मणिशंकर अय्यर कांग्रेस की ओर से राज्यसभा सदस्य हैं...
हम में से 99.99 प्रतिशत लोगों के लिए प्रधानमंत्री बन जाना एक नामुमकिन सपने के सच हो जाने जैसा होगा, लेकिन कम लोगों के लिए, बहुत कम लोगों के लिए ऐसा हो जाना कतई मामूली बात है।
सोनिया गांधी ने पुत्रवधू के रूप में एक प्रधानमंत्री के आवास में प्रवेश किया था, दूसरे प्रधानमंत्री के आवास में पत्नी के रूप में रहीं, और अंततः उस स्थिति में पहुंचीं, जहां वह यह तय कर सकीं कि अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा। राहुल गांधी अपनी दादी के प्रधानमंत्री आवास में पैदा हुए, पिता के प्रधानमंत्री आवास में पले-बढ़े, और इसके बाद देश की सबसे ताकतवर नेता के पुत्र के रूप में राजनीति की। यही बात प्रियंका गांधी वाड्रा पर भी लागू होती है। उनके कहने भर की देर है, प्रधानमंत्री पद उनका हो जाएगा, लेकिन मुद्दा यह है कि क्या वे ऐसा चाहते हैं...? क्या यह पद उन्हें भी इस तरह ललचाता होगा, जिस तरह हम सबको ललचाता है।
मुझे याद है, वर्ष 1999 में मैं 10, जनपथ में प्रियंका से मिला था, जब वह एक खिड़की पर खड़ी थीं। मैंने पूछा कि क्या वह आने वाले चुनाव में खड़ी होंगी, उन्होंने तुरन्त जवाब दिया, "फिलहाल तो मैं सिर्फ इस खिड़की में खड़ी हूं..."
मुझे यह भी याद है कि किस तरह मुझे खुद को बार-बार याद दिलाना पड़ता था कि जिस शख्स के साथ मैं बैठा हूं, वह दून स्कूल का कोई साथी नहीं, देश का प्रधानमंत्री है। यह देखना अचंभित कर देता था कि कोई शख्स कितनी जल्दी बड़े पद के कामकाज से सामंजस्य बिठा सकता है, और कितना जल्दी यह बड़ा पद उसके लिए मामूली बात बनकर रह सकता है।
यह बातें हमें उस वक्त याद रखनी होंगी, जब हम संबद्ध पार्टी द्वारा बार-बार स्पष्ट जवाब दे चुकने के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति के दिमाग में उठने वाले सवाल - क्या प्रियंका 'हां' कहेंगी या 'नहीं' - का जवाब ढूंढने की कोशिश करेंगे। खैर, उन्होंने कहा है - नहीं... सो, हम लोग इस मुद्दे को यहीं पर खत्म क्यों नहीं कर सकते...?
