प्रतीकात्मक फोटो
नई दिल्ली:
अरुणाचल पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस के खेमे में खुशी लौटी है। हाल ही में उत्तराखंड में लगाए गए राष्ट्रपति शासन को गलत बताने के बाद उच्चतम न्यायालय ने केंद्र के खिलाफ दो महीने के भीतर यह दूसरा बड़ा फैसला सुनाया है। लेकिन राष्ट्रपति शासन यानी धारा 356 के दुरुपयोग के मामले में कांग्रेस पार्टी का रिकॉर्ड भी बहुत अच्छा नहीं है।
संविधान का दुरुपयोग कैसे रुके?
देश में पहली लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को केरल में बर्खास्त करने का काम कांग्रेस ने ही किया था। इसलिए अरुणाचल प्रदेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद एक बार फिर से धारा 356 के गलत इस्तेमाल को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि संविधान के इस दुरुपयोग को रोकने के लिए क्या किया जाए।
विशेष परिस्थितियों में धारा 356 की जरूरत
कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद बुधवार को सीपीएम के नेता प्रकाश करात ने कहा कि हम चाहते हैं कि धारा 356 को तुरंत खत्म करना चाहिए और संसद में इस मामले में पहल की जानी चाहिए। लेकिन सीपीएम के इस प्रस्ताव को अब तक सभी पार्टियों का साथ नहीं मिला क्योंकि संविधान की धारा 356 को खत्म किए जाने पर सारे दल एकमत नहीं हैं और विशेष परिस्थितियों में इसकी जरूरत की बात होती रही है।
बीजेपी शासित चार राज्यों की सरकारें बर्खास्त हुई थीं
सन 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद पीवी नरसिम्हाराव राव ने बीजेपी शासित चार राज्यों में सरकारें बर्खास्त कर दी थीं। इससे पहले भी कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जाता रहा जिसमें 1988 में कर्नाटक में एसआर बोम्मई की सरकार की बर्खास्तगी का मामला शामिल है।
राष्ट्रपति शासन केवल संवैधानिक मशीनरी के फेल होने पर
1994 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बैंच के सामने इन तमाम मामलों को लेकर सुनवाई हुई जिसे बोम्मई केस के नाम से जाना जाता है। बोम्मई केस में धारा 356 की ज़रूरत और गलत इस्तेमाल को लेकर बहस हुई। सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी की सरकारों को बर्खास्त करने राव सरकार के फैसले को सही बताया। कोर्ट ने बोम्मई जजमेंट में कहा कि धारा 356 के इस्तेमाल को अदालत में चुनौती दी जा सकती है। किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन केवल संवैधानिक मशीनरी के फेल होने पर ही लगाया जा सकता है, मामूली कानून और व्यवस्था का बहाना लेकर नहीं। राज्य सरकार के बहुमत का परीक्षण विधानसभा के भीतरी ही होगा बाहर नहीं। राष्ट्रपति शासन लगा तो उसे संसद की सहमति होनी चाहिए।
राज्यपाल निष्पक्ष हों तो रुके अधिकारों का दुरुपयोग
बोम्मई जजमेंट का असर जल्द ही देखने को मिला जब 1997 और 1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने धारा 356 के इस्तेमाल से यूपी और बिहार की सरकारों को बर्खास्त करने के केंद्र के प्रस्ताव को वापस भेजा, लेकिन सवाल यह है कि आखिर समस्या का हल क्या है। पिछले कुछ सालों में लगातार बोम्मई फैसले की अनदेखी होती रही है और राज्यपाल पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करते रहे हैं। इस समस्या का हल यही सुझाया जाता है कि राज्यपाल को चुनने की प्रक्रिया में बदलाव हो और राज्यपाल केंद्र सरकार का नियुक्त किया व्यक्ति बनकर न रह जाए। अगर राज्यपाल निष्पक्ष होंगे तो धारा 356 का बेजा इस्तेमाल होने से रोका जा सकता है।
केंद्र के पास न हो राज्य सरकारों को भंग करने की ताकत
सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने एनडीटीवी इंडिया से कहा कि राज्यपाल को नियुक्त करने और बर्खास्त करने का अधिकार केंद्र सरकार के हाथ में नहीं होना चाहिए और उसकी नियुक्ति का एक वैकल्पिक तरीका होना चाहिए। भूषण के मुताबिक धारा 356 जरूरी है लेकिन यह भी जरूरी है कि राज्यों की चुनी हुई सरकारों को भंग करने की ताकत केंद्र के हाथों होने के बजाय इसके लिए एक स्वतंत्र मैकेनिज्म होना चाहिए।
संविधान का दुरुपयोग कैसे रुके?
