नमस्कार मैं रवीश कुमार। कभी-कभी कोई राजनीतिक विवाद अपनी प्रकृति में दिशाहीन और चुनावी होते हुए भी हम सबको उसके ज़रिये इतिहास के एक ऐसे दौर में जाने का मौका देता है, जहां पहुंचकर आपको खुद से सवाल करना पड़ता है कि क्या हम उन कुर्बानियों की भावनाओं को जी रहे हैं। भावुक होने के नाम पर हम कहीं से भी तलवार लेकर कूद पड़ते हैं, मगर ज़रा पन्ने पलटिये तो हमारी भावुकता खोखली नज़र आने लगती है।
हरियाणा और पंजाब की सरकारों में इस बात को लेकर तनातनी हो रही है कि हरियाणा के गुरुद्वारों के प्रबंधन को शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी के नियंत्रण से वापस लिया जा सकता है या नहीं। वतर्मान का यह किस्सा कोई सौ साल पहले के अतीत के दरवाज़े खोल देता है।
ब्रिटिश हुकूमत से पहले गुरुद्वारा प्रबंधन जैसी कोई बात नहीं थी। ये ज़रूर था कि अंग्रेजों के आने से पहले कई महाराजाओं और जागीरदारों ने ज़मीनें और तमाम संपत्तियां इन गुरुद्वारों के नाम कर दी थी। जब अंग्रेजों ने इस सबका रिकॉर्ड बनाना शुरू किया, तब कई महंतों ने तमाम जायदादों को अपने नाम दर्ज करवा लिया। इन महंतों पर निगरानी रखने के लिए 22 दिसंबर 1859 को अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर एक बैठक बुलाते हैं और 9 लोगों की एक कमेटी को मान्यता दे दी जाती है।
1920 के वक्त से सिंह सभा गुरुद्वारा सुधार को अपने हाथ में लेती है और महंतों से गुरुद्वारों को आज़ाद कराने के लिए जत्थे भेजे जाते हैं। सिंह सभा स्वर्ण मंदिर के महंत की मौत के बाद सिंह सभा डिप्टी कमिश्नर पर दबाव डालती है कि नई कमेटी सिख समाज के मशवरे से ही बने। इससे पहले दिल्ली में एक घटना होती है।
साल 1912 में राजधानी दिल्ली बनाने के लिए रकाबगंज गुरुद्वारा से संबद्ध ज़मीन का अधिग्रहण होता है। इस बात को लेकर सिख समाज में आक्रोश फैल जाता है। इस फैसले के खिलाफ लाहौर में सेंट्रल सिख लीग ब्रिटिश हुकूमत से असहयोग का एलान कर देती है। दबाव में आकर अंग्रेजी हुकूमत को गुरुद्वारा रकाबगंज की ज़मीन लौटानी पड़ती है। जत्थों का महंतों के कब्ज़े से गुरुद्वारों का प्रबंधन छुड़वाना जारी रहता है।
15 नवंबर 1920 को अकाल तख्त से घोषणा होती है कि 175 लोगों की कमेटी बनेगी जिसका नाम होगा शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी। 1925 में पंजाब असेंबली एसजीपीसी एक्ट पास कर देती है। 1920 से 25 के बीच का अकाली गुरुद्वारा सुधार आंदोलन हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई का भी एक शानदार हिस्सा है, जिसकी हर जानकारी आपको बेहतर नागरिक बनने में मदद कर सकती है। इस वक्त एसजीपीसी पंजाब हरियाणा हिमाचल प्रदेश और चंडीगढ़ के गुरुद्वारों का प्रबंधन करती है।
अकाली दल का आंदोलन पूरी तरह अहिंसक आंदोलन था। कई जगहों पर जत्थों ने जो कुर्बानियां दीं, उसके किस्से जलियांवाला बाग की शहादत से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं, लेकिन यह लड़ाई सिर्फ सिख कौम की नहीं थी। हिन्दू-मुस्लिम, उत्तर भारतीय- दक्षिण भारतीय तमाम बड़े नेताओं ने भी शिरकत की और अपना समर्थन दिया।
