सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
सुप्रीम कोर्ट ने व्यापमं घोटाले के सारे मामले सीबीआई को सौंप दिए हैं, और इसके साथ ही सीबीआई के 'जिम्मेदार' कंधों पर एक और फाइल का बोझ आ गया। लगभग हर बड़ा मामला जब पेचीदा हो जाता है, तो उसे सीबीआई की तरफ मोड़ दिया जाता है, सो, आखिर यह सीबीआई है क्या...?
सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन, यानी सीबीआई भारत की सबसे अहम जांच एजेंसी है, जो भारत सरकार के अंतर्गत काम करती है। सीबीआई की स्थापना 1941 में ‘स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट’ के तौर पर आंतरिक सुरक्षा की देखरेख के उद्देश्य से की गई थी, और 1963 में संस्था का नाम बदलकर सीबीआई रख दिया गया।
गौरतलब है कि सबसे अहम जांच एजेंसी होने के बावजूद सीबीआई की राहें कभी आसान नहीं रहीं, और लगभग हर बड़ी जांच के दौरान उसकी निष्पक्षता को लेकर सवाल खड़े हुए। पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने कोयला घोटाले की जांच के संदर्भ में सीबीआई को फटकारते हुए उसे 'पिंजरे में बंद तोते' की संज्ञा दी थी, जो सिर्फ अपने 'मालिक' की बोली बोलता है। कोर्ट के मुताबिक, सीबीआई ऐसा तोता है, जिसके कई मालिक हैं। दिलचस्प बात यह थी कि कोर्ट की इस टिप्पणी से बहुत-से लोग सहमत होते दिखाई दिए।
यही नहीं, हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सीबीआई के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के खिलाफ पद के दुरुपयोग के मामले में जांच होनी ही चाहिए। सिन्हा पर आरोप है कि उन्होंने पद पर रहते हुए न केवल कोयला घोटाले से जुड़े आरोपियों से मुलाकात की, बल्कि उनके साथ जांच से जुड़ी जानकारियां भी साझा कीं।
दूसरी ओर, राजनैतिक हस्तक्षेप के आरोप और आलोचनाओं से घिरी सीबीआई के हिस्से में कुछ सफलताएं भी हैं, जिनकी चर्चा होती रही हैं। कुछ साल पहले हुआ उत्तर प्रदेश का एनएचआरएम घोटाला, जिसमें सीबीआई ने कुछ अहम गिरफ्तारियां की थीं। मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में हुए इस घोटाले की आंच में कई राजनेता और अधिकारी फंसे थे और उन्हें जेल जाना पड़ा था। उत्तर प्रदेश में यह पहला ऐसा घोटाला था, जिसने रसूख वाले कई लोगों को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया था।
भूतपूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में दूरसंचार मंत्री रहे सुखराम भी सीबीआई के घेरे में आकर ही पकड़े गए थे। वर्ष 1998 में सीबीआई की तरफ से दायर की गई चार्जशीट में सुखराम और उनके एक सहयोगी पर तीन लाख रुपये की रिश्वत लेने और तार खरीदने में धांधली करने का आरोप लगाया गया था, जिसके बाद सुखराम को दिल्ली की एक अदालत ने पांच साल की सज़ा सुनाई थी। हालांकि 86 साल के सुखराम ने उम्र का हवाला देते हुए सज़ा में रियायत मांगी थी, लेकिन सीबीआई ने उन्हें आदतन अपराधी बताते हुए सख्त सज़ा की अपील की थी।
इसी साल सीबीआई की एक विशेष अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कोयला खदान के आवंटन में हुए कथित घोटाले से जुड़े एक मामले में तलब किया था, हालांकि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में सीबीआई ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी।
तमाम तरह के राजनैतिक रोड़ों का सामना करते हुए किसी भी जांच को अंजाम तक पहुंचाना आसान काम नहीं है और शायद इसीलिए सीबीआई को एक स्वायत्त संस्था (Autonomous body) बनाने की मांग होती रही है। 2013 में सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणियों के बाद यूपीए सरकार ने सीबीआई की स्वायत्तता के लिए शपथपत्र भी दाखिल किया था, जिसमें संस्था को सरकारी प्रभाव से मुक्त रखने के उपाय शामिल थे।
अब सवाल यह उठता है कि क्या वर्तमान सरकार इस बारे में कुछ और कदम उठाएगी या अपना राजनैतिक उल्लू सीधा करने के लिए यह तोता अब भी मालिक की बोली बोलता ही रह जाएगा...?
सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन, यानी सीबीआई भारत की सबसे अहम जांच एजेंसी है, जो भारत सरकार के अंतर्गत काम करती है। सीबीआई की स्थापना 1941 में ‘स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट’ के तौर पर आंतरिक सुरक्षा की देखरेख के उद्देश्य से की गई थी, और 1963 में संस्था का नाम बदलकर सीबीआई रख दिया गया।
गौरतलब है कि सबसे अहम जांच एजेंसी होने के बावजूद सीबीआई की राहें कभी आसान नहीं रहीं, और लगभग हर बड़ी जांच के दौरान उसकी निष्पक्षता को लेकर सवाल खड़े हुए। पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने कोयला घोटाले की जांच के संदर्भ में सीबीआई को फटकारते हुए उसे 'पिंजरे में बंद तोते' की संज्ञा दी थी, जो सिर्फ अपने 'मालिक' की बोली बोलता है। कोर्ट के मुताबिक, सीबीआई ऐसा तोता है, जिसके कई मालिक हैं। दिलचस्प बात यह थी कि कोर्ट की इस टिप्पणी से बहुत-से लोग सहमत होते दिखाई दिए।
यही नहीं, हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सीबीआई के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के खिलाफ पद के दुरुपयोग के मामले में जांच होनी ही चाहिए। सिन्हा पर आरोप है कि उन्होंने पद पर रहते हुए न केवल कोयला घोटाले से जुड़े आरोपियों से मुलाकात की, बल्कि उनके साथ जांच से जुड़ी जानकारियां भी साझा कीं।
दूसरी ओर, राजनैतिक हस्तक्षेप के आरोप और आलोचनाओं से घिरी सीबीआई के हिस्से में कुछ सफलताएं भी हैं, जिनकी चर्चा होती रही हैं। कुछ साल पहले हुआ उत्तर प्रदेश का एनएचआरएम घोटाला, जिसमें सीबीआई ने कुछ अहम गिरफ्तारियां की थीं। मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में हुए इस घोटाले की आंच में कई राजनेता और अधिकारी फंसे थे और उन्हें जेल जाना पड़ा था। उत्तर प्रदेश में यह पहला ऐसा घोटाला था, जिसने रसूख वाले कई लोगों को सलाखों के पीछे पहुंचा दिया था।
भूतपूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में दूरसंचार मंत्री रहे सुखराम भी सीबीआई के घेरे में आकर ही पकड़े गए थे। वर्ष 1998 में सीबीआई की तरफ से दायर की गई चार्जशीट में सुखराम और उनके एक सहयोगी पर तीन लाख रुपये की रिश्वत लेने और तार खरीदने में धांधली करने का आरोप लगाया गया था, जिसके बाद सुखराम को दिल्ली की एक अदालत ने पांच साल की सज़ा सुनाई थी। हालांकि 86 साल के सुखराम ने उम्र का हवाला देते हुए सज़ा में रियायत मांगी थी, लेकिन सीबीआई ने उन्हें आदतन अपराधी बताते हुए सख्त सज़ा की अपील की थी।
इसी साल सीबीआई की एक विशेष अदालत ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कोयला खदान के आवंटन में हुए कथित घोटाले से जुड़े एक मामले में तलब किया था, हालांकि मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में सीबीआई ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी।
तमाम तरह के राजनैतिक रोड़ों का सामना करते हुए किसी भी जांच को अंजाम तक पहुंचाना आसान काम नहीं है और शायद इसीलिए सीबीआई को एक स्वायत्त संस्था (Autonomous body) बनाने की मांग होती रही है। 2013 में सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणियों के बाद यूपीए सरकार ने सीबीआई की स्वायत्तता के लिए शपथपत्र भी दाखिल किया था, जिसमें संस्था को सरकारी प्रभाव से मुक्त रखने के उपाय शामिल थे।
अब सवाल यह उठता है कि क्या वर्तमान सरकार इस बारे में कुछ और कदम उठाएगी या अपना राजनैतिक उल्लू सीधा करने के लिए यह तोता अब भी मालिक की बोली बोलता ही रह जाएगा...?
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