देश में तेज़ी से औद्योगिकरण की ओर बढ़ने वाले महाराष्ट्र और तमिलनाडु में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या कर रहे हैं। आंधप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। इन मौतों के बावजूद पीड़ित परिवार सरकारी संवदेनशून्यता झेलते हैं। सूचना के अधिकार के तहत मिले आंकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र, ख़ासकर विदर्भ और मराठवाड़ा में पिछले चार सालों में 5,698 किसानों ने ख़ुदकुशी की बावजूद इसके मुआवज़ा मिला सिर्फ 2,731 पीड़ित परिवारों को।
महाराष्ट्र में ख़ुदकुशी करने वाले किसान के परिजनों को फौरन एक लाख रुपये का मुआवज़ा दिया जाता है, लेकिन हकीक़त में साल 2011 में खुदकुशी के 1518 मामले दर्ज हुए, 637 किसानों को मुआवज़ा मिला। 2012 में 1473 किसानों ने आत्महत्या की, 732 को मुआवज़ा मिला, 741 को नहीं। 2013 में 1295 किसानों ने जान दी, 665 को मुआवज़ा मिला, 630 को नहीं। जबकि 2014 अक्तूबर तक 1410 मामलों में 730 को मुआवज़ा मिला, 479 पीड़ित परिवारों को नहीं। 203 फाइलें अब भी धूल फांक रही हैं।
बीजेपी-शिवसेना की सरकार का कहना है कि सारा गड़बड़झाला कांग्रेस-एनसीपी की पुरानी सरकार ने किया है। मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने कहा मामला कांग्रेस-एनसीपी पर दर्ज करना चाहिए पुरानी सरकार ने किसानों के लिए कुछ नहीं किया। खेती पर कोई निवेश नहीं किया, सिंचाई घोटाले की वजह से खेत सूखे रहे।
पिछले 5 सालों में खेती पर सिर्फ 1000 करोड़ रुपये का निवेश हुआ है। हालांकि जानकार मुख्यमंत्री से इत्तेफाक नहीं रखते। विदर्भ जनआंदोलन समिति के अध्यक्ष किशोर तिवारी ने एनडीटीवी से कहा कि पुरानी सरकार हो या नई दोनों की ग़लती है। ख़ुदकुशी के मामले में 30,000 रुपये नकद मिलते हैं, जबकि 70,000 रुपये पीड़ित परिवार के खाते में जाता है। मुआवज़ा तय करने का अधिकार ज़िला कमेटी का है, जो सिर्फ रकम नकारने के लिए बैठी है, सबसे पहले उसे भंग कर देना चाहिए और किसानों को कम से कम पांच लाख रुपये का मुआवज़ा मिलना चाहिए।
जानकारों के मुताबिक किसानों को मुआवज़ा नहीं मिलने की वजह बाबुओं की लेटलतीफी और घिसे पिटे नियम हैं। मसलन जिन किसानों ने उपज के लिए लोन नहीं लिया हो या अगर उसके पास ज़मीन का मालिकाना हक़ न हो तो कई बार उनके परिवारों को मुआवज़ा नहीं मिलता है।
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