
मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...
बेचारे राहुल के लिए कोई आंसू बहाने वाला होना चाहिए। जब वह नही बोलते, उन पर हमला किया जाता है। जब वह बोलते हैं, उन पर हमला किया जाता है। जब वह कुछ नहीं करते, उन पर हमला किया जाता है। जब वह कुछ करते हैं, उन पर हमला किया जाता है। जब कोई पार्टी महासचिव राहुल से सामयिक मुद्दों पर कुछ कहने का आग्रह करता है, उन पर हमला किया जाता है। जब वही महासचिव खुद कुछ बोल देता है, उन पर हमला किया जाता है। मेरे विचार में राजनीति में ऐसा ही होता है, लेकिन यदि हम समझदारी से काम लेते हुए अंदर बसे पूर्वाग्रहों और बहस करने की काबिलियत को एक तरफ छोड़ दें, तो तर्कसंगत तरीके से अपनी बात कह सकते हैं।
राहुल गांधी हमारी पार्टी के नेता नहीं हैं, उपनेता हैं। इसलिए, उनकी मां इस पार्टी की नेता बनी रहती हैं, उन्हें उसी टीम के साथ चलना होगा, जो उनकी मां ने अपने इर्दगिर्द बनाई है। आखिर, वह उनकी मां हैं - सो, परिभाषा के लिहाज़ से मां और बेटे के बीच सोच में पीढ़ीगत अंतर (जेनरेशन गैप) होता ही है, किसी भी मां और बेटे के बीच। यह जेनरेशन गैप मुझे व्यक्तिगत तौर पर भी कबूल करना होगा, क्योंकि मैं उनके पिता का सहयोगी रहा हूं, और वैसे तो उनके पिता से भी कुछ वर्ष बड़ा ही हूं। मेरी और राहुल की आयु में 30 साल का फर्क है, सो, क्योंकर संभव है कि हम दोनों के बीच जेनरेशन गैप न हो। क्या मैं वर्ष 1911 में पैदा हुए लोगों को अपनी पीढ़ी का मानूंगा - या उन्हें लड़खड़ाती हुई पीढ़ी कहूंगा? वर्ड्सवर्थ ने बहुत पहले गीत लिखा था, 'बच्चे से ही पुरुष का जन्म होता है...' सो, यह कतई स्वाभाविक है कि राहुल अपनी पीढ़ी के लोगों के साथ कतई सामान्य और ज़्यादा सहज महसूस करते हैं। ऐसा सिर्फ राहुल के साथ नहीं, '70 के दशक में पैदा हुए किसी भी व्यक्ति के साथ होगा।
भले ही हम दोनों के बीच 30 साल का फर्क है, लेकिन इसके बावजूद ऐसा नहीं है कि वह मुझे अजूबा समझते हों, या मैं उन्हें दूसरे ग्रह का प्राणी समझता हूं। इसके विपरीत, यहां एक सुखद एहसास होता है कि बागडोर कुशल हाथों में सौंपी जाने वाली है। वह बदलाव होगा, लेकिन निरंतरता बनी रहनी चाहिए। यह विचार किसी भी ऐसे संगठन को जिलाने के लिए काफी होना चाहिए, जिसके पीछे 129 साल का इतिहास है, और कम से कम 129 साल और आगे बना रहेगा।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में जेनरेशन गैप हमेशा से ही स्वाभाविक तौर पर शामिल रहा है, जिसका सबसे मशहूर उदाहरण रहा है, मोतीलाल नेहरू और उनके पुत्र जवाहरलाल नेहरू के बीच का मतभेद, जो भारत के स्वातंत्र्य संघर्ष के उद्देश्य - स्वायत्त प्रदेश अथवा पूर्ण स्वराज - को लेकर हुआ। मोतीलाल का मानना था कि यह अधिक व्यावहारिक होगा, यदि मांग को स्वायत्त प्रदेश के दर्जे तक सीमित रखा जाए, जबकि उनके पुत्र की सोच अलग थी। वर्ष 1927 का अधिकतर हिस्सा जवाहरलाल ने विदेश में बिताया, जबकि उसी दौरान उनके पिता साइमन मिशन के लिए कांग्रेस का वैकल्पिक संविधान तैयार कर रहे थे - साइमन मिशन ब्रिटिश सरकार का सिर्फ अंग्रेजों से बना मिशन था, जिसका काम भारतीयों को ज़्यादा स्वायत्तता देने के रास्तों पर विचार करना था।
