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This Article is From Sep 28, 2020

महामारी के दौर में शिक्षा से दूर हुए गांव के बच्चों के शिक्षक बन गए कॉलेज छात्र, स्कूल शुरू किया

महाराष्ट्र के तरालपाड़ा में चल रहे वैकल्पिक स्कूल में बच्चे ज्ञानवर्धक खेल खेलते हैं, नियमित पढ़ाई करते हैं और साथ में गाने भी गाते हैं

तरालपाड़ा में स्कूल में बैठकर पढ़ते हुए छात्र-छात्राएं.

मुंबई:

महाराष्ट्र (Maharashtra) में मुंबई से लगभग 130 किलोमीटर दूर पालघर (Palghar) जिले के जौहर तालुका के एक आदिवासी गांव तरालपाड़ा में विभिन्न आयु वर्गों के करीब 30 बच्चे हर दिन सुबह नौ बजे एकत्रित होते हैं. यह सभी एक ऐसे वैकल्पिक स्कूल में इकट्ठे होते हैं जो यहां के पुराने छात्रों द्वारा संचालित किया जा रहा है. यह एक फन स्कूल (Fun school) है जहां वे ज्ञानवर्धक खेल खेलते हैं, नियमित पढ़ाई करते हैं और साथ में गाने भी गाते हैं.

यहां पढ़ने वाले ज्यादातर छात्र-छात्राएं छह से 15 वर्ष की उम्र के हैं जो कि पहले अपने गांवों से दूर आवासीय विद्यालय में जाते थे, लेकिन कोरोन वायरस (Coronavirus) संक्रमण के कारण वह स्कूल बंद है. कोरोना के कारण ही कॉलेजों के बंद होने से इस इलाके के 16 से 20 साल की आयु के कॉलेज छात्र-छात्राओं ने स्कूली बच्चों को पढ़ाने की पहल की है. वे दो बैचों में हर दिन दो घंटे बच्चों को पढ़ाते हैं. इनमें से एक बैच में  कक्षा एक से सात तक और दूसरे बैच में कक्षा आठ से 10 तक के विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है.

यह वैकल्पिक स्कूल करीब एक महीने पहले शुरू हुआ था. आवासीय स्कूल बंद होने से ज्यादातर बच्चे अपनी पढ़ाई भूल चुके थे. उनके सामने समस्या थी कि वे कैसे और किससे पढ़ें? 

तरलपाड़ा निवासी परशुराम भोरे इस स्कूल में पढ़ाते हैं. वे कहते हैं कि "लॉकडाउन के कारण, इनमें से ज़्यादातर बच्चे गांव में बस खेलते थे और इसलिए पिछले चार-पांच माह में वे सब कुछ भूल गए." भोरे गांव के अपने कुछ मित्रों के साथ इन बच्चों को मराठी, अंग्रेजी और गणित पढ़ाते हैं.

पालघर इलाके में लगभग 37 प्रतिशत जनजातीय आबादी है. जौहर में लगभग 90 फीसदी आदिवासी रहते हैं. यहां के अधिकांश क्षेत्र में जंगल है और यहां मोबाइल फोन नेटवर्क भी नहीं है. इंटरनेट कनेक्टिविटी का तो सवाल ही नहीं है. जौहर के निवासियों में से अधिकांश प्रवासी मजदूर हैं. उनके लिए अपने परिवार को दो वक्त का भोजन खिलाना भी मुश्किल होता है. स्मार्टफोन खरीदना उनके लिए बहुत दूर का सपना है.

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ऑनलाइन लर्निंग (Online learning) की व्यवस्था ने इन बच्चों की शिक्षा को गंभीर रूप से प्रभावित किया है. एक स्थानीय गैर-सरकारी संगठन 'श्रमजीवी संगठन' ने कॉलेज छात्रों को शिक्षण का प्रशिक्षण दिया ताकि वे स्वयं बच्चों को मुफ्त में पढ़ा सकें.

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श्रमजीवी संगठन की सामाजिक कार्यकर्ता सीता घटाल कहती हैं कि "इस क्षेत्र में कहीं भी ऑनलाइन शिक्षा नहीं है. यहां स्मार्टफोन और कनेक्टिविटी का मुद्दा है. इसलिए यहां ऑनलाइन शिक्षा संभव नहीं हो सकती."

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अब यहां बच्चे हर दिन अपने वैकल्पिक स्कूल में जाते हैं. इससे इन बच्चों के माता-पिता को भी राहत मिली है. बच्चों ने एक बार फिर से पढ़ाई का आनंद लेना शुरू कर दिया है.

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