नमस्कार मैं रवीश कुमार। क्या आपको इस बात से फर्क पड़ता है कि जिस कंपनी से बीमा कराते हैं उसमें 49 फीसदी विदेशी हिस्सेदारी हो या 26 फीसदी? क्या आपको इस बात से फर्क पड़ता है कि आर्थिक मंदी के वक्त कई बीमा कंपनियां जब डूब रही थीं तो भारत की बीमा कंपनियों का जलस्तर ख़तरे के निशान से ऊपर था, जिसमें 26 फीसदी हिस्सेदारी विदेशी कंपनियों की थी। यह मामला बेहद तकनीकी और जटिल है, मगर अच्छा वोटर बनने के लिए टफ टॉपिक से सर भिड़ाना ही पड़ता है। राम−बलराम फिल्म की तरह कांग्रेस-बीजेपी कभी विरोध करती हैं, तो कभी समर्थन। ये दोनों इस मामले में इतनी बार पलट चुके हैं कि इनके स्टैंड को अब इश्योरेंस की ज़रूरत है।
मोदी सरकार अड़ी है कि इसी सत्र में बीमा सेक्टर में विदेशी निवेश का बिल पास हो जाए। यही कांग्रेस भी चाहती थी, मगर विपक्ष में आते ही विरोध की भूमिका में आ गई, क्योंकि बीजेपी ने भी यही किया था।
सरकार हर तरह की चर्चा के लिए तैयार है। आज सभी दलों की बैठक भी बुलाई मगर नतीजा नहीं निकला, तो राज्य सभा में बिल पेश नहीं किया। 2008 से यह बिल राज्य सभा में इधर से उधर हो रहा है। बीजेडी, एनसीपी समर्थन में हैं। तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा, जेडीयू और लेफ्ट विरोध में।
सरकार का कहना है कि ज़रूरत पड़ी तो वह संसद का संयुक्त सत्र बुला सकती है। सरकार ऐसा इसलिए सोच रही है, क्योंकि राज्यसभा में उसके पास बहुमत नहीं है। संयुक्त सत्र बुलाने से उसकी स्थिति बेहतर हो जाती है। विरोधी दल चाहते हैं कि इस बिल को राज्य सभा की सलेक्ट कमेटी में भेजा जाए मतलब कुछ महीनों की और देरी। सरकार इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं है। लोकसभा की स्टैंडिंग कमेटी में भी यह बिल जा चुका है, जिसकी रिपोर्ट 2011 में आई थी।
बीमा विरोध का इतिहास बेहद बोरिंग है। 2004−05 के बजट भाषण में पी. चिदंबरम ने एफ़डीआई 26 प्रतिशत से 49 प्रतिशत करने का प्रस्ताव किया तब लेफ्ट के साथ बीजेपी विरोध कर रही थी। बीजेपी ने यह विरोध 2013 तक किया। तब राज्य सभा में अरुण जेटली इसके विरोध में मोर्चा संभाले हुए थे। अब बीजेपी इस बिल को लाना चाहती है तो लेफ्ट के साथ कांग्रेस विरोध कर रही है।
2011 में स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट पेश हुई तो उसके अध्यक्ष यशंवत सिन्हा थे। यशवंत सिन्हा ने स्टैंडिंग कमेटी की राय को बीजेपी की राय बताया था जिसका कहना था कि मौजूदा ग्लोबल दौर में विदेशी निवेश की सीमा में कोई भी वृद्धि भारतीय बीमा उद्योग के हित में नहीं है। इससे आम आदमी को भी लाभ नहीं होगा। बीमा कंपनियों को घरेलू बाज़ार से ही पूंजी जुटानी चाहिए।
वहीं दो सितंबर 2012 के बिजनेस स्टैंडर्ड में यशवंत सिन्हा का एक इंटरव्यू छपा है, जिसमें वह कहते हैं कि वित्तीय सेक्टर की हालत को देखते हुए हमें बैंकिंग और बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश को 26 प्रतिशत तक ही सीमित रखना चाहिए। बीजेपी स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट से सहमत है। हम बीमा और पेंशन क्षेत्र में 49 फीसदी विदेशी निवेश के हक में नहीं है। अगर सरकार किसी विधेयक के जरिये इसे लागू करने का प्रयास करेगी तो हम विरोध करेंगे।