अमृतसर का गुरु का बाग। इसे कब्जे में लेने के लिए कई दिनों तक अकाली जत्था हर ज़ुल्म सहता रहा, मगर हिंसा की कोई घटना नहीं हुई। कांग्रेस पार्टी प्रस्ताव पास कर इस सहनशीलता की सराहना करती है और इसे देखने सी एफ एंड्रूज भी अमृतसर जाते हैं। एक घटना और होती है। अमृतसर का डीसी एसजीपीसी के अध्यक्ष बाबा खड़क सिंह से स्वर्ण मंदिर के खजाने की चाबी ले लेता है। बाबा खड़क सिंह पर देशद्रोह का मुकदमा दायर होता है और बड़ी संख्या में अकालियों को जेल होती है। लेकिन सिख समाज के आंदोलन से सरकार पीछे हटती है और चाबी वापस कर देती है।
महात्मा गांधी इसे पहली निर्णायक जीत कहते हैं। इस आंदोलन में उस समय की तमाम धाराएं शामिल थीं- कम्युनिस्ट, आर्यसमाजी, कांग्रेसी। भगत सिंह ने उन जगहों पर जाकर देखा था, जहां मोर्चे लगे थे। उनके वैचारिक विकास में इस आंदोलन का भी असर था। जवाहरलाल नेहरू खुद भी एक गुरुद्वारे को आज़ाद कराने के जत्थे में शामिल होते हैं और जेल की सज़ा काटते हैं। डॉक्टर सैफुद्दीन किचलू ने तो इस कदर शिरकत की थी कि तब के अकाली नेता उन्हें किचलू सिंह बुलाया करते थे।
थोड़ा इतिहास ज़रूरी है। अब अकाली दल भी वह अकाली दल नहीं रहा। यह एक राजनीतिक दल है, मगर देश का सबसे पुराना क्षेत्रीय दल। अकाली दल को इस बात से सख्त एतराज़ है कि हरियाणा के मुख्यमंत्री हुड्डा कैसे अपने राज्य के गुरुद्वारों को एसजीपीसी के नियंत्रण से वापस ले सकते हैं। 6 जुलाई को कैथल में सिख समाज की एक सभा में उन्होंने एलान कर दिया कि हरियाणा सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी बनाई जाएगी। शिरोमणी अकाली दल ने इसे कांग्रेस की साजिश कहा कि वह सिख समाज को बांटना चाहती है। आरोप लगा कि हुड्डा हरियाणा के 47 लाख सिखों के वोट के लिए यह सब करना चाहते हैं।
एसजीपीसी के नियंत्रण में इस वक्त हरियाणा के 72 गुरुद्वारे हैं इनमें से आठ ऐतिहासिक महत्व के हैं, जिनका राजस्व एक अखबार की रिपोर्ट के अनुसार 950 करोड़ सालाना है। एसजीपीसी का कहना है कि रकम इतनी नहीं है। खैर आरोप प्रत्यारोप में एक यह भी है कि एसजीपीसी पैसे के कारण अपना नियंत्रण खोना नहीं चाहती है।
हुड्डा ने यह मुद्दा 2009 के विधानसभा चुनाव मे भी उठाया था। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा है कि जब दिल्ली में अलग एसजीपीसी हो सकती है, तो हरियाणा में क्यों नहीं। हमारी सरकार ने कुछ गलत नहीं किया। अकाली चाहें तो अदालत जा सकते हैं। अकाली दल के लोग राजनाथ सिंह से मिलकर केंद्र से गुहार कर रहे हैं कि हरियाणा सरकार को ऐसा करने से रोका जाए। अकाली दल ने भी 27 जुलाई को अमृतसर में सिखों का सम्मेलन बुलाया है। दूसरी तरफ एसजीपीसी की टास्क फोर्स के सिख और निहंग ने तलवार भालों के साथ हरियाणा के गुरुद्वारों पर जमा हो गए हैं। एसजीपीसी को आशंका है कि हुड्डा सरकार अपनी पुलिस लगाकर उनसे गुरुद्वारे खाली करवा सकती है।
एसजीपीसी एक्ट पंजाब एसेंबली का पास किया हुआ कानून है जो प्रांतीय है। एसजीपीसी देश के सभी गुरुद्वारों का प्रबंधन नहीं करती है। पाकिस्तान के गुरुद्वारे इसकी ज़द से बाहर हैं। बिहार का पटना साहिब और महाराष्ट्र के नांदेड स्थित हुज़ुर साहिब का अपना ही प्रबंधन है। दिल्ली सिख गुरुद्वारा एक्ट अलग कानून है, जिससे बनी है दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी। अब यह लड़ाई कानूनी धार्मिक कांग्रेस बनाम अकाली केंद्र बनाम राज्य तमाम प्रकार के रूप ले चुकी है।
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