लेकिन, इसी के साथ अटकलबाजी का दौर शुरू हो गया... अरुण जेटली ने प्रियंका के राजनीति में संभावित प्रवेश को 'राजमहल में तख्तापलट' की संज्ञा इस तरह दे डाली, जैसे वही सब कुछ जानते हों। किसी को भी भाई और बहन के इस जोड़े की एक साथ खिंची तस्वीरों को सिर्फ देखनेभर से असलियत का एहसास हो सकता है - दोनों भाई-बहन एक-दूसरे से कितना प्यार करते हैं, दोनों भाई-बहन एक-दूसरे का किस कदर सहारा हैं, दोनों भाई-बहन एक-दूसरे पर किस तरह निर्भर करते हैं... और अरुण जेटली जैसा कतई बाहरी व्यक्ति अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए इसे प्रतिद्वंद्विता बताने लगता है, जिसे दरअसल यह भी नहीं मालूम होगा कि पार्टी में क्या चल रहा है, और क्या नहीं।
इस पर कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि प्रियंका पार्टी के लिए बेहद बेशकीमती हैं। इस पर किसी को लेशमात्र भी संदेह नहीं कि पार्टी अंतर्तम से उनकी शिरकत चाहती है। यह बात पार्टी कार्यकर्ताओं और मतदाताओं को उत्साहित करती हैं कि उन्हें देखकर इंदिरा गांधी की याद आती है, और उन्हें सुनकर राजीव गांधी की यादें मूर्त हो उठती हैं। यह निश्चित है कि उनका पार्टी में हमेशा दिल खोलकर से स्वागत किया जाएगा, यहां तक कि अधिकतर कांग्रेसी उनके स्वागत के लिए पलक-पांवड़े बिछा देंगे।
लेकिन हम कौन होते हैं, उन्हें यह बताने के लिए कि वह अपने 'भाग्य में बदे' पद की तरफ बढ़ें या नहीं। यह उन पर, और सिर्फ उन पर निर्भर करता है। अगर वह किसी भी कारण से यह निर्णय करती हैं कि वह अभी - या कभी भी - ऐसा नहीं चाहतीं, तो उनका साथ पाए बिना आगे बढ़ने के अतिरिक्त पार्टी के पास कोई विकल्प नहीं है। या, स्पष्ट कहा जाए तो, कुछ हद तक उनके साथ बढ़ें, क्योंकि अपनी मां और भाई के निर्वाचन क्षेत्रों की प्रभारी तो वह हैं ही, जहां नरेंद्र मोदी की अंतिम समय में विनम्रता के दायरे से बाहर आकर की गई कोशिशों के बावजूद पार्टी को शानदार जीत हासिल हुई।
वह मोदी थे, जिन्हें अमेठी और रायबरेली से दुम दबाकर भागना पड़ा था।
कोई राजनीति में हुए बिना गहन राजनेता हो सकता है। प्रियंका दोनों ही हैं - गहन राजनेता भी, राजनीति से बाहर भी। परन्तु ज़रूरी नहीं कि हमेशा ऐसा ही रहे। हो सकता है, किसी दिन उन्हें लगे कि परिवार के प्रति उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारियां पूरी कर ली हैं, और अब वह राजनीति के दलदल में पांव रख सकती हैं। लेकिन यह भी हो सकता है कि वह दिन कभी न आए, कम से कम मेरे जैसे उम्रदराज़ नेताओं की बाकी राजनैतिक ज़िन्दगी में तो नहीं।
परन्तु युवा हो या वयोवृद्ध - हममें से किसी के लिए भी यह कतई अनैतिक होगा कि हम प्रियंका की ज़िन्दगी के बारे में अटकल लगाएं, और उन्हें बताएं कि उनके पास एक हारी हुई पार्टी की मदद के लिए सामने आने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। यह निर्णय पूरी तरह उनका खुद का होगा।
