शिक्षा का अधिकार कानून के 5 साल लेकिन कई चुनौतियां बाकी

नई दिल्ली:

तीन साल पहले प्रीति कुमार को दिल्ली के एक प्राइवेट स्कूल में एडमिशन मिला। ये शिक्षा का अधिकार कानून यानी आरटीई की वजह से मुमकिन हो पाया, जिसमें सभी गैरसरकारी स्कूलों को आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों के लिए 25 फीसद सीटें आरक्षित करना ज़रूरी है। लेकिन प्रीति जैसे खुश नसीब बच्चे कम ही हैं। क्योंकि निजी स्कूलों में जितने गरीब बच्चों के लिए कानूनी रूप से सीटें आरक्षित हैं उतने बच्चे वहां एडमिशन नहीं ले रहे।

आईआईएम अहमदाबाद समेत 4 बड़ी संस्थाओं की रिपोर्ट कहती है कि साल 2013-14 में कुल 21 लाख सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित थी यानी इतने गरीब बच्चे प्राइवेट स्कूलों में एडमिशन पा सकते थे लेकिन केवल 29 फीसद सीटें ही भर पाईं...

इस क्षेत्र में रिसर्च कर रही संस्था सेंट्रल स्क्वायर फाउंडेशन के सीईओ आशीष धवन कहते हैं, 'मुझे लगता है कि 25 फीसद सीटें आरक्षित करने का प्रावधान काफी अहम है क्योंकि ये इस बात को रेखांकित करता है कि निजी स्कूलों का शिक्षा में बड़ा योगदान है।

राइट टु एजुकेशन कानून 6 से 14 साल के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है। लेकिन कानून को लागू होने के पांच साल बाद भी अभी काफी कमियां दिख रही हैं। 92 फीसद स्कूल अब भी इस कानून के तहत सारे मानकों को पूरा नहीं कर रहे। 60 लाख बच्चे अब भी स्कूलों से बाहर हैं। केवल 45 फीसदी स्कूल ही हर 30 बच्चों में एक टीचर होने का अनुपात करते हैं।

शिक्षा का अधिकार कानून से लंबे वक्त से जुड़े लोग कहते हैं कि सबसे बड़ी चिंता पिछड़े इलाकों में स्कूलों का बंद होना है। राइट टु एजुकेशन फोरम के संयोजक अंबरीश कुमार कहते हैं, 'पिछले 5 साल में एक लाख से ज्यादा स्कूल बंद हुए हैं। इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है। ऐसे हालात इसलिए हो रहे हैं क्योंकि सरकार ध्यान नहीं दे रही, उल्टे सरकार आरटीई के तहत बजट में कटौती कर रही है।'

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लेकिन पिछले 5 साल में उम्मीद के दरवाज़े भी खुले हैं। शिक्षा की मांग बढ़ी है। दिल्ली, मध्यप्रदेश और राजस्थान में गरीब बच्चों के दाखिले में संतोषजनक सुधार हुआ है। मिसाल के तौर पर दिल्ली में निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए आरक्षित सीटों में 92 फीसदी में एडमिशन हुए हैं। मध्यप्रदेश में ये औसत 88 और मणिपुर में 64 है।