सैय्यद अली मंडल
मसालडांगा:
जब उसका जन्म हुआ, तो उसके परिवार वालों ने उसका नाम रखा रुबेल राणा- एक पक्का बांग्लादेशी। लेकिन, 6 साल की उम्र में जब उसने स्कूल जाना शुरू किया तो उसका नाम अनिसुर रहमान हो गया और वो सैय्यद अली मंडल का बेटा बन गया, जो एक भारतीय है और रिश्तेदार भी।
भारत और बांग्लादेश के बॉर्डर के समीप लोग 70 साल रहे हैं। जहां, कुल 162 एन्क्लेव हैं, जिसमें से 111 एन्क्लेव बांग्लादेश में हैं और 51 एन्क्लेव भारत में है। इन सभी एन्क्लेव में कुल 50 हजार से ऊपर लोग रहते हैं। सन 1947 से ये बिना नागरिकता लाभ के यहां अपना गुजर बसर कर रहे हैं।
ना उन्हें स्कूल की सुविधा दी जाती है और ना ही अस्पतालों की। लेकिन, दोनों देशों के अधिकारियों ने बताया कि इस महीने यहां एक सर्वेक्षण आयोजित किया, जिसमें इन लोगों को यह कहा गया है कि वे अपनी सुविधा के आधार पर अपने-अपने देश चुन लें। यह काम शनिवार यानि एक अगस्त से शुरु कर दिया जाएगा।
स्थानीय प्रशासन के एक अधिकारी पी. उलगनाथन ने बताया कि भारत-बांग्लादेश बॉर्डर के पास के कई भारतीय गांव के प्रधान विक्की डोनर बन चुके हैं, जिनका काम है सिर्फ कागजी तौर पर पिता बनना, जिसके लिए वो पैसे भी लेते हैं या यह कह लें कि यही उनका काम है।
उन्होंने बताया कि बॉर्डर के समीप हजारों की तादाद में जो बांग्लादेशी रहते हैं, वो नागरिकता का लाभ उठाने के लिए अपने बच्चों के पिता का नाम कागजी तौर पर दिलवाते हैं, जिससे उनके बच्चों को स्कूल और अस्पताल जैसी सुविधा आसानी से मिल जाए। बता दें, कागजी तौर पर पिता बनने का चार्ज कम से कम 600 रुपये है।
वहीं, डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के अनुसार यहां कुछ ऐसे गांव जहां कागजों के आधार पर एक के 50-50 बच्चे हैं। वहीं, इस गांव की अनुराह चार बच्चों की मां है और वो कहती हैं कि रिकॉर्ड में उनकी सभी बच्चियों के अलग-अलग भारतीय पिता हैं। उसने बताया कि ये काफी तकलीफदेह है कि मैं बच्चों के असली पिता नाम नहीं लिख सकती, पर किया क्या जा सकता है।
भारत और बांग्लादेश के बॉर्डर के समीप लोग 70 साल रहे हैं। जहां, कुल 162 एन्क्लेव हैं, जिसमें से 111 एन्क्लेव बांग्लादेश में हैं और 51 एन्क्लेव भारत में है। इन सभी एन्क्लेव में कुल 50 हजार से ऊपर लोग रहते हैं। सन 1947 से ये बिना नागरिकता लाभ के यहां अपना गुजर बसर कर रहे हैं।
ना उन्हें स्कूल की सुविधा दी जाती है और ना ही अस्पतालों की। लेकिन, दोनों देशों के अधिकारियों ने बताया कि इस महीने यहां एक सर्वेक्षण आयोजित किया, जिसमें इन लोगों को यह कहा गया है कि वे अपनी सुविधा के आधार पर अपने-अपने देश चुन लें। यह काम शनिवार यानि एक अगस्त से शुरु कर दिया जाएगा।
स्थानीय प्रशासन के एक अधिकारी पी. उलगनाथन ने बताया कि भारत-बांग्लादेश बॉर्डर के पास के कई भारतीय गांव के प्रधान विक्की डोनर बन चुके हैं, जिनका काम है सिर्फ कागजी तौर पर पिता बनना, जिसके लिए वो पैसे भी लेते हैं या यह कह लें कि यही उनका काम है।
उन्होंने बताया कि बॉर्डर के समीप हजारों की तादाद में जो बांग्लादेशी रहते हैं, वो नागरिकता का लाभ उठाने के लिए अपने बच्चों के पिता का नाम कागजी तौर पर दिलवाते हैं, जिससे उनके बच्चों को स्कूल और अस्पताल जैसी सुविधा आसानी से मिल जाए। बता दें, कागजी तौर पर पिता बनने का चार्ज कम से कम 600 रुपये है।
वहीं, डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के अनुसार यहां कुछ ऐसे गांव जहां कागजों के आधार पर एक के 50-50 बच्चे हैं। वहीं, इस गांव की अनुराह चार बच्चों की मां है और वो कहती हैं कि रिकॉर्ड में उनकी सभी बच्चियों के अलग-अलग भारतीय पिता हैं। उसने बताया कि ये काफी तकलीफदेह है कि मैं बच्चों के असली पिता नाम नहीं लिख सकती, पर किया क्या जा सकता है।
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