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This Article is From Jan 25, 2013

महिला उपेक्षा की चुकानी होगी भारी कीमत : राष्ट्रपति

महिला उपेक्षा की चुकानी होगी भारी कीमत : राष्ट्रपति
नई दिल्ली: राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने शुक्रवार को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संबोधन में जहां देश की विकासगाथा को रेखांकित किया, वहीं लैंगिक असमानता, आर्थिक विकास का लाभ समाज के वृहत्तर वर्ग तक पहुंचने, शिक्षा का लाभ जरूरतमंदों को मिलने की दरकार और भ्रष्टाचार जैसी बुराई से बचने की नसीहत भी दी।

पिछले वर्ष 25 जुलाई को राष्ट्रपति पद संभालने के बाद गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने पहले संबोधन में प्रणब मुखर्जी ने कहा, "अब यह सुनिश्चित करने का समय आ गया है कि प्रत्येक भारतीय महिला को लैंगिक समानता की दृष्टि से देखा जाएगा। हम इस राष्ट्रीय प्रतिबद्धता से भाग नहीं सकते। यदि महिलाओं की उपेक्षा हुई तो इसकी भारी कीमत चुकानी होगी।" उन्होंने कहा, "निहित स्वार्थी तत्व आसानी से आत्मसमर्पण नहीं करते। इसलिए सरकार को 'राष्ट्रीय लक्ष्य' हासिल करने के लिए सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर काम करना चाहिए।" उन्होंने कहा कि यह कार्य आसान नहीं है। 1955 में अधिनियमित हिंदू संहिता विधेयक जैसी पहली बड़ी कोशिश में जो समस्याएं आई थीं, उनकी अलग कहानी है। यह महत्वपूर्ण कानून जवाहर लाल नेहरू तथा बाबा साहेब अंबेडकर जैसे नेताओं की अविचल प्रतिबद्धता से ही पारित हो पाया था। जवाहरलाल नेहरू ने बाद में इसे अपने जीवन की संभवत: सबसे बड़ी उपलब्धि बताया था।

आर्थिक विकास का जिक्र करते हुए राष्ट्रपति ने कहा, "पिछले छह दशकों में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिस पर हम गर्व कर सकते हैं। हमारी आर्थिक विकास दर तीन गुना से अधिक हो गई है। साक्षरता की दर में चार गुना से अधिक वृद्धि हुई है। खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के बाद अब हम खाद्यान्न के निर्यातक हैं। गरीबी की मात्रा में काफी कमी लाई गई है।"

राष्ट्रपति पद पर आसीन होने से पहले केंद्र सरकार में वित्त महकमा देखने वाले प्रणब मुखर्जी ने कहा कि 1947 से भारत ने लंबी यात्रा तय कर ली है। 1947 में पहला बजट महज 171 करोड़ रुपए का था। आज केंद्र सरकार के संसाधन उस बूंद की तुलना में एक महासागर के समान हैं।

राष्ट्रपति ने कहा कि यह सुनिश्चित करना होगा कि आर्थिक विकास के लाभ पर सुविधा संपन्न वर्ग का एकाधिकार न हो जाए, बल्कि इसकी जगह इसका इस्तेमाल भुखमरी, गरीबी और कम आय में गुजारा करने की मजबूरी जैसी बुराइयों से मुकाबला करने में हो।

राष्ट्रपति ने कहा कि धन के सृजन का बुनियादी उद्देश्य हमारी बढ़ती जनसंख्या से भुखमरी, निर्धनता और अल्प-आजीविका की बुराई को जड़ से खत्म करना होना चाहिए। उन्होंने कहा, "आंकड़ों का उन लोगों के लिए कोई अर्थ नहीं होता जिन्हें उनसे लाभ नहीं पहुंचता। हमें तत्काल काम में लगना होगा अन्यथा, वर्तमान में जिन अशांत इलाकों का प्राय: 'नक्सलवादी' हिंसा के रूप में उल्लेख किया जाता है उनमें और अधिक खतरनाक ढंग से विस्तार हो सकता है।"