इससे पहले वाजपेयी सरकार के समय भी 49 प्रतिशत करने का प्रयास हुआ था, मगर कामयाबी नहीं मिली थी। यशवंत सिन्हा के वित्त मंत्री रहते 1999−2000 में बीमा सेक्टर प्राइवेट कंपनियों के लिए खुला था। उसी समय से यह प्रावधान अभी तक कायम है कि वजूद में आने के दस साल बाद बीमा सेक्टर की कंपनियों में 26 फीसदी हिस्सेदारी भारतीय की होनी चाहिए और इतनी ही विदेशी की। शेष 48 फीसदी शेयर भारतीय शेयर बाज़ार में बेचने होंगे।
कांग्रेस इस बिल का विरोध कर रही है मगर इसी 31 जुलाई को पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम का उसी बिजनेस स्टैंडर्ड में इटरव्यू छपा है, जिसमें यशवंत सिन्हा का छपा था। चिदंबरम कहते हैं कि यूपीए की दूरगामी नीतियों के अच्छे परिणाम रहे हैं। सरकार को निरंतरता में देखा जाना चाहिए। हर सरकार को पिछली सरकार के काम का लाभ उठाना चाहिए। मैं उम्मीद करता हूं कि इसी सत्र में बीमा बिल पास हो जाएगा। पर दो साल तक इसका विरोध ही क्यों किया गया? पिछले साल मुझे बताया गया कि बीजेपी यूपीए सरकार में इस बिल को पास नहीं होने देना चाहती है।
अब जनता क्या करे? वह दांव समझे या दलील देखे। वह कांग्रेस को सही माने या बीजेपी को?
2011 की स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट में The All India Insurance Employees Association ने कहा था कि अगर शेयर बाज़ार के ज़रिये भारतीय बीमा कंपनियां पूंजी जुटाएंगी तो विदेशी निवेशकों को पिछले दरवाज़े से घुसने का मौका मिल जाएगा। The All India LIC Employees Federation ने कहा था कि यह दलील लैटिन अमरीकी सरकारों ने दी थी कि विदेशी निवेश आने से बीमा कंपनियों का प्रबंधन बेहतर हो जाएगा, उत्पादकता बढ़ जाएगी और नई तकनीक से लैस हो जाएंगे, मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह सब करने के लिए एफडीआई ही ज़रूरी नहीं है। भारतीय जीवन बीमा निगम अपने स्तर पर इन पैमानों पर खरा उतरता है। दावों के निपटान में एलआईसी दुनिया में बेहतर मानी जाती है।
नेशनल फेडरेशन ऑफ इंश्योरेंस फील्ड वर्कर्स ऑफ इंडिया ने कहा था कि वैश्विक मंदी के समय कई बीमा कंपनियां बर्बाद हो गईं थीं। सब्ज़बाग यह दिखाया जा रहा है कि बीमा सेक्टर में 80 से एक लाख करोड़ तक निवेश आएगा, नौकरियां आएंगी। भारत की प्राइवेट बीमा कंपनियों को भी लाभ होगा। फिलहाल 65 फीसदी हिस्से पर एलआईसी जैसी सरकारी कंपनियों का दबदबा है। पहले से मौजूद विदेशी बीमा कंपनियों को भी विस्तार का लाभ मिलेगा जो 26 फीसदी के कारण पर्याप्त पूंजी और प्रतिभा नहीं ला पा रही हैं।
दलील है कि 90 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इनके पास सामाजिक सुरक्षा नहीं है। कंपटीशन बढ़ेगा तो कम प्रीमियम पर इन्हें बीमा मिल सकता है। क्या आपको इस दलील पर भरोसा है कि वाकई ऐसा होगा असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की इतनी फिकर। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की नौकरी स्थायी नहीं होती, फिर स्थायी प्रीमियम का बोझ कैसे उठा पायेंगे? कई मजदूर संगठन तो इसका विरोध कर रहे हैं। आरएसएस से जुड़ा भारतीय मज़दूर संघ भी विरोध कर रहा है।
हर दल अलग-अलग कारण से विरोध कर रहे हैं। हमें यह समझना होगा पर पहले यह तो समझ आ जाए कि विरोध क्यों कर रहे हैं? खासकर कांग्रेस और बीजेपी आपस में हेड-टेल कब तक खेलते रहेंगे लगता है अब ये खेल बंद। बीजेपी ने हेड चुन लिया है और बिल पास होने की कगार पर है।
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं