नई दिल्ली:
सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में उपलब्धियों वाले सरकारी विज्ञापनों में सिर्फ प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और चीफ जस्टिस के फोटो ही छापने के आदेश दिए हैं। इन आदेशों के तहत अब मुख्यमंत्री, राज्यपाल या किसी भी मंत्री और नेता के फोटो नहीं दिए जा सकते, हालांकि कोर्ट ने महात्मा गांधी की फोटो को इससे अलग रखा है। इन आदेशों के बाद सरकारी विज्ञापनों में अपनी उपलब्धियां गिनाते अब न केंद्रीय मंत्री दिखाई देंगे न ही मुख्यमंत्री।
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव से पहले विज्ञापनों पर रोक तो नहीं लगाई, लेकिन 23 अप्रैल 2014 को दी गईं एक्सपर्ट पैनल की कई सिफारिशों को मान लिया। याचिकाकर्ता वकील मीरा भाटिया ने बताया कि इन आदेशों के तहत अब प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और चीफ जस्टिस की तस्वीर भी उनकी इजाजत लेकर ही छापी जा सकती है। इसका असर सीधे-सीधे मीडिया में दिए गए विज्ञापनों के साथ-साथ लगाए जाने वाले होर्डिंग्स पर भी होगा।
अपना फैसला सुनाते हुए जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस एमवी रमना ने कहा कि सरकारी विज्ञापनों में मंत्रियों के फोटो व्यक्ति पूजा की तरह हैं। देश में गरीबी रेखा से नीचे भी लोग हैं और सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े भी हैं।
ऐसे में इस तरह का खर्च पैसे का दुरुपयोग है। कोर्ट में केंद्र सरकार ने इस फैसले का विरोध किया। विपक्षी दल भी इस मामले में केंद्र सरकार के साथ दिख रहे हैं।
बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने कहा कि इस मामले में केंद्र सरकार को दखल देना चाहिए। कोर्ट को इस तरह के आदेश नहीं देने चाहिए।
वहीं कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा, हालांकि जब वह मुख्यमंत्री थे तो उनकी कोई तस्वीर नहीं छपी, लेकिन कोर्ट को ऐसे आदेश नहीं देने चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने नए दिशानिर्देशों के पालन के लिए केंद्र को तीन सदस्यीय कमेटी बनाने का आदेश दिया है। 2003 में दाखिल याचिका में कहा गया कि सरकार चला रही पार्टियां सरकारी विज्ञापनों के ज़रिये राजनीतिक लाभ लेती हैं। इसलिए विज्ञापनों की सामग्री पर नियंत्रण के लिए व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त कमेटी ने गाइडलाइंस कोर्ट में पेश की थीं।
गाइड लाइन्स के मुताबिक, सरकारी विज्ञापन में न तो पार्टी का नाम, न पार्टी का सिंबल या लोगो, न पार्टी का झंडा और न ही पार्टी के किसी नेता का फोटो होना चाहिए। वहीं केंद्र सरकार ने इसका विरोध किया था।
सरकार के मुताबिक, यह मामला जूडिशियल दायरे में नहीं है, क्योंकि चुने गए प्रतिनिधि इसके लिए संसद के प्रति जवाबदेह हैं। केंद्र सरकार का कहना था कि यह कोर्ट कैसे तय कर सकती है कि कोई विशेष विज्ञापन का जारी होना राजनीतिक फायदे के लिए है।
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव से पहले विज्ञापनों पर रोक तो नहीं लगाई, लेकिन 23 अप्रैल 2014 को दी गईं एक्सपर्ट पैनल की कई सिफारिशों को मान लिया। याचिकाकर्ता वकील मीरा भाटिया ने बताया कि इन आदेशों के तहत अब प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और चीफ जस्टिस की तस्वीर भी उनकी इजाजत लेकर ही छापी जा सकती है। इसका असर सीधे-सीधे मीडिया में दिए गए विज्ञापनों के साथ-साथ लगाए जाने वाले होर्डिंग्स पर भी होगा।
अपना फैसला सुनाते हुए जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस एमवी रमना ने कहा कि सरकारी विज्ञापनों में मंत्रियों के फोटो व्यक्ति पूजा की तरह हैं। देश में गरीबी रेखा से नीचे भी लोग हैं और सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े भी हैं।
ऐसे में इस तरह का खर्च पैसे का दुरुपयोग है। कोर्ट में केंद्र सरकार ने इस फैसले का विरोध किया। विपक्षी दल भी इस मामले में केंद्र सरकार के साथ दिख रहे हैं।
बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने कहा कि इस मामले में केंद्र सरकार को दखल देना चाहिए। कोर्ट को इस तरह के आदेश नहीं देने चाहिए।
वहीं कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा, हालांकि जब वह मुख्यमंत्री थे तो उनकी कोई तस्वीर नहीं छपी, लेकिन कोर्ट को ऐसे आदेश नहीं देने चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने नए दिशानिर्देशों के पालन के लिए केंद्र को तीन सदस्यीय कमेटी बनाने का आदेश दिया है। 2003 में दाखिल याचिका में कहा गया कि सरकार चला रही पार्टियां सरकारी विज्ञापनों के ज़रिये राजनीतिक लाभ लेती हैं। इसलिए विज्ञापनों की सामग्री पर नियंत्रण के लिए व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त कमेटी ने गाइडलाइंस कोर्ट में पेश की थीं।
गाइड लाइन्स के मुताबिक, सरकारी विज्ञापन में न तो पार्टी का नाम, न पार्टी का सिंबल या लोगो, न पार्टी का झंडा और न ही पार्टी के किसी नेता का फोटो होना चाहिए। वहीं केंद्र सरकार ने इसका विरोध किया था।
सरकार के मुताबिक, यह मामला जूडिशियल दायरे में नहीं है, क्योंकि चुने गए प्रतिनिधि इसके लिए संसद के प्रति जवाबदेह हैं। केंद्र सरकार का कहना था कि यह कोर्ट कैसे तय कर सकती है कि कोई विशेष विज्ञापन का जारी होना राजनीतिक फायदे के लिए है।
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