकते हैं। इसी सुनवाई के संदर्भ में एक और बात हुई। अरविंद केजरीवाल ने उप-राज्यपाल को लिख दिया कि एक हफ्ता तक विधानसभा भंग न करें जबकि अदालत में याचिका लगाई थी कि भंग हो। सिक्का रूपी नैतिकता के हेड भी हैं और टेल भी। 9 दिसंबर 2013 को डॉक्टर हर्षवर्धन का बयान है कि अगर दूसरी कोई पार्टी सरकार बनाने के लिए तैयार नहीं है तो न ही हम उन्हें परेशान करेंगे न ही हम खरीद फरोख्त करेंगे।

तो अब बीजेपी क्यों कह रही है कि उपराज्यपाल बुलाएंगे तो देखेंगे। आखिर लोकसभा में प्रचंड बहुमत वाली बीजेपी दिल्ली में चुनाव की बात क्यों नहीं करती है। कहीं खरीद फरोख्त को टूथपेस्ट की तरह नए नाम से लांच तो नहीं किया जा रहा है। कांग्रेस ने आप को दोबारा समर्थन न देकर सरकार बनाने के हर गणित को असंभव बना दिया है। चैनलों पर फिर से वही ग्राफिक्स बोर्ड बनने लगे हैं।

70 सीटों की विधानसभा में बीजेपी और अकाली के पास 32 सीटें थीं। हर्षवर्धन, प्रवेश वर्मा, रमेश विधूड़ी के सांसद बनने से संख्या 28 हो गई है। अकाली दल और बीजेपी की संयुक्त संख्या 29 हो गई है। एक निर्दलीय और आप से निष्कासित विधायक से संख्या 31 हो जाती है। दलबदल कानून से बचने के लिए कांग्रेस के आठ में से छह को टूटना होगा। इस तरह से बीजेपी की सरकार बन जाती है।

सूत्र कहते हैं कि बीजेपी आप के विधायकों से संपर्क में नहीं है। ये कमाल की सूत्रीय सूचना है। आप के विधायकों के संपर्क में नहीं है तो क्या यह माना जाए कि कांग्रेस के विधायकों के संपर्क में हैं। खैर। कांग्रेस कह रही है कि उसके विधायक नहीं टूट रहे हैं। अब इस खेल में हमारे सहयोगी रवीश रंजन शुक्ला एक और एंगल लेकर आ गए हैं। कांग्रेस के छह विधायक रामवीर सिंह विधूड़ी के संपर्क में हैं।

विधूड़ी जी, मुखी जी का हिस्सा मारकर खुद सीएम बनना चाहते हैं। छह विधायकों के ज़रिये बीजेपी नेतृत्व पर दबाव डाल रहे हैं। कहीं, दिल्ली में जगदंबिका पाल मोमंट न हो जाए जब 1998 में जगदंबिका पाल एक दिन के लिए सीएम बन गए थे। हमारी राजनीति में दलबदल के किस्से इतने हैं कि नैतिकता के हर सवाल एक दूसरे कट मर जाते हैं। आइये प्राइम टाइम में सरकार बनाते हैं। सरकार तो बनी नहीं नैतिकता ही ढोंग बन गई है।
 

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