आर्थिक सुधारों के अगले दौर की तरफ भारत के कदम बढ़ाने के कारण 2012 को परीक्षा का वर्ष रहने का उल्लेख करते हुए राष्ट्रपति ने कहा, "हमें बाजार-आधारित अर्थव्यवस्थाओं की वर्तमान समस्याओं के प्रति जागरूक रहना होगा।" उन्होंने कहा, "बहुत से धनी राष्ट्र अब सामाजिक दायित्व रहित अधिकार की संस्कृति के जाल में फंस गए हैं; हमें इस जाल से बचना होगा। हमारी नीतियों के परिणाम हमारे गांवों, खेतों, फैक्ट्रियों तथा स्कूलों और अस्पतालों में दिखाई देने चाहिए।"

राष्ट्रपति मुखर्जी पिछले महीने राष्ट्रीय राजधानी में हुई सामूहिक दुष्कर्म की नृशंस घटना से आहत दिखे। उन्होंने कहा, "मैं आपको ऐसे समय पर संबोधित कर रहा हूं, जब एक बहुत व्यापक त्रासदी ने हमारी अंतरात्मा को झकझोर डाला है। एक नवयुवती के साथ नृशंस दुष्कर्म और हत्या, एक ऐसी महिला जो कि उदीयमान भारत की आकांक्षाओं का प्रतीक थी, उसके साथ हुई क्रूरता ने हमारे हृदयों को रिक्तता से तथा हमारे मनों को क्षोभ से भर दिया है। हमने एक जान से कहीं अधिक कुछ खोया है, हमने एक सपना खो दिया है। यदि आज हमारे युवा क्षुब्ध हैं तो क्या हम अपने युवाओं को दोष दे सकते हैं?" उन्होंने कहा, "देश का एक कानून है। लेकिन उससे ऊंचा भी एक कानून है। महिला की पवित्रता भारतीय सभ्यता नामक समग्र दर्शन का नीति निर्देशक सिद्धांत है। वेद कहते हैं कि माता एक से अधिक हो सकती हैं, जन्मदात्री, गुरुपत्नी, राजा की पत्नी, पुजारी की पत्नी, हमें दूध पिलाने वाली और हमारी मातृभूमि। मां हमें बुराई और दमन से बचाती है, हमारे लिए जीवन और समृद्धि का प्रतीक है। जब हम किसी महिला के साथ पाशविकता करते हैं तो अपनी सभ्यता की आत्मा को लहूलुहान कर डालते हैं।"

राष्ट्रपति ने कहा कि देश को अपनी नैतिक दिशा को फिर से निर्धारित करने का समय आ गया है। निराशावादिता को बढ़ावा देने के लिए कोई अवसर नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि निराशावाद नैतिकता को अनदेखा करता है। उन्होंने कहा, "हमें अपनी अंतरात्मा में गहराई से झांकना होगा और यह पता लगाना होगा कि हमसे कहां चूक हुई है। समस्याओं का समाधान विचार-विमर्श तथा नजरियों में तालमेल से ढूंढ़ना होगा। लोगों को यह विश्वास होना चाहिए कि शासन भलाई का एक माध्यम है और इसके लिए हमें सुशासन सुनिश्चित करना होगा।"

राष्ट्रपति ने सवाल उठाया कि क्या समर्थवान लालच में पड़कर अपना धर्म भूल चुके हैं? क्या सार्वजनिक जीवन में नैतिकता पर भ्रष्टाचार हावी हो गया है? क्या हमारी विधायिका उदीयमान भारत का प्रतिनिधित्व करती है या फिर इसमें आमूल-चूल सुधारों की जरूरत है?

राष्ट्रपति ने कहा, "हम दूसरे पीढ़ीगत बदलाव के मुहाने पर हैं। गांवों और कस्बों में फैले हुए युवा इस बदलाव के अग्रेता हैं। आने वाला समय उनका है। वे आज अस्तित्व संबंधी बहुत सी शंकाओं से ग्रस्त हैं। क्या तंत्र योग्यता को समुचित सम्मान देता है? क्या समर्थवान लालच में पड़कर अपना धर्म भूल चुके हैं?" उन्होंने कहा कि इन शंकाओं को दूर करना होगा। चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता का विश्वास फिर से जीतना होगा। युवाओं की आशंका और उनकी बेचैनी को तेजी से, गरिमापूर्ण तथा व्यवस्थित ढंग से बदलाव के कार्य में लगाना होगा।

प्रणब ने कहा कि युवा खाली पेट सपना नहीं देख सकते। उनके पास अपनी और राष्ट्र की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए रोजगार होना चाहिए।

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