सो, जब एक ओर पार्टी के तौर पर कांग्रेस काले झंडे दिखा-दिखाकर और 'साइमन मिशन, वापस जाओ' के नारे लगा-लगाकर साइमन मिशन का बहिष्कार कर रही थी, मोतीलाल नेहरू तब भी साइमन मिशन के लिए कांग्रेस का वैकल्पिक संविधान तैयार करते रहे। जब जवाहरलाल यूरोप से लौटे, और कांग्रेस के वर्ष 1927 में हुए मद्रास अधिवेशन में भाग लिया, जहां उनके पिता पार्टी अध्यक्ष चुने गए, वह (जवाहरलाल) अपने पिता द्वारा तैयार किए गए ड्राफ्ट से बेहद नाराज़ थे, जिसमें कांग्रेस की स्वतंत्रता की मांग को स्वायत्त प्रदेश तक सीमित कर दिया गया था। उन्होंने और उनकी पीढ़ी के अन्य साथियों (विशेष रूप से सुभाषचंद्र बोस) ने 'नेहरू रिपोर्ट' को लेकर मोतीलाल से खुली लड़ाई भी लड़ी, जो उस हद तक पहुंच गई कि मोतीलाल को गांधी जी (राष्ट्रपिता महात्मा गांधी) से आग्रह करने के लिए मजबूर होना पड़ा कि वह रिटायरमेंट छोड़कर साबरमती आश्रम से बाहर आएं, और वर्ष 1928 के कलकत्ता अधिवेशन में पिता-पुत्र के बीच मध्यस्थता करें।
गांधी जी मान गए - लेकिन उन्होंने शर्त रखी कि मोतीलाल के बाद कांग्रेस का अगला अध्यक्ष वही तय करेंगे। जब समय आया, गांधी जी ने जवाहरलाल को अध्यक्ष बनाया, लेकिन उनके द्वारा पूर्ण स्वराज की मांग करने पर पूरे एक साल के लिए रोक लगा दी, ताकि अंग्रेज़ों को इस मांग के बारे में समझाने की कोशिश की जा सके। जब ब्रिटिश कतई नहीं माने, तब जाकर जवाहरलाल नेहरू को 'पूर्ण स्वराज' को लक्ष्य घोषित करने तथा 26 जनवरी, 1930 को लाहौर के निकट रावी नदी के तट पर स्वतंत्रता ध्वज फहराने की अनुमति दी गई।
कांग्रेस में मतभेदों को सकारात्मक तरीके से दूर करने की ऐसी ही परंपरा रही है। ऐसा ही तब हुआ था, जब आज़ादी के तुरंत बाद गांधीवादियों (राजाजी, राजेंद्र प्रसाद आदि सभी) ने युवा नेहरूवादियों को आगे आने दिया; इसी तरह नेहरू के करीबी सहयोगियों - द सिंडीकेट - को इंदिरा की पीढ़ी के लिए पद त्यागने पड़े; फिर उनके कई सहयोगियों ने राजीव के साथियों को रास्ता दिया। ऐसा ही परिवर्तन तब होगा, जब राहुल पार्टी अध्यक्ष बनेंगे। खैर, तब तक नए और पुराने एक साथ ही रहेंगे, और साथ मिलकर, हालांकि अलग-अलग तरीकों से, मई, 2014 में मिली करारी हार से पार्टी को उबारने की दिशा में काम करते रहेंगे।
निस्संदेह, अपरिहार्य रूप से कुछ युवा अथवा बुजुर्ग बेसब्र होते हैं, जबकि कुछ बुजुर्ग भी अपनी पारी समाप्ति की घोषणा करने से कतराते रहते हैं। लेकिन इनमें से किसी का भी अर्थ विद्रोह अथवा टूट नहीं होता। इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि '70 के दशक वाली पीढ़ी धीरे-धीरे '40-'50 के दशक वाली पीढ़ी से कमान अपने हाथों में ले रही है। परंतु राहुल को कुछ दिग्गजों की ज़रूरत तो पड़ेगी, सो, कुछ को दूसरी पारी खेलने का मौका मिल सकता है। सब कुछ इसी तरह चलता है, और खत्म होता है। कोई संकट नहीं है, सिर्फ उस पार्टी में परिवर्तन का दौर है, जिसने भारतीयों की छह पीढ़ियों की सेवा की है, और जिसके पास आंतरिक शक्ति भी है, और पर्याप्त लचीलापन भी है, ताकि शासन करने के लिए स्वाभाविक पार्टी के रूप में अनिश्चितकाल तक अस्तित्व बनाए रखने की खातिर कुछ झटके बर्दाश्त कर सके। वर्तमान वर्ष 1977 और 1989 जैसे मतिभ्रम के सिवा कुछ नहीं है। हम वापस आएंगे, कुछ पुराने और बहुत सारे नए चेहरों के साथ।
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