देश में पहली लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को केरल में बर्खास्त करने का काम कांग्रेस ने ही किया था। इसलिए अरुणाचल प्रदेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद एक बार फिर से धारा 356 के गलत इस्तेमाल को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि संविधान के इस दुरुपयोग को रोकने के लिए क्या किया जाए।
विशेष परिस्थितियों में धारा 356 की जरूरत
कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद बुधवार को सीपीएम के नेता प्रकाश करात ने कहा कि हम चाहते हैं कि धारा 356 को तुरंत खत्म करना चाहिए और संसद में इस मामले में पहल की जानी चाहिए। लेकिन सीपीएम के इस प्रस्ताव को अब तक सभी पार्टियों का साथ नहीं मिला क्योंकि संविधान की धारा 356 को खत्म किए जाने पर सारे दल एकमत नहीं हैं और विशेष परिस्थितियों में इसकी जरूरत की बात होती रही है।
बीजेपी शासित चार राज्यों की सरकारें बर्खास्त हुई थीं
सन 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद पीवी नरसिम्हाराव राव ने बीजेपी शासित चार राज्यों में सरकारें बर्खास्त कर दी थीं। इससे पहले भी कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जाता रहा जिसमें 1988 में कर्नाटक में एसआर बोम्मई की सरकार की बर्खास्तगी का मामला शामिल है।
राष्ट्रपति शासन केवल संवैधानिक मशीनरी के फेल होने पर
1994 में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बैंच के सामने इन तमाम मामलों को लेकर सुनवाई हुई जिसे बोम्मई केस के नाम से जाना जाता है। बोम्मई केस में धारा 356 की ज़रूरत और गलत इस्तेमाल को लेकर बहस हुई। सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी की सरकारों को बर्खास्त करने राव सरकार के फैसले को सही बताया। कोर्ट ने बोम्मई जजमेंट में कहा कि धारा 356 के इस्तेमाल को अदालत में चुनौती दी जा सकती है। किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन केवल संवैधानिक मशीनरी के फेल होने पर ही लगाया जा सकता है, मामूली कानून और व्यवस्था का बहाना लेकर नहीं। राज्य सरकार के बहुमत का परीक्षण विधानसभा के भीतरी ही होगा बाहर नहीं। राष्ट्रपति शासन लगा तो उसे संसद की सहमति होनी चाहिए।
राज्यपाल निष्पक्ष हों तो रुके अधिकारों का दुरुपयोग
बोम्मई जजमेंट का असर जल्द ही देखने को मिला जब 1997 और 1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने धारा 356 के इस्तेमाल से यूपी और बिहार की सरकारों को बर्खास्त करने के केंद्र के प्रस्ताव को वापस भेजा, लेकिन सवाल यह है कि आखिर समस्या का हल क्या है। पिछले कुछ सालों में लगातार बोम्मई फैसले की अनदेखी होती रही है और राज्यपाल पक्षपातपूर्ण तरीके से काम करते रहे हैं। इस समस्या का हल यही सुझाया जाता है कि राज्यपाल को चुनने की प्रक्रिया में बदलाव हो और राज्यपाल केंद्र सरकार का नियुक्त किया व्यक्ति बनकर न रह जाए। अगर राज्यपाल निष्पक्ष होंगे तो धारा 356 का बेजा इस्तेमाल होने से रोका जा सकता है।
केंद्र के पास न हो राज्य सरकारों को भंग करने की ताकत
सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने एनडीटीवी इंडिया से कहा कि राज्यपाल को नियुक्त करने और बर्खास्त करने का अधिकार केंद्र सरकार के हाथ में नहीं होना चाहिए और उसकी नियुक्ति का एक वैकल्पिक तरीका होना चाहिए। भूषण के मुताबिक धारा 356 जरूरी है लेकिन यह भी जरूरी है कि राज्यों की चुनी हुई सरकारों को भंग करने की ताकत केंद्र के हाथों होने के बजाय इसके लिए एक स्वतंत्र मैकेनिज्म होना चाहिए।
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