ठीक उसी तरह, जैसे वह उनकी मां का था। बहुत ज़्यादा लंबा वक्त नहीं बीता है, जब किस तरह हममें से कई (जिनमें नटवर सिंह भी शामिल थे) सोनिया से लगातार आग्रह कर रहे थे कि वह पार्टी संभाल लें। हमने सोचा था, उनका शोककाल एक साल का होगा, लेकिन वह उसके बाद भी अपने दुःखों के भंवर में घिरी रहीं। पार्टी टूट गई (जिसके अगुवा नटवर सिंह थे)। वह टस से मस नहीं हुईं। जब वर्ष 1996 में चुनावी परिदृश्य उलटने पर सीताराम केसरी ने पीवी नरसिम्हा राव को बाहर कर मेरे समेत कई नेताओं को हताश कर दिया, सोनिया फिर भी 10, जनपथ के दरवाज़े कसकर बंद किए रहीं।
फिर शुरू हुआ कांग्रेस का विघटन, जिसमें मेरा ममता बनर्जी के साथ चले जाना शायद शुरुआती पत्थर का लुढ़कना था, जो धीरे-धीरे हिस्खलन में बदल गया। और फिर अपने घर के आसपास टहलते-टहलते सोनिया ने अपने पति तथा ससुराल के विख्यात लोगों की तस्वीरें देखीं, जिन्होंने उन्हें प्रेरणा दी कि वह अपनी आशंकाओं को भीलकर उस पार्टी को बचाएं, जिसे पालने-पोसने के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया था। यह कर्तव्य की पुकार थी, जो उन्हें सक्रिय राजनीति में लेकर आई। मीडिया ने उस वक्त किस तरह खिल्ली उड़ाई थी... किस तरह एक प्रमुख महिला राजनेता ने यह चेतावनी देकर सभी महिलाओं को नीचा दिखाया था कि अगर कोई विदेशी स्वतंत्र भारत का प्रधानमंत्री बना तो वह सिर मुंडवा लेंगी... किस तरह उन्हें चुन-चुनकर नस्ली गालियां देने वाला शख्स उनकी चौखट पर बिना बुलाए भी खड़ा दिखाई दिया, जब उन्होंने अड़ियल एनडीए को पटखनी देते हुए स्वयंभू 'रामभक्तों' के लिए 10 साल के वनवास की शुरुआत कर दी थी।
इसलिए, हममें से किसी को भी प्रियंका से अनुरोध करने, उन्हें मनाने को कोशिश करने, या उन्हें धमकाने की कतई कोई ज़रूरत नहीं है। वह नेहरू-गांधी हैं। उन्हें उनके कर्तव्य अच्छी तरह मालूम हैं। जब ज़रूरत पड़ेगी - और ज़रूरत तभी पड़ेगी, जब हम गहरे संकट में होंगे - उन्हें पता चल जाएगा कि उनके लिए सामने आने का वक्त आ गया है। अगर हम खुद को मौजूदा स्थिति से बाहर लाकर परिस्थितियों को सामान्य कर सके - जो कतई संभव है - तो प्रियंका आराम से सोफे पर बैठकर अपनी पसंदीदा किताबें पढ़ते हुए वक्त बिताती रह सकती हैं।
वैसे भी यह साफ ज़ाहिर है कि वह आत्मा से कांग्रेस के साथ हैं। वह पार्टी में शामिल होती हैं या नहीं, यह पूरी तरह उन्हें ही तय करना है। और उनका निर्णय कुछ भी हो, अभी या भविष्य में, वह हमेशा पार्टी के हित में ही होगा।
"और हां, बीजेपी में बैठे 'अशुभचिंतकों' के लिए भी 'नमो' का जादू उतरता जा रहा है... केंद्र में सत्ता बदलने के बाद हुए तीन उपचुनावों में से सभी कांग्रेस के पक्ष में गए हैं... और 'मोदी के महान भ्रम' से हुए नुकसान की बची-खुची भरपाई भी आगामी विधानसभा चुनाव में हो जाएगी..."
जनसाधारण के साथ-साथ बीजेपी के दूसरी पंक्ति के नेताओं के बीच भी चुनावी राजनीति के 'गोगिया पाशा' को लेकर बना हुआ मतिभ्रम धीरे-धीरे दूर होता जाएगा। अब से एक-दो साल में ही साधारण बुद्धि वालों की समझ में भी संघ परिवार की निश्चित हार स्पष्ट दिखने लगेगी। उस वक्त बीजेपी, जैसा हम आज उत्तर प्रदेश में देख रहे हैं, बजरंग दल और अन्य की मदद से सांप्रदायिक कार्ड खेलेगी। उस वक्त प्रियंका अपनी भूमिका निभाएंगी। शायद पार्टी में कोई औपचारिक पद लेकर नहीं, लेकिन उस धर्मनिरपेक्ष भारत की रक्षा के लिए, जो वर्ष 1947 के बाद से अब तक के सबसे बड़े और गंभीर खतरे का सामना कर रहा है।
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